Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११४ ] अणियट्टिकरणे कज्जविसेसपरूवणा
* अणियट्टिकरणस्स पढमसमए दंसणमोहणीयस्स हिदिसंतकम्म सागरोवमसदसहस्सपुधत्तमंतो कोडीए । सेसाणं कम्माणं हिदिसंतकम्म कोडिसदसहस्सपुधत्तमंतो कोडाकोडीए।
६५९. एदेण सुत्तेणाणियट्टिकरणपढमसमए सव्वेसिं कम्माणमाउगवज्जाणं हिदिसंतकम्मपरूवणावहारणं कीरदे। तत्थ ताव दंसणमोहणीयस्स विदिसंतकम्म सागरोवमसदसहस्सपुधत्तमंतो कोडीए' होदण द्विदं, तस्स विसेसघादवसेण तहाभावोववत्तीदो। सेसाणं सव्वकम्माणं णाणावरणादीणं डिदिसंतकम्मं कोडिसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडाकोडीए संजादं, तेसिमेत्थ विसेसघादाभावादो ।
* तदो ट्ठिदिखंडयसहस्सेहिं अणियहिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु असण्णिहिदिबंधेण दंसणमोहणीयस्स हिदिसंतकम्म समगं। होते हैं जो उदीरणारूपसे उदयके अयोग्य और संक्रमके अयोग्य होते हैं और कुछ ऐसे भी परमाणु होते हैं जो इन दोनोंके साथ उपकर्षण और अपकर्षणके भी अयोग्य होते हैं। किन्तु झपक जीवके अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें ही ये तीनों करण नष्ट हो जाते हैं । यहाँ सूत्र में केवल अप्रशस्त उपशामना करणके नष्ट होनेका निर्देश किया है और टीकामें इसके साथ निधत्तिकरण और निकाचितकरणके नष्ट होनेका भी निर्देश किया है। प्रश्न यह है कि चूर्णिसूत्र में ही उक्त तीनों करणोंके नष्ट होनेका निर्देश क्यों नहीं किया ? इसका जो समाधान किया गया है उसका आशय यह है कि निधत्ति और निकांचितकरणका अप्रशस्त उपशामनाके भेद स्वीकार करनेसे उनका भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि व्यापक दृष्टिसे विचार करनेपर उक्त दोनों करणोंका भी अप्रशस्त उपशामनामें ही अन्तर्भाव हो जाता है।
* अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म एक कोटिके भीतर शतसहस्रपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होता है और शेष कर्मोंका स्थितिसत्कर्म कोड़ाकोड़ीके भीतर कोटिशतसहस्रपृथक्त्वप्रमाण होता है।
६.५९. इस सूत्र द्वारा अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें आयुकर्मके अतिरिक्त सब कर्मोंके स्थितिसत्कर्मका निश्चय किया गया है। उनमेंसे दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कम तो एक कोटिके भीतर शतसहस्रपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होकर स्थित होता है, क्योंकि विशेष घात वश उसकी उस प्रकारकी व्यवस्था बन जाती है। परन्तु शेष ज्ञानावरणादि सब कर्मोंका स्थितिसत्कर्म कोडाकोड़ीके भीतर कोटिशतसहस्रपृथक्त्वप्रमाण हो जाता है, क्योंकि उनके यहाँ विशेष घातका अभाव है।
विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि दर्शनमोह क्षपक अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म लक्षपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होता है और आयुकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोंका स्थितिसत्कर्म कोटिपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होता है।
* उसके बाद हजारों स्थितिकाण्डकोंके द्वारा अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात १. ताडपत्रप्रतेः संशोधने 'कोडाकोडीए' इति पाठः समायातः ।