Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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• जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ संजमासं जमलद्धी
पच्चएण तो मुहुत्त्रेण आणीदो संजमासंजनं पडिवजइ, तस्स वि णत्थि ट्ठिदिघादो वा अणुभागघादो वा ।
$ ४३, जो जीवो संजदासंजदो होदूण केत्तियं पि कालमव । पुणो परिणामपच्चएण असंजदो होदूण हिदि-अणु भागवडिमकादूण पुणो वि सव्वलहुमंतोमुहुत्तकाल अंतरे चैव परिणामपचयवसेण संजमा संजमं पडिवज्जदि तस्स वि सत्थाणसंजदा संजदस्सेव हिदि- अणुभागघादा णत्थि, ट्ठिदि-अणुभागवडीए विणा 'संजमा संजमं पडिवज्जमाणस्स तप्पा ओग्गविसोहिसंबंधं मोत्तूण करणपरिणामासंभवादो | एत्थ परिणामपच्चएणे त्ति कुत्ते तिव्वविराहणाणि गंधणवज्झसण्णिहाणेण विणा अंतरंगपच्चएण तप्पा ओग्गसंकिलेसाणुविद्वेण जीवादिपयत्थे अदूसिय हेडिमगुणाणं गंतूण पुणो वि बज्झकारणणिरवेक्खेण तप्पा ओग्गविसुद्धिसहगयं मंदसंवेगपरिणामेणेव संजमासंजममाणीदो त्ति घेत्तव्वं ।
परिणामोंके निमित्तसे अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा वापिस लाया गया संयमासंयमको प्राप्त होता है तो उसके भी स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता ।
४३. जो जीव संयतासंयत होकर कुछ ही काल तक रहा। पुनः परिणामों के निमित्तसे असंयत होकर स्थिति और अनुभाग में वृद्धि न कर फिर भी अतिशीघ्र अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर ही परिणाम प्रत्ययवश संयमासंयमको प्राप्त होता है उसके भी स्वस्थानसंयतासंयतके समान स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता, क्योंकि स्थितिवृद्धि और अनुभागवृद्धिके विना संयम संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके तत्प्रायोग्य विशुद्धिके सम्बन्ध त्रिना करण परि णामोंका होना असम्भव है । यहाँ पर 'परिणामपच्चएण' ऐसा कहने पर जो तीव्र विराधनाका कारण है ऐसे बाह्य पदार्थका सम्पर्क हुए विना तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंसे युक्त अन्तरंग कारणके द्वारा जीवादि पदार्थोंको दूषित न कर अधस्तन गुणस्थानमें जाकर फिर भी बाह्य कारणनिरपेक्ष तत्प्रायोग्य विशुद्धिके साथ मन्द संवेगरूप परिणाम के द्वारा ही संयमासंयमको प्राप्त कराया गया ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
विशेषार्थ — जो जीव अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणपूर्वक संयतासंयत हो कर ती विराधना की कारणभूत बाह्य सामग्रीका सन्निधान हुए विना केवल तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामके कारण अधस्तन गुणस्थानको प्राप्त हुआ, फिर भी न तो उसकी जीवादि पदार्थों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति ही हुई और न ही उसे तीव्र विशुद्धिके बाह्य कारणोंका समागम ही प्राप्त हुआ, मात्र उसका अतिशीघ्र लघु अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर विना बाह्य कारणके सहज ही ऐसा मन्दसंवेगरूप परिणाम हुआ जिससे वह पुनः संयमासंयम गुणको प्राप्त हो गया तो ऐसे जीवके भी स्वस्थान संयतासंयतके समान स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातरूप कार्यविशेष नहीं होते । यहाँ जो मन्द संवेगरूप परिणाम होनेका निर्देश किया है और उसे बाह्य कारण निरपेक्ष कहा है । इससे यह अर्थ सुतरां फलित होता है कि सभी कार्य बाह्य कारण सापेक्ष ही होते हैं ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है ।