Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गाथा १२३] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकज्जणिदेसो
२५९ णिरुद्धे पुरिसवेदस्स, जहा वा अण्णदरसंजलणोदये णिरुद्धे सेससंजलणाणं, तेसिमंतरविदीसुक्कीरिजमाणस्स पदेसग्गस्स कत्थ णिक्खेवो होदि ति एदस्स णिद्वारणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो--
* जे कम्मंसा ण बझंति ण वेदिजति तेसिमुक्कीरमाणं पदेसग्गं बज्झमाणीणं पयडीणमणुकीरमाणीसु हिदीसु देदि।।
$ १५२. एदेसिं च कम्माणं उत्कीरिजमाणस्स पदेसग्गस्स बज्झमाणीणमणुकीरमाणीसु हिदीसु विदियट्ठिदिसंबंधिणीसु जासिं बंधपयडीणं पढमद्विदी अत्थि, तत्थ य संचरणमोकड्डणुक्कड्डणावसेण ण विरुज्झदि त्ति वुत्तं होइ । संपहि एदेहिं चदुहिं सुत्तेहिं परूविदत्थस्स पुणो वि विसेसणिण्णयं कस्सामो। तं जहा-अंतरं करेमाणो जाणि कम्माणि बंधदि वेदेदि च तेसिं कम्माणमंतरविदोसुक्कीरिजमाणं पदेसग्गमप्पणो पढमहिदीए च णिक्खवदि आबाधं मोत्तूण पुणो वि विदियद्विदीए च णिक्खिवदि, अंतरविदीसु पुण ण णिक्खियदि, तासु णिल्लेविजमाणीसु णिक्खेवविरोहादो । जाव अंतरदुचरिमफाली ताव सत्थाणे वि ओकड्डणा-अइच्छावणावलियं मोत्तणंतरहिदीसु पयदि त्ति के वि आइरिया वक्खाणेति एसो अत्थो सव्ववियप्पेसु जाणिय
है, जैसे शेष वेदोंके उदयके रहते हुए पुरुषवेदका केवल बन्ध होता है अथवा जैसे अन्यतर संज्वलनका उदय रहते हुए शेष संज्वलनोंका मात्र बन्ध होता है, उनकी अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुजका कहाँ पर निक्षेप होता है इस प्रकार इस सूत्रका निर्धारण करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है--
* जो कर्मपुञ्ज न बँधते हैं और न वेदे जाते हैं उनका उत्कीर्ण होनेवाला प्रदेशपुञ्ज बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंकी उत्कीर्ण नहीं होनेवाली स्थितियों में देता है।
$ १५२. इन कर्मों के उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुञ्जका बँधनेवाली प्रकृतियोंकी नहीं उत्कीर्ण होनेवाली द्वितीय स्थितिसम्बन्धी स्थितियों में और जिन बन्ध प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति है उसमें अपकर्षण और उत्कर्षण के कारण संचरण विरोधको नहीं प्राप्त होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इन चार सूत्रों द्वारा प्ररूपित अर्थका फिर भी विशेष निर्णय करेंगे। यथा-अन्तरको करनेवाला जीव जिन कर्मोको बाँधता है और वेदता है उन कर्मोंकी अन्तर स्थितियोंमेंसे उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुञ्जको अपनी प्रथम स्थितिमें निक्षिप्त करता है और आबाधाको छोड़कर द्वितीय स्थितिमें भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में निक्षिप्त नहीं करता, क्योंकि उनके कर्मपुञ्जसे वे स्थितियाँ रिक्त होनेवाली हैं, इसलिये उनमें निक्षेप होनेका विरोध है। जबतक अन्तरसम्बन्धी द्विचरम फालि है तब तक स्वस्थान में भी अपकर्षणसम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड़कर अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते हैं। यह अर्थ सब विकल्पोंमें जानकर