Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 308
________________ २६५ १२३ गाथा ] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकजणिद्दसो $ १५६. 'मोहणीयस्स एयट्ठाणिओ बंधो'त्ति तदियं करणं । एदस्सत्थो-एत्तो हेट्ठा देसघादिविट्ठाणिएहिंतो मोहणीयस्साणुभागबंधो एण्हि परिणामपाहम्मेण ओहट्टिदण एयट्ठाणिओ जादो त्ति घेत्तव्यो। 'णqसय वेदपढमसम्मत्तउवसामओ' त्ति चउत्थकरणमेस्थाढत्तं, णqसयवेदस्सेव पढममावुत्तकरणेण उवसामणकिरियाए एत्तो पवुत्तिदंसणादो। 'छसु आवलियासु गदासु उदीरणा' एवं पंचमं करणमेस्थाढविजदे । एदस्सत्थविवरणमुवरि चुण्णिसुत्तावलंबणेण पवंचइस्सामो । 'मोहणीयस्स एगट्ठाणिओ उदयो' त्ति छट्ठ करणं । एदस्सत्थो-पुव्वं विट्ठाणियदेसघादिसरूवेण पयट्टमाणो मोहणीयाणुभागोदयो अंतरकरणाणंतरमेव एयवाणियसरूवेण परिणदो त्ति भणिदं होइ । 'मोहणीयस्स संखेज्जवस्सिओ हिदिबंधो' त्ति सत्तमं करणं । एदस्सत्थो-पुव्वमसंखेजवस्सियस्स मोहणीयविदिबंधस्स एण्हि सुट्ट, ओहट्टिदण संखेजवस्ससहस्सपमाणेणावट्ठाणं होइ त्ति वुत्तं होइ । सेसाणं पुण कम्माणमसंखेजवस्सियो चेव ठिदिबंधो, तेसिमञ्ज वि संखेजवस्सियविदिबंधपारंभविसयस्साणुप्पत्तीदो । एवमेदेसिं सत्तण्हं करणाणमंतरं कदपढमसमए जुगवं पारंभो होदि त्ति एदेण सुत्तेण पदुप्पाइय संपहि 'छसु आवलियासु गदासु उदीरणा' त्ति जं पदं तस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * छसु आवलियासु गदासु उदीरणा णाम, किं भणिदं होइ । ६१५६. मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध यह तीसरा करण है। इसका अर्थ-इससे पूर्व देशघाति द्विस्थानीयरूपसे मोहनीयका अनुभागबन्ध होता रहा, अब परिणामोंके माहात्म्य वश घट कर वह एकस्थानीय हो गया ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। नपुंसकवेदका प्रथम समय उपशामक यह चौथा करण यहाँपर आरम्भ हुआ है, क्योंकि प्रथम आयुक्तकरणके द्वारा नपुंसकवेदकी ही उपशामन क्रियामें यहाँसे प्रवृत्ति देखी जाती है। छह आवलियाओंके जानेपर उदीरणा इस पाँचवें करणको यहाँ आरभ्भ करता है। इसके अर्थका विवरण आगे चूर्णिसूत्रके अवलम्बन द्वारा विस्तारसे करेंगे। मोहनीयका एकस्थानीय उदय यह छटा करण है। इसका अर्थ-पहले द्विस्थानीय देशघातिरूपसे प्रवृत्त हुआ मोहनीय कर्मका अनुभागउदय अन्तरकरणके अनन्तर ही एकस्थानीयरूपसे परिणत हो गया यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'मोहनीयकर्मका संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध' यह सातवाँ करण है। इसका अर्थ-पहले मोहनीयकर्मका जो स्थितिबन्ध असंख्यात वर्षप्रमाण होता रहा उसका इस समय काफी घटकर संख्यात हजार वर्षप्रमाणरूपसे अवस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु शेष कर्मोंका असंख्यात वर्षप्रमाण ही स्थितिबन्ध होता है, क्योंकि उनका अभी भी संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ नहीं हुआ है। इस प्रकार इन सात करणोंका अन्तर कर चुकनेके प्रथम समयसे ही युगपत् प्रारम्भ होता है इस प्रकार इस सूत्र द्वारा कथन करके अब 'छह आवलियाओंके व्यतीत होनेपर उदीरणा' यह जो सूत्रपद है उसका स्पष्टीकरण करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * 'छह आवलियाओंके व्यतीत होनेपर उदीरणा' ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402