Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११५] संजदस्स अट्ठअणिओगहाराणि
१७१ विपकिट्ठतरेण वा पुणो संजमं पडिवजदि तस्स वि पुव्वुत्ताणि चेव दोण्णि करणाणि, तहा चेव द्विदि-अणुभागधादा च होति । वड्डाविद-द्विदिअणुभागाणं घादेण विणा संजमग्गहणाणुववत्तीदो।
* एत्तो चरित्तलद्धिगाणं जीवाणं अट्ठ अणिओगद्दाराणि ।
२८. एत्तो उवरि चरित्तलद्धिमंताणं जीवाणं अट्ठहिं अणिओगद्दारेहिं परूवणा कायव्वा, अण्णहा तव्विसयविसेसाणिप्पत्तीदो त्ति भणिदं होइ। काणि ताणि अट्ठाणियोगद्दाराणि ति पुच्छावकमाह
* तं जहा।
२९. सुगमं । ___ * संतपरूवणा दव्वं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं मागाभागो अप्पाबहुभं च अणुगंतव्वं । परिणामको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्तमें या बड़े अन्तरके बाद पुनः संयमको प्राप्त होता है उसके भी पूर्वोक्त दो करण नियमसे होते हैं तथा उसी प्रकार स्थितिघात और अनुभागघात भी होते हैं, क्योंकि उक्त जीवके बढ़ाये गये स्थिति और अनुभागका घात किये विना संयमका ग्रहण नहीं बन सकता।
विशेषार्थ-आशय यह है कि जो बहुत संक्लेश हुए विना परिणामोंके निमित्तसे संयमभावसे च्युत होकर अतिशीघ्र अन्तर्मुहूर्तकालके भीतर पुनः संयमभावको प्राप्त होते हैं उनके पूर्वोक्त दो करण और स्थिति-अनुभागकाण्डकघात हुए विना संयमकी प्राप्ति हो जाती है। किन्तु जो बहुत संक्लेशके कारण संयमसे च्युत होते हैं वे चाहे अन्तर्मुहूर्तमें पुनः संयमको प्राप्त हों और चाहे बहुत कालका अन्तर देकर संयमको प्राप्त करें, परन्तु उनके कर्मोकी स्थिति और अनुभागमें वृद्धि हो जानेके कारण वे पूर्वोक्त दो करणपूर्वक स्थिति-अनुभाग काण्डकघात करके ही संयमको प्राप्त होते हैं।
* आगे चारित्रलब्धिको प्राप्त जीवोंके आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं।
$२८. इससे आगे चारित्रलब्धिसम्पन्न जीवोंकी आठ अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि अन्यथा तद्विषयक विशेषका ज्ञान नहीं हो सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वे आठ अनुयोगद्वार कौन हैं इस प्रकार पृच्छावाक्यको कहते हैं
* वे जैसे। $ २९. यह सूत्र सुगम है।
* सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ।