Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गाथा ११५ ]
संजदासंजढ़े पदविसेसाणमप्पाबहुअपरूवणा
१४७
* तदो असंखेज्जे लोगे अइच्छिण जहण्णयं पडिवज्ज माणस्स पाओग्गं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं ।
९०. दो पुव्युत्तजहण्णट्ठाणादो पहुडि असंखेज्जलोगमेत्तपमाणाणि एयंतपडिवादपाओग्गलद्धिट्ठाणाणि समुल्लंघियूण एत्थु से सम्बुकस्सपडिवादट्ठाणादो असंखेज्ज लोग मेत्तमंत रिदूण तत्तो अनंतगुणवड्डीए पडिवज्जमाणगस्स पाओग्गं जहण्णयं लट्ठिाणं होइ । एत्तो हेट्टिमासेसलट्ठिाणेसु पडिवादं मोत्तूण संजमा - संजम पडिवत्तीए अच्चंताभावेण पडिसिद्धत्तादो ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । संपहि एदस्सेव सुत्तसूचिदत्थस्स फुडीकरणड मुवरिममप्पा बहुअसाहणभूदमेत्थ किंचि अत्थपरूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा -
$ ९१. सव्वजहण्णलद्धिट्ठाणादो पहुडि उवरि असंखेज्जलोगमेत्ताणि पडिवादट्ठाणाणि मणुसपाओग्गाणि चैव होदूण गच्छंति जाव तप्पाओग्गासंखेज्जलोगमेट्टणाणि संमुल्लंघियूण तिरिक्खजोणियस्स जहण्णयं पडिवादट्ठाणमुप्पण्णं ति । तदो पहुडि तिरिक्ख मणुस्सजोणियाणं साहारणभावेण असंखेज्ज लोगमेत्तपडिवादट्ठाणेसु गच्छमाणेसु तिरिक्खस्स उक्कस्सयं पडिवादट्ठाणं तत्थु से परिहायदि । तदो पुणो वि असंखेज्जलोगमेत्तद्भाणमुवरि गंतूण मणुसजोणियस्स उकस्सयं पडिवादट्ठाणमेत्थुद्दे से थक्कदि । तत्तो परमसंखेज्जलोगमेत्तमंतरं होदूण पुणो मणुससंजदा
* उससे असंख्यात लोकप्रमाण लब्धिस्थानोंको उल्लंघन कर अनन्तगुणी वृद्धिस्वरूप प्रतिपद्यमान स्थानके योग्य जघन्य लब्धिस्थान होता है ।
$ ९०. 'तदो' अर्थात् पूर्वोक्त जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण एकान्तसे प्रतिपातके योग्य लब्धिस्थानोंको उल्लंघन कर यहाँ सर्वोत्कृष्ट प्रतिपातस्थानसे असंख्यात लोकप्रमाण अन्तर देकर उससे अनन्तगुणी वृद्धिको लिये हुए प्रतिपद्यमानस्थानके योग्य जघन्य लब्धिस्थान होता है। इससे नीचे के समस्त लब्धिस्थानोंमें प्रतिपातको छोड़कर उनमें संयमासंयमकी प्राप्तिका अत्यन्ताभाव होनेसे उनमें उसकी प्राप्तिका निषेध किया है यह इस सूत्रका भावार्थ है । अब इस सूत्र से सूचित इसी अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिये आगे के अत्पबहुत्व के साधनभूत किंचित् अर्थकी यहाँ प्ररूपणा करेंगे । यथा
$ ९१. सबसे जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिपातस्थान मनुष्यों के योग्य ही होकर तबतक जाते हैं जब जाकर तत्प्रायोग्य असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर तिर्यञ्चयोनि जीवका जघन्य प्रतिपातस्थान उत्पन्न हुआ है । पुनः वहाँसे लेकर तिर्यञ्चयोनि और मनुष्य दोनोंके साधारणरूपसे पाये जानेवाले असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिपातस्थानोंके जाने पर उस स्थान पर तिर्यञ्चके उत्कृष्ट प्रतिपातस्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है । तत्पश्चात् फिर भी असंख्यात लोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर इस स्थानपर मनुष्यका उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान विच्छिन्न होता है । इसके बाद असंख्यात लोक