Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा १२३] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकजणिदेसो
२३३ सेसाणं कम्माणमप्पणोपडिभागेण सागरोवमसहस्सस्स तिण्णि-सत्त-भागा, वे-सत्त-भागा च एत्थ द्विदिबंधपमाणमिदि वत्तव्वं ।
* तदो द्विदिबंधपुधत्ते गदे चदुरिंदियट्ठिदिबंधसमगो हिदिबंधो । * एवं तीइंदिय-बीइंदियट्ठिदिबंधसमगो हिदिबंधो । * एइंदियहिदिबंधसमगो हिदिबंधो ।
$ ८१. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि अप्पप्पणोपडिभागेण चउरिंदियादिसु परिवाडीए सागरोवमसद-पण्णारस-पणुविस-संपुण्णेगसागरोवमाणं चदुसत्तभाग-तिण्णिसत्तभाग-वेसत्तभागपमाणो द्विदिबंधो वुत्तसंबंधी होइ त्ति घेत्तव्यो।
* तदो हिदिबंधपुधत्तेण णामा-गोदाणं पलिदोवमट्टिदिगो डिदिबंधो ।
८२. एत्थ सागरोवम-वे-सत्तभागेहिंतो पलिदोवमं सोहिय सुद्धसेसपलिदोवमेजानेपर शेष कर्मोंका अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार हजार सागरोपमका तीन वटे सात भागप्रमाण और दो वटे सात भागप्रमाण यहाँपर स्थितिबन्धका प्रमाण होता है ऐसा कहना चाहिए।
* पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वके जानेपर चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है ।
* इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है।
* तथा एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है।
६८१. ये सूत्र सुगम हैं। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार चतुरिन्द्रिय आदि जीवोंमें क्रमसे सौ सागरोपम, पचास सागरोपम, पच्चीस सागरोपम और पूरे एक सागरोपमके चार वटे सात भाग, तीन वटे सात भाग और दो वटे सात भागप्रमाण जो स्थितिबन्ध होता है उसके समान स्थितिबन्ध होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ-चतुरिन्द्रिय जीवोंमें सौ सागरोपमका, त्रीन्द्रिय जीवोंमें पचास सागरोपमका, द्वीन्द्रिय जीवोंमें पच्चीस सागरोपमका और एकेन्द्रिय जीवोंमें एक सागरोपमका चरित्रमोहनीयका चार वटे सात भागप्रमाण, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका तीन वटे सात भागप्रमाण, तथा नाम और गोत्रका दो वटे सात भागप्रमाण जो स्थितिबन्ध होता है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए।
* तत्पश्चात स्थितिबंध पृथक्त्वके व्यतीत होनेपर नाम और गोत्रका पल्योपम स्थितिवाला स्थितिबंध होता है।
६८२. यहाँपर सागरोपमके दो वटे सात भागमें से पल्योपमको घटाकर जो पल्योपम
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