Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ संजमासंजमलद्धी
पयदलद्भिट्ठाणाणि समत्ताणि त्ति । एवं परूवणा गया । संपहि एदेसिं चेव पमाणावहारणमुत्तरमुत्तमोइण्णं
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* असंखेज्जा लोगा ।
८८. दाणि सव्वाणि छट्टाणपदिदसंजमासंजमलद्भिट्ठाणाणि पडिवादादिभेदेण तहाविहत्ताणि असंखेज लोगमेत्तपमाणाणि होंति त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ । संपहि एवं परूविदेसु असंखेज्जलोग मेत्तसंजमा संजमलद्धिट्ठाणेसु आदीदो पहुड असंखेज लोगमेत्ताणि लद्धिट्ठाणाणि एयंत पडिवादपाओग्गाणि चैव होंति, ण तत्थ संजमासंजमं पडिवज्जदि चि जाणावेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ -
* जहण्णए लद्धिट्ठाणे संजमासंजमं ण पडिवज्जदि ।
८९. कुदो ! मिच्छत्ताहिमुह सव्वुक्क स्स संकि लिट्ठसंजदासंजदचरिमसमयविसयस्सेदस्स एयंत पडिवादपाओग्गस्स पडिवजमाणट्ठाणत्तेण सव्वहा संबंधाभावादो । केवलमेदम्मि चैव जहण्णलद्भिट्ठाणम्मि संजमासंजमं ण पडिवजह, किंतु एत्तो' उवरि असंखेज्जलोग मेत्तलद्भिट्ठाणेसु वि संजमासंजमं ण पडिवज्जदे चेव, तेसिं पि पडिवादट्ठाणत्तं पडि विसेसाभावादो ति पदुष्पारमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिस्थानको अन्त कर प्रकृत लब्धिस्थानोंके समाप्त होने तक पाये जाते हैं । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । अब इन्हीं प्रमाणका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* जो असंख्यात लोकप्रमाण हैं ।
८८. प्रतिपात आदिके भेदसे तीन प्रकारके ये सब षट्स्थानपतित संयमासंयमलब्धिस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । अब इस प्रकार कहे गये असंख्यात लोकप्रमाण संममा संयमलब्धिस्थानों में प्रारम्भ से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण लब्धिस्थान एकान्त से प्रतिपातके योग्य ही हैं, उन स्थानों में यह संयमासंयमको नहीं प्राप्त होता इस प्रकार ज्ञान कराते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* जघन्य लब्धिस्थान में यह जीव संयमासंयमको नहीं प्राप्त होता ।
८९. क्योंकि मिथ्यात्व के अभिमुख हुए सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले संयतासंयत जीवके अन्तिम समय में एकान्तसे प्रतिपातके योग्य लब्धिस्थान होता है, इसलिए इसका प्रतिपद्यमान लब्धिस्थानके साथ सर्वथा सम्बन्धका अभाव है । केवल इसी जघन्य लब्धिस्थानमें यह जीव संयमासंयमको नहीं प्राप्त होता है ऐसा नहीं है, किन्तु इससे ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण लब्धिस्थानों में भी यह जीव संयमासंयमको नहीं ही प्राप्त होता, क्योंकि प्रतिपातस्थानपनेकी अपेक्षा इससे उनमें कोई भेद नहीं है इस बातका कथन करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं
१. ता० प्रती तत्तो इति पाठः ।