Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [दसणमोहक्खवणा हि जाणिजदे, मिच्छत्तपरूवणाए व गयस्थत्तादो ।
* अट्ठवस्सउवदेसेण परूविजिहिदि ।
७६. पुव्वुत्ताणं दोण्हमुवएसाणं मझे अट्ठवस्सोवएसमेव पहाणभावेणावलंबियएत्तो उवरिमपरूवणं वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होदि । कुदो एदं चे ?' पवाइजमाणत्तेण तस्सेव पहाणभावोवलंभादो। तम्हा अट्ठवस्सट्ठिदिसंतकम्मं घेत्तूण तव्विसयं द्विदिखंडयादिपरूवणं विसेसियूण परूवेमाणो पबंधविच्छेदभएण आदीदो प्पहुडि पुव्बुत्तहिदिखंडपबंधेगाणुसंधाणं कुणमाणो इदमाह
* तं जहा। 5 ७७. सुगममेदसुपरिमपरूवणापबंधावयारविसयं पुच्छावक ।
** अपुष्वकरणस्स पढमसमए पलिदोवमस्ससंखेजभागिगं हिदिखंडयं ताव जाव पलिदोवमटिदिसंतकम्मं जादं । पलिदोवमे ओलु पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । तम्हि गदे सेसस्स संखेजा भागा आगाइदा । एवं जघन्य स्थितिसत्कर्म दो समय कालप्रमाण एक स्थितिरूप होता है यह विना कहे ही जाना जाता है, क्योंकि मिथ्यात्वकी प्ररूपणासे ही उसका ज्ञान हो जाता है ।
* अब आठ वर्षके उपदेशके अनुसार प्ररूपणा करेंगे ।
$.७६. पूर्वोक्त दो उपदेशोंमेंसे सम्यक्त्वके आठ वर्षप्रमाण स्थितिका निरूपण करनेवाले उपदेशका ही प्रधानरूपसे अवलम्बनकर आगे आगेकी प्ररूपणाको बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-इसीको क्यों बतलावेंगे ?
समाधान-क्योंकि प्रवाह्यमानपनेके कारण उसीकी प्रधानता पाई जाती है । इसलिये आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मको ग्रहणकर वद्विषयक स्थितिकाण्डक आदिकी प्ररूपणाको विशेपरूपसे कथन करते हुए प्रबन्ध-विच्छेदके भयवश प्रारम्भसे लेकर पूर्वोक्त स्थितिकाण्डकसम्बन्धी प्रबन्धके द्वारा अनुसन्धान करते हुए यह कहते है
* वह जैसे।
६७७. उपरिम प्ररूपणासम्बन्धी प्रबन्धके अवतारको विषय करनेवाला यह पृच्छावाक्य सुगम है।
* अपूर्वकरणके प्रथम समयमें पन्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक प्रारम्भ होता है । पन्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म के प्राप्त होने तक उक्त २. ता०प्रती एवं चे इति पाठः ।