Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११४ ]
अपुव्वकरणे कज्जविसेसपरूवणा * गुणसेढी उदयावलियबाहिरा ।
४४. अपुव्बकरणपढमसमए चेव गुणसेढी आढत्ता । सा वुण एत्थ उदयावलियबाहिरा दट्टव्या, उदयादिगुणसेढिणिक्खेवस्स एदम्मि विसये संभवाभावादो । तिस्से पुण आयामो एत्थतणापुबाणियट्टिकरणद्धाहिंतो विसेसाहियमेत्तो होइ । एत्थेव मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं गुणसंकमो वि पारद्धो त्ति वक्खाणेयव्वं । सुत्ते तहा परूवणा किण्ण कया ? ण, वक्खाणादो चेव तहाविहविसेससिद्धी होदि ति सुत्ते तदपरूवणादो।
* उदयावलिके बाहर गुणश्रेणिकी रचना की ।
६४४. अपूर्वकरणके प्रथम समयमें ही गुणश्रेणिकी रचना की। किन्तु उसे यहाँपर उदयावलिके बाहर जानना चाहिए, क्योंकि यहाँपर उदयादि गुणश्रेणिका निक्षेप सम्भव नहीं है। परन्तु उसका आयाम यहाँके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिक प्रमाण है । तथा यहींपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका गुणसंक्रम भी प्रारम्भ किया ऐसा व्याख्यान करना चाहिए।
शंका-सूत्रमें उस प्रकारकी प्ररूपणा क्यों नहीं की ?
समाधान नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे ही उस प्रकारके विशेषकी सिद्धि होती है, अतः सूत्र में उस प्रकारकी प्ररूपणा नहीं की।
विशेषार्थ—यहाँ अधःप्रवृत्तकरणसे अपूर्वकरणमें उसके प्रथम समयसे लेकर जिन विशेष कार्योंका प्रारम्भ हो जाता है उनका उल्लेख करते हुए बतलाया है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयसे स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणिरचना और गुणसंक्रम ये चार विशेष कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं। काण्डक एक पर्व ( पोर ) या हिस्सेका नाम है। आयुकर्मको छोड़कर शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके कर्मोंकी क्रमसे उपरितन एक-एक काण्डकप्रमाण स्थितिका फालिक्रमसे एक-एक अन्तर्महर्त में घातकर अभाव करना स्थितिकाण्डकघात कहलाता है। जैसे लकड़ीके किसी कुन्देके करवतके द्वारा चीरकर अनेक फलक बना लिये जाते हैं उसी प्रकार प्रत्येक काण्डकप्रमाण स्थितिके तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण फालि (फलक) बनाकर एक-एक समय द्वारा एक-एक फालिका अभाव करना यह एक स्थितिकाण्डकघात कहलाता है । अपनी-अपनी सत्त्वस्थितिके अनुसार यहाँपर जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार अनुभागकाण्डकघात समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुभागकाण्डकघात अप्रशस्त कोका ही होता है, प्रशस्त कोका नहीं, क्योंकि वहाँ प्राप्त विशुद्धिके कारण आयुकर्मके साथ प्रशस्त कर्मोंके अनुभागका घात नहीं होता। तथा अप्रशस्त कर्मोंका जितना
भाग सत्तामें होता है उसके अनन्त बहुभाग प्रमाण अनुभागका प्रथम अनुभागकाण्डक होकर उसका भी फालिक्रमसे अभाव होता है। इसी प्रकार द्वितीयादि अनुभागकाण्डकोंके विषयमें भी समझ लेना चाहिए । विवक्षित कालप्रमाण निषेकोंमें उपरितन स्थितियोंके द्रव्यको अपकर्षण करके गुणित क्रमसे देना गुणश्रेणिनिक्षेप है। यहाँ उदयादि गुणश्रेणि रचना न होकर उदयावलिके बाहर उपरितन प्रथम स्थितिसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण निषेकोंमें उसकी रचना होती है। प्रकृतमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका जितना काल है उससे उक्त अन्तर्मुहूर्त कुछ बड़ा है । प्रत्येक समयमें तत्प्रायोग्य काल तक विवक्षित कर्मपरमाणुओंका