Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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१२३ गाथा ]
चरितमोहणीय-उवसामणाए करणकज्जणिद्देसो
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गंध दिवमस्स असं खेज्जदिभागो चेव णाज्जवि कस्स वि कम्मस्स संखेज्ज - सिओ द्विदिबंध पारभदि, एत्तो सुदूरमुवरि गंतूणंतरकरणादो परदो संखेजवस्सदिबंधस्स पारंभदंसणादो । ट्ठिदिसंतकम्मं पुण सव्वेसिमेव कम्माणमंतोकोडाको डीए एदम्मि विसये दट्ठव्वं, उवसमसेढीए पयारंतरासंभवादो । एदम्मि अदिकं तट्ठिदिबंधोसरणविसये सव्वत्थेव पुव्युत्तेणेव विहिणा डिदि अणुभागखंडय गुण से ढिआदीण मणुगमो काव्यो, तत्थ णाणत्ताभावादो । संपहि एत्थुद्दे से कीरमाणकज्जभेदपदुप्पायणमुवरिमो सुत्तपबंधो
* तदो असंखेजाण समयपबद्धाणमुदीरणा च ।
$ १३१. हेड्डा सम्वत्वं असंखेज्जलोगपडिभागेण पयट्टमाणा उदीरणा एव्हिं परिणामपाहम्मेण पुच्चुत्तकिरिया कलावस्तुवरि असंखेजाणं समयपत्रद्धाणमुदीरणा च पवत्तदि, दिवड गुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणमोकड्डूणभागहारादो असंखेज्जगुणेण भागहारेण खंडिदेयखंड स असंखेज्जसमयपबद्धपमाणस्सेत्थुदीरणासरूवेणुदये पवेसदंसणादो । उदयस्स पुण असंखेज्जदिभागो चैव उदीरणा एत्थ सव्वत्थ गहेयव्वा, उक्कस्सोदीरणादव्वस्स वि उदयगदगुणसेढिम्हि गोवुच्छं पेक्खियूणा संखेजगुणहीणत्तणियमदंसणादो ।
* तदो संखेज्जसु ठिदिबंध सहस्सेसु गदेसु मणपज्जवणाणावरणीयसभी कर्मोंका स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, अभी तक किसी भी कर्मका संख्यात वर्षकी स्थितिवाला बन्ध प्रारम्भ नहीं हुआ है, क्योंकि इससे बहुत दूर ऊपर जाकर अन्तरकरणके पश्चात् संख्यात वर्षकी स्थितिवाले बन्धका प्रारम्भ देखा जाता है । किन्तु इस स्थलपर सभी कर्मोंका स्थितिसत्कर्म अन्तःकोड़ा कोड़ी के भीतर जानना चाहिए, क्योंकि उपशमश्रेणिमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । यहाँ ये जितने स्थितिबन्धापसरण हुए हैं वहाँ सर्वत्र ही पूर्वोक्त विधिसे ही स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और गुणश्रेणि आदिका अनुगम करना चाहिए, क्योंकि इस विषय में नानात्व नहीं पाया जाता । अब इसी स्थलपर किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* पश्चात् असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है ।
$ १३१. पूर्व में सर्वत्र ही जो उदीरणा असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभाग के अनुसार प्रवृत्त होती आरही थी इस समय वह उदीरणा परिणामोंके माहात्म्यवश पूर्वोक्त क्रियाकलापके ऊपर असंख्यात समयप्रबद्धों की प्रवृत्त होती है, क्योंकि अपकर्षण भागहार से असंख्यात - गुणे भागहार के द्वारा डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धों को भाजित कर जो असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण एक भाग लब्धरूपसे प्राप्त होता है उसका यहाँ उदीरणारूपसे उदय में प्रवेश देखा जाता है । परन्तु यहाँ सर्वत्र उदीरणाको उदयके असंख्यातवें भागप्रमाण ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उत्कृष्ट उदीरणाद्रव्यका भी ऐसा नियम है कि वह उदयगत गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको देखते हुए असंख्यातगुणा हीन देखा जाता है ।
* तत्पश्चात् संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होने पर मनःपर्यव
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