Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११५ ]
अपुव्वकरणे कज्जविसेस परूवणा
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* अणुभागखंडयमसुहाणं कम्माणमणुभागस्स अणंता भागा आगाइदा | सुभाणं कम्माणमणुभागघादो णत्थि ।
$ २७. दाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । संपहि दंसणमोहोवसामणाए तक्खवणार च जहा गुणसेढिणिक्खेव संभवो तहा किमेत्थ वि संभवो आहो णत्थि 'ति आसंकाए णिरागीकरणट्टमुत्तरं पडिसेहवकमाह
* गुणसेढी च णत्थि ।
$ २८ किं कारणं ? ण ताव सम्मत्तप्पत्तिणिबंधणगुणसेढीए एत्थ संभवो, पढमसम्मत्तग्गहणादो अण्णत्थ तदणन्भुवगमादो | ण संजमासंजमपरिणामणिबंधणगुणसेढीए वि अस्थि संभवो, अलद्धप्पस्सरूवस्स संजमा संजमगुणस्स गुणसेढिणिञ्जराए वावारविरोहादो । जो वुण उवसमसम्मत्तेण सह संजमासंजमं पडिवजह तस्स गुणसेढिणिक्खेवो संभव । वरि सो एत्थ ण विवक्सिओ । तम्हा 'गुणसेढी च णत्थि ' त्ति सुणिरूविदं । संपहि एत्थेव हि बंधोसरणकमपदंसणट्टमुत्तरमुत्तारंभो
* ट्ठिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण हीणो । $ २९. गयत्थमेदं मुत्तं ।
* अनुभागकाण्डक अशुभ कर्मोंके अनुभागका अनन्त बहुभाग ग्रहण किया । शुभ कर्मोंका अनुभागघात नहीं होता ।.
$ २७. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । अब दर्शन मोहोपशामना और उसकी क्षपणा में जिस प्रकार गुणश्रेणिनिक्षेप सम्भव है उस प्रकार क्या यहाँपर भी सम्भव है या सम्भव नहीं है। ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिये आगे के प्रतिषेधरूप सूत्रवचनको कहते हैं-
* और गुणश्रेणि नहीं होती ।
$ २८. क्योंकि सम्यक्त्वको उत्पत्तिकी कारणरूप गुणश्रेणि तो यहाँपर सम्भव है नहीं, क्योंकि प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणसे अन्यत्र वह स्वीकार नहीं की गई है। संयमासंयम परिणामनिमित्तक गुणश्रेणि भी सम्भव नहीं है, क्योंकि स्वस्वरूप प्राप्त करनेके पूर्व संयमासंयमगुणगुणश्रेणिनिर्जरामें व्यापार होता है इसमें विरोध है । परन्तु जो उपशमसम्यक्त्व के साथ संयमासंयमको प्राप्त होता है उसके गुणश्रेणिनिक्षेप सम्भव है । परन्तु वह वहाँपर विवक्षित नहीं है, इसलिए ठीक कहा है । अब यहीं पर बन्धापसरण क्रमके दिखलानेके लिये आगे सूत्रका आरम्भ है-
* स्थितिबन्ध पिछले समय के स्थितिबन्धकी अपेक्षा पल्योपमका संख्यातवाँ भाग हीन होता है ।
$ २९. यह सूत्र गतार्थ है ।
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