Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ दंसणमोहक्खवणा
७०. तो दुसमणावलियमे तकाल' गंतूण मिच्छत्तस्स जहरणयं द्विदिसंतकम्मं होदि ति जाणावणफलमुत्तरमुत्तं -
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* तदो आवलियाए दुसमयूणाए गदाए मिच्छत्तस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं ।
७१. दुसमणावलियमेत्तमिच्छत्तट्ठिदीओ कमेण गालिय जाधे एयट्ठिदी दुसमयमेत्त कालावाणा परिसिट्ठा ताधे मिच्छत्तस्स जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं होइ. एत्तो अण्णस्स सव्वजहण्णमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्साणुवलंभादो । से काले किण्ण लब्भदे ?ण, तत्थ णिल्लेविज्जमाणस्स मिच्छत्तस्स पयडि-ट्ठिदि- अणुभाग-पदेससंतकम्माणं णिस्तभावलं भादो |
विशेषार्थ – जिस समय दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला यह जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकका सर्वसंक्रमके द्वारा पतन करता है उस समय मिथ्यात्वका सबसे जघन्य स्थितिसंक्रम होता है, क्योंकि अनिवृत्तिरूप परिणामोंके द्वारा दूरापकृष्टिरूप से घातित करनेके बाद शेष बची हुई स्थितिके जघन्य होने में विरोधका अभाव है । इससे अल्प स्थितिसंक्रम अन्यत्र सम्भव नहीं है । यदि यह गुणितकर्माशिक होनेके साथ अति शीघ्र नारक भवसे आकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है तो इसके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, क्योंकि इस समय मिथ्यात्व के डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धप्रमाण समस्त द्रव्यका सर्वसंक्रम देखा जाता है और यतः इस अन्तिमफालिका पतन सम्यग्मिथ्यात्व में होता है, अतः उसी समय सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है । इसप्रकार इन तीन विशेषताओंका उल्लेख इस सूत्र में किया गया है। शेष कथन सुगम है
$ ७०. अब इससे आगे दो समय कम एक आवलिमात्र काल जाकर मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है इसका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* तदनन्तर दो समय कम एक आवलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है ।
$ ७१. मिध्यात्वकी दो समय कम एक आवलिप्रमाण स्थितियोंको क्रमसे गलाकर जिस समय दो समयमात्र कालवाली एक स्थिति शेष रहती है उस समय मिध्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका इससे अन्य सबसे जघन्य स्थितिसत्कर्म नहीं उपलब्ध होता है ।
शंका -- तदनन्तर समय में क्यों नहीं प्राप्त होता ?
समाधान — नहीं क्योंकि जिस समय मिध्यात्वको दो समय स्थिति शेष रहती है। उस समय वह स्तिवुकसंक्रमके द्वारा सजातीय प्रकृति में संक्रमित हो जाती है, इसलिए तद्
१. ता० प्रती - मेत्तं कालं इति पाठः । २. ता० प्रती जहणट्ठिदिसंतकम्मं इति पाठः ।