Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुढे [दसणमोहक्खवणा २०. एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ एत्थ बिहासियवाओ त्ति सुत्तत्थसमुच्चयो । कधमेदाओ गाहाओ चरित्तमोहक्खवणाए पडिबद्धाओ एत्थ परूवे, सक्किज्जति त्ति णासंकणिज्जं, अंतदीवयभावेण तत्थ एदासिमुवएसादो । तदो दंसणमोहोवसामणाए तक्खवणाए चरित्तमोहोवसामणा-खवणासु च साहरणभावेणेदासिं परूवणा चुण्णिसुत्तणिबद्धा ण विरुज्झदि ति सिद्धं । एदासिं च विहासाए कीरमाणाए दंसणमोहउवसामगभंगो किंचि विसेसाणुविद्धो अणुगंतव्वो । तं जहा
२१. पढमगाहाए पुव्वद्धम्मि ताव गत्थि परूवणाणाणत्तं परिणामो विसुद्धो पुव्वं पि अंतोमुहुत्तप्पहुडि अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो आगदो त्ति एवंविहाए परूवणाए उहयस्थ समाणत्तदंसणादो । पच्छद्धे जोगे त्ति विहासा अण्णदरकषाय और उपयोगमें विद्यमान उसके कौन सी लेश्या और वेद होता है ॥१॥ पूर्वबद्ध कर्म कौन-कौन हैं, वर्तमानमें किन कांशोंको बाँधता है कितने कम उदयावलिमें प्रवेश करते हैं और यह किन कर्मों का प्रवेशक होता है ॥ २ ॥ दर्शनमोहकी क्षपणाके सन्मुख होनेपर पूर्व ही बन्ध और उदयरूपसे कौनसे कर्मांश क्षीण होते हैं, आगे चलकर अन्तरको कहाँ पर करता है और कहाँ पर किन-किन कर्मों का क्षपण करता है ॥ ३ ॥ क्षपणा करनेवाला वही जीव किस स्थितिवाले कर्मों का तथा किन अनुभागोंमें स्थित कर्मों का अपवर्तन करके शेष रहे उनके किस स्थानको प्राप्त होता है॥४॥
$ २०. इन चार सूत्रगाथाओंका यहाँ पर व्याख्यान करना चाहिए यह सूत्रार्थ समुच्चय है।
शंका-ये सूत्रगाथाएँ चरित्रमोहकी क्षपणा अनुयोगद्वारसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं उनका यहाँ कथन करना कैसे शक्य है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अन्तदीपकरूपसे वहाँ इनका कथन किया है, अतः दर्शनमोहकी उपशामना, दर्शनमोहकी क्षपणा, चारित्रमोहकी उपशामना और चारित्रमोहकी क्षपणा इन चारों अनुयोगद्वारोंमें साधारणरूपसे चूर्णिसूत्र विषयक इन चार गाथाओंको प्ररूपणा विरोधको प्राप्त नहीं होती यह सिद्ध हुआ और इनका व्याख्यान करने पर वह दर्शनमोहकी उपशामना अनुयोगद्वारमें किये गये व्याख्यानके समान है। तो भी जो थोड़ी सी विशेषता है उसका अनुगम करते हैं । यथा
२१. प्रथम गाथाके पूर्वार्ध में तो प्ररूपणा भेद है नहीं, क्योंकि परिणाम विशुद्ध होता है । अन्तर्मुहूर्त पहलेसे ही विशुद्ध परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिसे उत्तरोत्तर विशुद्ध होता हुआ आया है। इस प्रकार ऐसी एकरूप प्ररूपणा दर्शनमोहकी उपशामना और क्षपणा इन दोनों अनुयोगद्वारोंमें समानरूपसे देखी जाती है। प्रथम सूत्र गाथाके उत्तरार्धमें आये हुए योग इस पदकी विभाषा-अन्यतर मनोयोग, अन्यतर वचनयोग या औदारिक काययोग