Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गाथा ११५ )
संजदासंजदस्स कज्जविसेसपरूवणा
$४७ एवमेदेण सुत्तेण सत्थाणसंजदासंजदस्स गुणसेढिणिक्खेवगयविसेसं जाणाविय संपहिजो संकिलेस भारेणोदृद्धो संजमासंजमादो णिप्पडिदो संतो हिदिअणुभागे वड्डाविय पुणो तप्पाओग्गेण कालेण संजमासंजमग्गहणाहिमुहो होइ तस्स केरिसी परूवणा त्ति एवंविहासंकाए णिण्णयविहाणडुमुत्तरसुत्तावयारो
१३१
* जदि संजमासंजमादो पडिवदिदूण आगुंजाए मिच्छत्तं गंतूण तदो संजमासंजमं पडिवज्जइ, अंतोमुहुत्तेण वा विप्पकट्ठेण वा कालेण, तस्स वि संजमासंजमं पडिवजमाणयस्स एदाणि चैव करणाणि कादव्वाणि । $ ४८. एदस्स सुत्तस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा -3 -अगुंजन मागुंजा, संक्लेशभरेणांतराघूर्णनमित्यर्थः । तदो संकिलेसभरेण पेल्लिदो संतो जो संजमासंजमा दो मिच्छत्तपायाले णिवदिय पुणो वि अंतोमुहुत्तेण वा विष्पकिट्टेण वा कालेणाविणट्ठवेदगपाओग्गभावेण विसोहिमावूरिय संजमासंजमं पडिवज्जइ तस्स तहा संजमा -
गुणहानि, संख्यात गुणहानि, संख्यात भागहानि असंख्यात भागहानि और अनन्त भागहानिके भेद छह प्रकारका होता है । अतः उसके जिस समय जिस प्रकारका संक्लेश परिणाम होता है उसके अनुसार वह जो गुणश्र णिनिक्षेप करता है वह भी चार प्रकारका होता है - कोई गुणश्रेणिनिक्षेप असंख्यात गुणहानिरूप होता है, कोई संख्यात गुणहानिरूप होता है, कोई संख्यात भागहानिरूप होता है और कोई असंख्यात भागहानिरूप होता है । इतना अवश्य है कि गुण में जिस द्रव्यका निक्षेप होता है वह कम हो या अधिक हो, परन्तु गुणश्रेणिआयाम सर्वत्र अवस्थितरूपसे एकसमान ही होता है ।
$ ४७. इस प्रकार इस सूत्रद्वारा स्वस्थान संयतासंयतके गुणश्रेणिनिक्षेपगत विशेषताका ज्ञान कराकर अब संक्लेशभार से व्याप्त जो जीव संयमासंयमसे पतित होता हुआ स्थिति और अनुभागको बढ़ाकर पुनः तत्प्रायोग्य कालके द्वारा संयमासंयम के ग्रहण के सन्मुख होता है उसकी प्ररूपणा किस प्रकारकी होती है इस तरह इस प्रकारकी आशंकाके होनेपर निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार है
* यदि कोई जीव आगुंजावश अर्थात् संक्लेशकी बहुलता से प्रेरित हो संयमासंयमसे च्युत होता है और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालसे या विप्रकृष्ट कालसे संयमासंयमको प्राप्त होता है तो संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले उसके भी ये ही करण करणीय होते हैं
1
$ ४८. इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । यथा - आगुजा शब्दकी व्युत्पत्ति है- आगुञ्जनमागुजा । संक्लेशभर से भीतर ही भीतर उद्वेलित होना यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसलिये संक्लेशभर से प्रेरित हुआ जो जीव संयतासंयतगुणसे मिथ्यात्वरूपी पातालमें गिरकर फिर अन्तर्मुहूर्त कालसे या जिस कालके भीतर वेदकप्रायोग्य भाव नष्ट नहीं हुआ है ऐसे विप्रकृष्ट
१. ता० प्रती संक्लेशभारेणाघार्णनमित्यर्थः इति पाठः ।