Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११४] अणियट्टिकरणे कज्जविसेसपरूवणा
४७ खंडिदपलिदोवममेत्तट्ठिदिसंतवियप्पाणुप्पत्तीदो। तम्हा दूरावकिट्टी असंखेजपलिदोवमपढमवग्गलमेत्तवियप्पसहिदा त्ति सिद्धं । णिदरिसणमेत्तं चेदं परूविदं । एदीए दिसाए अण्णे वि दूरावकिट्टिवियप्पा समुप्पाएयव्वा, जहण्णपरित्तासंखेजस्स अद्धचउब्भागादिरूदेहि मि पलिदोवमे खंडिदे दूरावकिट्टिवियप्पुप्पत्तीए पडिसेहाभावादो । एदेसु वियप्पेसु जिणदिभावण्णदरवियप्पपडिबद्धा दूरावकिट्टी एयवियप्पा इह गहेयव्वा, अणियट्टिकरणपरिणामेहिं धादिदावसिट्ठाए तिस्से अणेयवियप्पत्तविरोहादो ।
देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण स्थितिसत्कर्मरूप विकल्पकी उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिए दूरापकृष्टि पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण विकल्पवाली है यह सिद्ध हुआ। यह उदाहरणमात्र कहा है। इसी दिशासे अन्य भी दूरापकृष्टिरूप विकल्प उत्पन्न कर लेने चाहिए, क्योंकि जघन्य परीतासंख्यातके अर्धभाग और चतुर्थभाग आदिके द्वारा भी पल्योपमके भाजित करनेपर दूरापकृष्टिरूप विकल्पोंकी उत्पत्तिका निषेध नहीं है । इन भेदोंमेंसे जिनेन्द्रदेवने उसे जिसरूपमें जाना हो ऐसी किसी अन्यतर भेदसे सम्बन्धित एक भेदवाली दूरापकृष्टि यहाँपर ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके द्वारा घात करनेसे अवशिष्ट रही उसके अनेक भेदवाली होनेका विरोध है।
विशेषार्थ—जव स्थिति काण्डकघात होते-होते सत्कर्म स्थिति पल्योपमप्रमाण शेष रह जाती है तब स्थितिकाण्डकका जो प्रमाण पहले था वह बदलकर अवशिष्ट स्थितिसत्कर्मका संख्यात बहुभाग हो जाता है। और इसप्रकार उत्तरोत्तर उक्त विधिसेस्थितिकाण्डक घात होते होते जब सबसे जघन्य पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब वह दापकृष्टि इस नामसे पुकारी जाती है । यह घटते-घटते अति अल्प रह गई है, इसलिए इसे दूरापकृष्टि कहते हैं। अथवा शेष रही इस स्थितिसे आगे उत्तरोत्तर अवशिष्ट स्थितिके असंख्यात बहुभाग असंख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिको ग्रहणकर स्थितिकाण्डकघात होता है, इसलिए इसे दूरापकृष्टि कहते हैं। अब प्रश्न यह है कि यह दूरापकृष्टि एक विकल्पवाली है या बहुत विकल्पवाली है। इस विषयमें दूसरे आचार्योंके अभिप्रायसे तो टीकाकारने उसे एक भेदवाली बतलाया है। उनका कहना है कि पल्योपममें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उसमें एक अंकके मिलानेपर जो संख्या प्राप्त हो, दूरापकृष्टिका प्रमाण 'उतना ही है, क्योंकि इसमें एक भी अंककी हानि होनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्मसम्बन्धी भेदकी उत्पत्ति होती है। किन्तु टीकाकार स्वयं उस दूरापकृष्टिको अनेक भेदवाली स्वीकार करते हैं। उन्होंने इसका स्पष्टीकरण करते हुए जो कुछ बतलाया है उसका तात्पर्य यह है कि पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्ममें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर जो स्थितिविकल्प प्राप्त हो वहाँसे लेकर एक-एक स्थितिविकल्प कम करता जाय और इसप्रकार पल्योपममें जघन्यपरीतासंख्यातका भाग देनेपर जो स्थितिसत्कर्मविकल्प प्राप्त हो उससे पूर्वतक कम करे । इसप्रकार मध्यमें जितने स्थितिसत्कर्मविकल्प प्राप्त हुए वे सब पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होनेसे दूरापकृष्टि उतने विकल्पवाली सिद्ध होती है । टीकाकारने यहाँ दूरापकृष्टिको जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण कहा है वह इसी कारणसे कहा है।