Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणा ४. एसा विदियगाहा णिरुद्धचरित्तमोहपयडीए उवसामिजमाणाए समयं पडि उवसामिजमाणपदेसग्गस्स द्विदि-अणुभागाणं च पमाणावहारणटुं पुणो तस्संबंधेणेव बज्झमाण-वेदिजमाण-संकामिज्जमाणोवसामिज्जमाणट्ठिदि-अणुभाग-पदेसाणमप्पाबहुअविहाणटुं च समोइण्णा। तं जहा-'कदि भागुवसामिज्जदि' एवं भणिदे णिरुद्धचरित्तमोहपयडीए द्विदिमुवसामेमाणो द्विदीए केवडियं भागमुवसामेदि, केत्तिये भागे संकामेदि, कदिमागे वा उदीरेदि, केत्तियं वा भागं बंधदि । एवमणुभाग-पदेसाणं पि पादेक्कं पुच्छाणुगमो कायव्वो। तदो द्विदि-अणुभाग-पदेसाणमेत्तिओ एत्तिओ भागो उवसामिज्जदि संकामिज्जदि उदीरिज्जदि बज्झदि वा त्ति एवंविहो अत्थणिद्देसो एदम्मि गाहासुत्ते णिबद्धो त्ति घेत्तव्यो । एदस्स विसेसणिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तसंबंधेण कस्सामो। (६५) केवचिरमुवसामिजदि संकमणमुदीरणा च केवचिरं ।
केवचिरं उवसंतं अणुवसंतं च केवचिरं ॥११८॥ ६५. एसा तदियगाहा उवसामण्णकिरियाए कालपमाणावहारणढमागया। तं जहा–'केवचिरमुवसामिज्जदि' णिरुद्धचरित्तमोहणीयपयडिमुवसामेमाणो केवचिरेण कालेणवसामेइ, किमेगसमयेण आहो अंतोमुहुत्तादिकालेणे त्ति एवंविहे कालणिद्देस
४. यह दूसरी गाथा विवक्षित चारित्रमोहनीय प्रकृतिका उपशम करनेकी अवस्थामें प्रति समय उपशामित होनेवाले प्रदेशपुञ्जके तथा स्थिति और अनुभागके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये पुनः उसीके सम्बन्धसे ही बन्धको प्राप्त होनेवाले, वेदे जानेवाले, संक्रमित होनेवाले और उपशमको प्राप्त होनेवाले स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये अवतीर्ण हुई है। जैसे-'कदि भागुवसामिजदि' ऐसा कहने पर विवक्षित चारित्रमोह प्रकृतिकी स्थितिका उपशम करता हुआ स्थितिके कितने भागका उपशम करता है. कितने भागोंका संक्रम करता है, कितने भागोंकी उदीरणा करता है और कितने भागका बाँधता है । इसीप्रकार अनुभाग और प्रदेशोंसम्बन्धी पृच्छाका भी पृथक्-पृथक् अनुगम करना चाहिए । इसलिये स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके इतने-इतने भागको उपशमाता है, संक्रमित करता है, उदीरित करता है और बाँधता है इस प्रकारका अर्थविशेष इस गाथासूत्रमें निबद्ध है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इसका विशेष निर्णय आगे चूर्णिसूत्र के सम्बन्धसे करेंगे।
*चारित्रमोहनीय कर्म-प्रकृतियोंका कितने काल द्वारा उपशमन करता है, उनका संक्रमण और उदीरणा कितने काल तक होती है, कौन कर्म कितने काल तक उपशान्त रहता है और कितने काल तक अनुपशान्त रहता है ॥११८॥
१५. यह तीसरी गाथा उपशामन क्रियाके कालके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये आया है। यथा-'केवचिरं उवसामिज्जदि' विवक्षित चारित्रमोहनीयकी प्रकृतिकी उपशमाना करता हुआ कितने काल द्वारा उपशमाता है, क्या एक समय द्वारा या अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा इस प्रकार यह पृच्छा इस तरह के कालकी अपेक्षा करती है। अतएव कहना चाहिए कि अन्तर्मुहत