Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ संजमासंजमलद्धी मणंतगुणहाणिपरिणामो ओवड्डि त्ति भण्णदे। तदो एदासिं दोण्हं पि परूवणा सुत्तणिबद्धा त्ति सिद्धं ।
१८. 'उवसामणा य तह पुव्वबद्धाणं' इदि एयस्स बीजपदस्स अणंतरपरूविदो चेव अत्थो घेत्तव्यो। अहवा पुव्वबद्धाणमुवसामणापुव्वं व भणियूण तदो 'तहा' सद्देण जहा पढमसम्मत्तमुप्पाएमाणस्स दंसणमोहणीयोवसामणं परूविदं एवमेत्थ वि उवसमसम्मत्तेण सह संजमासंजम-संजमलद्धीओ पडिवजमाणस्स तदुवसामणविहाणं परूवेयव्वं, तत्थ णाणत्ताभावादो त्ति एसो अत्थो संगहेयन्वो । एवमेदेसु दोसु अणिओगद्दारेसु पडिबद्धा एसा मूलगाहा । एत्थ ताव संजमासंजमलद्धिमहिकरिय विहासिज्जदि ति सुत्तत्थसमुच्चओ । संपहि एदिस्से गाहोए परिभासत्थं विहासिदुकामो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
समाधान-संयमासंयम और संयमलब्धिसे नीचे गिरनेवाले जीवके संक्लेशवश प्रति समय होनेवाले अनन्तगुणहानिरूप परिणामको अववृद्धि कहते हैं । ___ इसलिए इन दोनोंकी भी प्ररूपणा सूत्रनिबद्ध है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ-मूल सूत्रगाथामें 'वड्ढावड्डी' पाठ है। उसका एक अर्थ तो उत्तरोत्तर वृद्धि होता है। जब यह जीव संयमासंयम या संयमभावको प्राप्त होता है तब अन्तर्मुहूर्त काल तक ऐसे जीवके उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी वृद्धिको लिये हुए परिणाम होते हैं। इनकी एकान्तानुवृद्धि संज्ञा है। एक तो 'वड्ढावड्डी' पदका यह अर्थ है। दूसरे इस पदको 'वडि' और 'ओवडि' इसप्रकार दो पदोंका समासितरूप स्वीकार कर 'वडि' पदका तो पूर्वोक्त अर्थ ही लेना चाहिए। तथा 'ओवडि' पदसे ऐसे जीवोंके प्रति समय अनन्त गुणहानिरूप परिणामोंका ग्रहण करना चाहिए जो संयमासंयम और संयमलब्धिसे च्युत होनेके सन्मुख हैं।
६८. 'उवसामणा य तह पुत्वबद्धाणं' इसप्रकार इस बीजपदका अनन्तर कहा गया अर्थ ही लेना चाहिए। अथवा पूर्वबद्ध कर्मोंकी उपशामनाका पहलेके समान कथन करके गाथासूत्र में आये हुए 'तहा' शब्दके द्वारा जिसप्रकार प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवके दर्शनमोहनीयकी उपशामनाका कथन किया है उसीप्रकार यहाँ भी उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयम और संयमलब्धिको प्राप्त होनेवाले जीवके उनके उपशमानेकी विधिका कथन करना चाहिए, क्योंकि वहाँ नानात्वका अभाव है इसप्रकार इस अर्थका संग्रह करना चाहिए । इसप्रकार इन दोनों अनुयोगद्वारोंमें प्रतिबद्ध यह मूल गाथा है। यहाँ सर्वप्रथम संयमासंयमलब्धिको अधिकृतकर विशेष व्याख्या करते हैं यह उक्त सूत्रके साथ अर्थका समुच्चय है। अब इस गाथाके परिभाषारूप अर्थकी विशेष व्याख्या करनेकी इच्छासे आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
२. ता०प्रतौ सुत्तणिबंधा इति पाठः।
१. ता०प्रतौ ओवट्टि इति पाठः । ३. ता०प्रती विदमेत्थ वि इति पाठः ।