Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
* जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं संखेजगुणं । * उक्कस्यं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं ।
[ संजमासंजमलद्धी
$ २६. सुगमो एसो अप्पा बहुअपबंधोति णेदस्स वक्खाणं कीरदे, जाणिदजाणावणे फलाभावादो । णवरि जहण्णपदाणि एयंताणुवड्डिकालचरिमसमये घेत्तव्वाणि । उक्कस्सपदाणि च अपुव्वकरणपढमसमए गेहिदव्वाणि । एवमेदमप्पा - बहुअं समाणिय संपहि एत्थेव विसेसंतरपदुपायणमिदमाह -
* संजमादो णिग्गदो असंजमं गंतॄण जो ट्ठिदिसंतकम्मेण अणवड्डिदेण पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवजमाणगस्स णत्थि अपुव्वकरणं, णत्थि द्विदिघादो, णत्थि अणुभागघादो |
$ २७, जो संजमादो परिणामपच्चएण संकिलेसबहुत्तेण विणा णिस्सरिदो संतो असंजदभावं गंतूण तत्थ ट्ठिदिसंतकम्ममवड्डाविय पुणो वि अंतोमुहुत्तेणेव विसुद्धो होदूण संजमं षडिवजदि तस्स तहा संजमं पडिवजमाणस्स णत्थि अपुच्वकरणपरिणामो हिदि- अणुभागघादो वा, तत्थ पुव्वघादिदावसेसट्ठिदिअणुभागाणं संजमग्गहणपाओग्गभावेण तदवत्थपदंसणादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स समुच्चयट्ठो । जो गुण संकिलेसभरेण मिच्छत्ताणुविद्धमसंजदपरिणामं पडिवण्णो अंतोमुहुत्तेण
* उससे जघन्य स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
* उससे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
§ २६. यह अल्पबहुत्व प्रबन्ध सुगम है, इसलिये इसका व्याख्यान नहीं करते, क्योंकि जिसका ज्ञान कराया है उसका पुनः ज्ञान कराने में कोई फल नहीं है । इतनी विशेषता है कि जघन्य पदों को एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तिम समय में ग्रहण करना चाहिए और उत्कृष्ट पदोंको अपूर्वकरणके प्रथम समय में ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार इस अल्पबहुत्वको समाप्त कर अब वहीं पर विशेष अन्तरका कथन करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं
* जो संयमसे च्युत हो असंयमको प्राप्त कर नहीं बढ़े हुए स्थितिसत्कर्मके साथ पुनः संयमको प्राप्त करता है, संयमको प्राप्त होनेवाले उस जीवके अपूर्वकरण नहीं होता, स्थितिघात नहीं होता और अनुभागघात नहीं होता ।
$ २७. जो जीव बहुत संक्लेशके विना परिणामवश संयमसे च्युत हो असंयतपनेको प्राप्त कर वहाँ स्थितिसत्कर्मको न बढ़ाकर फिर भी अन्तर्मुहूर्त में ही विशुद्ध होकर संयमको प्राप्त होता है, उस प्रकार संयमको प्राप्त हुए उसके अपूर्वकरण परिणाम नहीं होता, स्थितिकाण्डकघात नहीं होता और अनुभागकाण्डकघात नहीं होता, क्योंकि वहाँ पहले घात कर शेष रहे स्थिति और अनुभाग संयम ग्रहणके प्रायोग्यरूपसे तदवस्थित देखे जाते हैं यह इस सूत्रका समुच्चयार्थ है । परन्तु जो संयत संक्लेशकी बहुलतावश मिथ्यात्वसहित असंयत