Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११५] संजदासंजदस्स कजविसेसपरूवणा
१२७ जादो त्ति अधापबत्तसंजदासंजदो त्ति वा सत्थाणसंजदासंजदो त्ति वा एयद्यो । तदो एत्तो पाए सत्थाणपाओग्गाओ संकिलेस-विसोहीओ समयाविरोहेण परावत्तेदुमेसो लहदि त्ति घेत्तव्वं । तदो चेव एत्तो प्पहुडि विदि-अणुभागधादाणं च पवुत्ती णत्थि त्ति जाणावणट्टमुत्तरं सुत्तमवइण्णं
* अधापवत्तसंजदासंजदस्स ठिदिघादो वा अणुभागघादो वा णत्थि ।
४१. करणविसोहिजणिदो जो पयत्तविसेसो एयंतागुवड्डिचरिमसमए विणहो । तदो एत्तो प्पहुडि द्विदि-अणुभागधादा ण पवत्तंति त्ति भणिदं होदि ।
४२ संपहि सत्थाणसंजदासंजदस्स द्विदि-अणुभागपादपडिसेहावसरे पत्तावसरमण्णं पि अत्थविसेसं पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भगइ
* जदि संजमासंजमादो परिणामपचएण णिग्गदो, पुणो वि परिणामपर स्वस्थान विशुद्धिको प्राप्त कर अधःप्रवृत्त संयतासंयत संज्ञाके योग्य हो जाता है। इसे चाहे अधःप्रवृत्तसंयतासंयत कहो या स्वस्थानसंयतासंयत कहो दोनोंका अर्थ एक ही है। इसलिये यहाँसे लेकर स्वस्थानके योग्य संक्लेश और और विशुद्धिके परावर्तनको यह जीव आगमोक्त विधिसे प्राप्त करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। और इसीलिए यहाँसे लेकर स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातकी प्रवृत्ति नहीं होती इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है
* अधःप्रवृत्तसंयतके स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता।
६४१. क्योंकि करणसम्बन्धी विशुद्धिके निमित्तसे हुआ प्रयत्नविशेष एकान्तानुवृद्धि विशुद्धिके अन्तिम समय में नष्ट हो गया है, इसलिये यहाँसे लेकर स्थितिघात और अनुभागघात प्रवृत्त नहीं होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ—करणजन्य विशुद्धिको निमित्तकर जो प्रयत्न विशेष होता है वह एकान्तानुवृद्धिरूप विशुद्धिके काल तक ही पाया जाता है, इसलिए स्थितिकाण्डकघात और अनुभाग काण्डकघातरूप कार्यविशेष उसी काल तक पाये जाते हैं। इसके आगे । संयतासंयतके परिणाम होते हैं वे एकान्तानुवृद्धिरूप विशुद्धको लिये हुए न होकर अधःप्रवत्तरूप ही होते हैं । अधःप्रवृत्तका अर्थ है संयतासंयतके योग्य कभी संक्लेशरूप और कभी विशुद्धिरूप परिणामोंका होना। इन परिणामोंको प्राप्त संयतासंयत जीवकी दो संज्ञाएं हैं-अधःप्रवृत्तसंयतासंयत और स्वस्थानसंयतासंयत । इन परिणामोंमें ऐसी सामर्थ्य नहीं है कि इनको निमित्त कर यह जीव स्थितिकाण्डकघात आदि कार्यविशेष करे। पर ऐसे जीवके गुणश्रेणिनिर्जराका निषेध नहीं है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।
४२. अब स्वस्थान संयतासंयतके स्थितिघात और अनुभागघातके प्रतिषेधके अवसर पर जिसका अवसर प्राप्त है ऐसा अन्य जो भी कार्यविशेष है उसका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* यदि वह परिणामोंके निमित्तसे संयमासंयमसे गिर गया और फिर भी