Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [दसणमोहक्खवणा १३७ किं कारणं ? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तचरिमद्विदिखंडयादो दुचरिमहिदिखंडयमसंखेजगुणं । एवं तिचरिम-चदुचरिमादिकमेण जाव संखेज्जसहस्समेत्तद्विदिखंडयाणि हेट्ठा' ओसरियण मिच्छत्ते खविदे सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं तदित्थपढमट्ठिदिखंडयं जादमिदि तेण कारणेणासंखेजगुणं होदि १८ ।
* मिच्छत्तसंतकम्मियस्स सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चरिमद्विदिखंडयमसंखेजगुणं ।
___ १३८ मिच्छत्तसंतकम्मियविवक्खाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जं चरिमडिदिखंडयं पुब्विन्लादो अणंतरहेट्ठिमं तं तत्तो असंखेजगुणमिदि भणिदं होदि १९ ।
* मिच्छत्तस्स चरिमट्ठिदिखंडयं विसेसाहियं ।
$ १३९. किं कारणं मिच्छत्तस्स उदयावलियबाहिरं सव्वमागाइदं । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं पुण तकाले हेट्ठा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतीओ द्विदीओ मोत्तूण उवरिमा बहुभागा आगाइदा ति, तेण कारणेण हेटिममसंखेजदिमागमेत्तं पविसियण विसेसाहियं जादं २० ।
$ १३७. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकसे द्विचरम स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणा है । इस प्रकार त्रिचरम और चतुश्चरम आदि क्रमसे संख्यात हजार स्थितिकाण्डक नीचे जाकर मिथ्यात्वका क्षय होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका वहाँ सम्बन्धी प्रथम स्थितिकाण्डक हुआ है, इसलिए इस कारणसे उक्त स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणा होता है १८ ।। ___ * उससे मिथ्यात्वसत्कर्मवालेके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणा ह।
६ १३८. मिथ्यात्वसत्कर्मवाले जीवकी विवक्षामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जो अन्तिम स्थितिकाण्डक होता है वह पूर्वके स्थितिकाण्डकसे अनन्तर अधस्तनवर्ती है, इसलिए वह उससे असंख्यातगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है १९ । ।
* उससे मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक विशेष अधिक है ।
$ १३९. क्योंकि मिथ्यात्वके सदयावलि बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मका ग्रहण किया है। परन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उस समय अधस्तन पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर उपरिम बहुभागप्रमाण स्थितियोंका ग्रहण किया है, इस कारण अधस्तन असंख्यातवें भागमात्रका प्रवेश होकर मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक विशेष अधिक हो गया है २० ।
१. ता०प्रतौ हेदो इति पाठः । २. ता०प्रतौ कारणेण संखेज्जगुणं इति पाठः । ३. ता०प्रती सम्मत्तमिच्छत्ताणं इति पाठः ।