Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणां
पढमट्ठिदीएच ओकड्डियूण णिक्खिवदित्ति एसो एत्थ सुत्तत्थणिच्छओ । एत्थ 'बज्झमाणीणं पयडीणमणुक्कीरमाणीसुट्ठिदीसु' त्ति वृत्ते गंधपयडीणं विदियट्ठिदिसंबंधिणीसु अणुकीरमाणीसु द्विदीसु सोदयाणमणुकीरमाणपढमडिदिसंबंधिणीसु च णिक्खिवदित्ति धेत्तव्वं । संपहि जेसिं कम्माणं बंधसंभवो णत्थि, केवलमुदओ चेव, जहा इत्थ- पुंसयवेदाणं, तेसिमंतरद्विदीसुकीरिजमाणस्स पदेसग्गस्स कत्थ संचरणमिच्चriate णिण्णयविहाणद्वमुत्तरमुत्तमोइण्णं-
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* जे कम्मंसा ण बांति वेदिज्जति च तेसिमुक्कीरमाणयं पदेसरगं अष्पष्पणो पढमद्विदीएच देवि, बज्झमाणीणं पयडीणमणुक्कीरमाणीसु च ट्ठिदीसु देदि ।
$ १५१. एदेसिं कम्माणमुक्कीरिजमाणं पदेसग्गमप्पणी पढमट्ठिदीए सोदयाणं संजणाणं च पढमट्ठिदीए णिसिंचदि, अप्पणो विदियट्ठिदीए ण णिसिंचदि, बंधसंबंधाभावेण सत्थाणे उकडुणाभावोदो । किंतु बज्झमाणीणमणुकीरमाणीसु द्विदीसु देदि, बंधसंभवेण तत्थुक्कड्डणाए विरोहाभावादो। एत्थ वि बज्झमाणीणमणुकीरमाणीसु ट्ठिी तित्ते बंधपयडीणं विदियट्ठिदीए जासिमुदयो अत्थितासिं पढमट्ठिदीए च गहणं कायव्वं । संपहि जेसिं कम्माणं बंधो अस्थि केवलमुदयो णत्थि, जहा से सवेदोदये
प्रदेश पुञ्जको बँधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिके बन्धरूप प्रथम निषेकसे लेकर उपरिम बन्धरूप स्थितियोंमें उत्कर्षण करके निक्षिप्त करता है यह इस सूत्र के अर्थका निश्चय है ।
यहाँ पर सूत्र में 'बज्झमाणीणं पयडीणमणुक्कीरमाणीसु द्विदीसु' ऐसा कहने पर बन्ध प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिसम्बन्धी अनुत्कीर्ण होनेवाली स्थितियों में और उदयसहित बन्धप्रकृतियों की अनुत्कीर्ण होनेवाली प्रथम स्थितियों में निक्षेप करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अब जिन कर्मों का बन्ध सम्भव नहीं है, केवल उदय ही है, जैसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, उनको अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुञ्जका कहाँ संचरण होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* जो कर्मपुञ्ज बँधते नहीं, किन्तु वेदे जाते हैं उनके उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेश पुञ्जको अपनी-अपनी प्रथम स्थितिमें देता है और बध्यमान प्रकृतियों की अनुत्कीर्ण होनेवाली स्थितियों में देता है ।
$ १५१ इन कर्मोंके उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुञ्जको अपनी प्रथम स्थितिमें और उदयसहित संज्वलनोंकी प्रथम स्थिति में निक्षिप्त करता है अपनी द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त नहीं करता, क्योंकि इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे स्वस्थानमें उत्कर्षणका अभाव है । किन्तु बँधने वाली प्रकृतियोंकी अनुत्कीर्ण होनेवाली स्थितियों में देता है, क्योंकि बन्ध होने से उनमें उत्कर्षण होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता। यहाँ पर भी 'बज्झमाणीणमणुक्कीरमाणीसु द्विदीसु' ऐसा कहने पर बन्ध प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिका और जिनका उदय है उनकी प्रथम स्थितिका ग्रहण करना चाहिए। अब जिन कर्मोंका बन्ध होता है, केवल उदय नहीं