Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गाथा ११४ ]
अणियट्टिकरणे कज्जविसेसपरूवणा एवं जाव गुणसेढिसीसयं पुचिल्लं ताव असंखेज्जगुणं देदि । तदो उवरिमाणंतराए हिदीए असंखेज्जगुणं चेव देदि । किं कारणं ? सम्मामिच्छत्तचरिमफालिदव्वं किंचूणदिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धमेत्तमोकड्डणभागहारादो असंखेन्जगुणेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण खंडेदूण तत्थेयखंडमेत्तमेव दव्वं गुणसेढीए णिक्खिविय पुणो सेसबहुभागदव्वमंतोमुहुत्तणहवस्सेहिं खंडियेयखंडस्स णिरुद्धगोपुच्छायारेण णिक्खेवदंसणादो। तम्हा एत्तो पहुडि सम्मत्तस्स उदयादिअवट्ठिदगुणसेढिणिक्खेवो होइ त्ति घेत्तव्यो।
६८७. एवं गुणसेढिसीसयादो अणंतरोवरिमाए वि एक्किस्से हिदीए असंखेजगुणं षदेसग्गं णिक्खिवियूण तदो उवरि सव्वत्थ अणंतरोवणिधाए विसेसहीणं चेव देदि जाव अट्ठवस्साणं चरिमणिसेओ त्ति । गवरि अट्ठवस्समेत्तसव्वगोवुच्छाणमुवरि एण्हि देता है। उससे उपरितन समयसम्बन्धी स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। इस प्रकार पहलेके गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । उससे उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको ही देता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी अन्तिम फालिके कुछ कम डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यको अपकर्षण भागहारसे असंख्यातगुणे पल्योपमके असंख्यातवें भागके द्वारा खण्डित कर उसमेंसे एक भागमात्र द्रव्यको गुणश्रेणिमें निक्षिप्त कर पुनः शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्षके द्वारा भाजित कर प्राप्त एक भागका विवक्षित गोपुच्छाकारसे निक्षेप देखा जाता है। इसलिये यहाँसे लेकर सम्यक्त्वका उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिनिक्षेप होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
विशेषार्थ—जिस समय दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके सम्यक्त्वकी आठ वर्षप्रमाण सत्त्वस्थिति शेष रहती है उसके पूर्व जो उदयावलि बाहय गलित शेष गुणश्रेणिरचना होती रही वह अब उदयादि अवस्थितरूपसे होने लगती है। इसका आशय यह है कि पहले उदयावलिको छोड़ कर तदनन्तर समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपरितन स्थितिमें गुणश्रेणके द्रव्यका निक्षेप होता था। वह भी उत्तरोत्तर अधःस्थितिके एक एक समयके गलनेपर जितना गुणश्रेणिका काल शेष रहता था उतनेमें ही होता था। इसलिए इसके पूर्व तक इसकी उदयावलि बाह्य गलित शेष गुणश्रेणि संज्ञा थी। किन्तु यहाँसे लेकर गुणश्रेणिके द्रव्यका निक्षेप उदय समयसे लेकर होने लगता है और अधःस्थितिके एक-एक समयके गलनेपर ऊपर गुणश्रेणिके कालमें एक-एक समयकी वृद्धि होती जाती है, इसलिये इसकी उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि संज्ञा है। जिस समय सम्यक्त्वका आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उस समयसे गुणश्रेणिका यह क्रम चालू हो जाता है । इसी तथ्यको यहाँ स्पष्ट करके बतलाया गया है।
८७. इस प्रकार गुणश्रेणिशीर्षसे अनन्तर उपरिम एक स्थिति में भी असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जका निक्षेपकर उससे ऊपर सर्वत्र अनन्तर उपनिधाके अनुसार आठ वर्षप्रमाण स्थितिक अन्तिम निषेकके प्राप्त होने तक विशेष हीन ही देता है । इतनी विशेषता है कि आठ