Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११४ ]
अणियट्टिकरणे कज्जविसेसपरूवणा पावदि ति एदम्मि अंतराले सम्मत्तस्स असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा पारद्धा त्ति सुत्तत्थणिच्छओ। एत्तो पुव्वं व सव्वत्थेव असंखेज्जलोगपडिभागेण सम्वकम्माणमुदीरणा। एम्हि पुण सम्मत्तस्स पलिदोवमस्सासंखेज्जदिमागपडिमागेणुदीरणा पयट्टा त्ति जं वुत्तं होइ । ओकट्टिदसयलदव्वस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागपडिभागियं दव्वमुदयावलियबाहिरे गुणसेढीए णिक्खिवदि । गुणसेढिदव्वस्स वि असंखेजभागमेत्तं दव्यमसंखेजसमयपबद्धपमाणपडिबद्धमेण्हिमुदीरेदि ति एदेण सुत्तेण जाणाविदं । एत्तो प्पहुडि सव्वत्थेव उदीरणाकमो एसो वेव सम्मचस्स दडव्यो।
* तदो बहुसु द्विदिखंडएसु गवेसु मिच्छतस्स आवलियबाहिरं सवमागाइदं । समत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पलिदोषमस्स असंखेजाविभागो सेसो।
$ ६८. एवमसंखेजसमयपबद्धे उदीरेमाणस्स पुणो वि संखेजसहस्समेत्तेसु है इस अन्तरालमें सम्यक्त्वके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा प्रारम्भ होती है यह इस सूत्रके अर्थका निश्चय है । यहाँसे पहले सर्वत्र ही असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार सब कमोंकी उदीरणा होती रही। परन्तु यहाँपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभागके अनुसार सम्यक्त्वको उदीरणा प्रवृत्त हुई यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अपकर्षित होनेवाले सकल द्रव्यमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने द्रव्यको उदयावलिके बाहर गुणश्रेणिमें निक्षिप्त करता है। गुणश्रेणिके भी असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यको, जो कि असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है, इस समय उदीरित करता है इसप्रकार इस बातका इस सूत्र द्वारा ज्ञान कराया गया है। इससे आगे सर्वत्र ही सम्यक्त्वकी उदीरणा. का क्रम यही जानना चाहिए।
विशेषार्थ-दूरापकृष्टिके बाद कितने स्थितिकाण्डकोंके पाते जानेपर मिथ्यात्वका कितना स्थितिसत्कर्म शेष रहते हुए सम्यक्त्वके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा प्रारम्भ होती है इस तथ्यको यहाँपर स्पष्ट किया गया है। यहाँसे पूर्व सब कर्मोंकी उदीरणा असंख्यात लोकके प्रतिभागके अनुसार होती थी। किन्तु यहाँसे सम्यक्त्वकी उदीरणाका क्रम बदल जाता है । अब यहाँसे आगे सम्यक्त्वके द्रव्यमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग देनेपर जो लब्ध आव उतने द्रव्यको उदोरणा होने लगी है। इसी बातको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि समस्त द्रव्यमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने द्रव्यको उदयावलिके बाहर निक्षिप्त करता है तथा गुणश्रेणिके द्रव्यका असंख्यातवाँ भाग जो कि असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होता है उसे उदीरित करता है। आगे सर्वत्र उदीरणाका यही क्रम चलता रहता है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
* तदनन्तर बहुत स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर मिथ्यात्वके उदयावलि बाहरके सब द्रव्यको ग्रहण किया। उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य शेष रखा, शेष सब. द्रव्य घात करनेके लिये ग्रहण किया।
$ ६८. इसप्रकार असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके फिर भी जो
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