Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 303
________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा पण्णवेयव्यो, सुत्ने मुत्तकंठमेवंविहस्स संभवस्स पडिसिद्धत्तादो। जाणि पुण कम्माणि ण बझंति ण वेदिजंति य ताणि कदमाणि त्ति वुत्ते अट्ठकसाय-छण्णोकसायवेदणीयाणि तेसिमुक्कीरिजमाणपदेसग्गमप्पणो हिदीसु ण दिजदि, किंतु बज्झमाणीणं पयडीणं विदियहिदीए बंधपढमणिसेयमादि कादणुक्कड्डणाए णिसिंचदि । बज्झमाणीणमबज्झमाणीणं च जासिं पढमहिदी अस्थि तत्थ वि जहासंभवमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि णिक्खिवदि, सत्थाणे पुण ण णिक्खिवदि । जे वुण कम्मंसा ण बझंति वेदिजंति च, जहा इथिवेदो गर्बुसयवेदो वा तेसिमंतरद्विदिपदेसग्गं घेत्तूण अप्पप्पणो पढमद्विदीए च ओकड्डणासंकमेण देदि उदइन्लाणं संजलणाणं पढमहिदीए च ओकड्डण-परपयडिसंकमेहिं समयाविरोहेण णिक्खिवदि विदियविदीए च बंधम्मि उक्कड़ियूण णिसिंचदि । जे वुण कम्मंसा बज्झमाणा चेव केवलं ण वेदिजमाणा, जहा परोदयविवक्खाए पुरिसवेदो अण्णदरसंजलणो वा, तेसिमंतरविदीसु उक्कीरिजमाणस्स पदेसग्गस्स अप्पणो विदियट्ठिदीए उक्कड्डणावसेण संचारो सोदयाणं बज्झमाणाणं पढम-विदियहिदीसु अणुदयाणं बज्झमाणाणं विदियहिदीए च संचारो ण विरुद्धो त्ति। एसो चउण्हं सुत्ताणमत्थसंगहो। चाहिए, क्योंकि सूत्र में इस प्रकारका सम्भव मुक्तकण्ठ प्रतिषिद्ध है। परन्तु जो कर्म न बँधते हैं और न वेदे जाते हैं वे कौन हैं ऐसी पृच्छा होने पर वे आठ कषाय और छह नोकषाय हैं। उनके उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुंजको अपनी स्थितियों में नहीं देता है, किन्तु बँधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सींचता है। तथा बँधनेवाली और नहीं बँधनेवाली जिन प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति है उनमें भी यथासम्भव अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमद्वारा सींचता है, परन्तु स्वस्थान में निक्षिप्त नहीं करता। किन्तु जो कर्म बँधते नहीं हैं, किन्तु वेदे जाते हैं, जैसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, उनकी अन्तरसंबंधी स्थितियों के प्रदेसपुंजको ग्रहणकर अपनी-अपनी प्रथम स्थितिमें अपकर्षणसंक्रमद्वारा देता है, उदयको प्राप्त संज्वलनोंकी प्रथमस्थितिमें अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमद्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है और बन्धकी द्वितीय स्थितिमें उत्कर्षणकर सिश्चित करता है। परन्तु जो कर्म केवल बन्धको ही प्राप्त होते हैं, वेदे नहीं जाते हैं, जैसे परोदयकी विवक्षामें पुरुषवेद और अन्यतर संज्वलन, उनकी अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुञ्जका उत्कर्षणवश अपनी द्वितीय स्थितिमें सञ्चार, उदयसहित बंधनेवाली प्रकृतियोंकी प्रथम और द्वितीय स्थितियोंमें तथा अनुदयरूप बँधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें सञ्चार विरुद्ध नहीं है इस प्रकार पूर्वमें कहे गये चार सूत्रोंका समुच्चयार्थ है। विशेषार्थ-जब यह जीव अनिवृत्तिकरणमें चारित्रमोहनीयकी अवशिष्ट बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अन्तर करता है तब उन प्रकृतियोंकी अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंमें स्थित प्रदेशपुञ्जका यथासम्भव उत्कर्षण, अपकर्षण या परप्रकृतिसंक्रम होकर निक्षेप कहाँ किसप्रकार होता है इस प्रकार इस बातका विशेष विचार अनन्तर पूर्वके चार सूत्रोंमें किया गया है । प्रकृतमें उक्त प्रकृतियोंका विवरण इस प्रकार है

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