Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ दंसणमोहक्खवणा
१४
णिद्देसं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
तदो अण्णमधापवत्तकरणं पढमं, अपुत्र्वकरणं विदियं, अणियहिकरणं तदियं ।
$ १४. दो देसि कम्माणं ठिदि-अणुभागफद्दयाणमोकडुणादो अणंतरमेदेसिं तिन्हं करणाणं पादेकमंतो मुहुत्तद्धा पडिबद्धाण मेयसेढीए जहाकममुड्ढायारेण समयविरचणं काढूण तत्थ समयाविरोहेण परिणामरचणा कायव्वा त्ति वृत्तं होइ । एत्थ 'अण्ण मधापवत्तकरणं' इदि भणतस्सा हिप्पाओ पुव्वं द्विदि-अणुभागाणं रचणा परूविदा | संपहि तत्तो धभावेण एदेसिं तिण्डं करणाणं रचणा होइ त्ति जाणावणङ्कं 'अण्ण' इदि भणिदं ।
* एदाणि ओट्टे दूण अधापवत्तकरणस्स लक्खणं भाणियव्वं ।
$ १५. 'जहा उद्देसी तहा णिद्देसो त्ति णायबलेण पढमं ताव अधापवत्तकरणस्स लक्खणमिह भणियूण गेण्डियन्यमिदि वृत्तं होइ । तस्स च लक्खणे भण्णमाणे जहा दंसणमोहोवसामणाए अधापवत्तकरणस्स लक्खणमणुकट्टिआदिविसेसेहिं परूविदं तहा णिरवसेसमेत्थ परूवेयव्वं इदि गंथगउरवभएण ण पुणो तदुवण्णासो करदे |
* एवमपुव्वकरणस्स वि अणियट्टिकरणस्स वि ।
प्रकार इसकी प्ररूपणा कर अब यहाँपर तीनों करणोंके स्वरूपका निर्देश करते हुए आगे सूत्र कहते हैं—
तत्पश्चात् उक्त रचनासे भिन्न अधःप्रवृत्तकरण प्रथम, अपूर्वकरण द्वितीय और अनिवृत्तिकरण तृतीय हैं, अतः इनके समयोंकी रचना करनी चाहिए ।
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$ १४. 'तदो' अर्थात् इन कर्मोकी स्थितियों और अनुभागस्पर्धकोंके अपकर्षण के अनन्तर प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालसे सम्बन्ध रखनेवाले इन तीन करणोंके समयों की एक श्रेणिमें यथाक्रम ऊर्ध्वाकाररूपसे रचना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ 'अण्णमधापवत्तकरणं' ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है कि पहले स्थितियों और अनुभागों की रचनाका कथन किया, अब उससे पृथक इन तीन कारणोंकी रचना है ऐसा ज्ञान कराने के लिए 'अण्णं' ऐसा कहा है ।
* इनके समयोंकी रचनाकर अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण कहना चाहिए ।
$ १५. 'उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है।' इस न्यायके बलसे सर्वप्रथम अधः प्रवृत्तकरण के लक्षणको यहाँ कहकर ग्रहण करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है और उसका लक्षण कहने पर जिस प्रकार दर्शनमोहकी उपशामना अनुयोग द्वार में अनुकृष्टि आदि विशेषताओंके साथ अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण कहा है उस प्रकार पूरा यहाँ पर कहना चाहिए, इसलिए प्रन्थके बढ़ जानेके भय से पुनः उसका उपन्यास नहीं करते हैं ।
* इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका भी लक्षण कहना चाहिए ।