Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११४ ]
अधापवत्तकरणे कज्जविसेसपरूवणा ६.१६. एवं चेवापुव्वाणियट्टिकरणाणं पि लक्खणमेत्थ परूवेयव्वमिदि वृत्त होइ । एदेसि च तिण्हं करणाणं लक्खणविहासाए उवसामगभंगादो पत्थि णाणत्तमिदि पदुप्पाएमाणो उत्तरसुत्तमाह-- * एदेसिं लक्खणाणि जारिसाणि उवसामगस्स तारिसाणि चेय ।
१७. किं कारणं ? अणुकट्टियादिपरूवणाए तत्तो एदेसि भेदाणुवलंभादो । तदो तत्थतणपरूवणा णिरवसेसमेत्थ वि कायव्वा । एवमेदेसिं लक्खणपरूवणं कादूण संपहि अधापवत्तकरणविसये चउण्हं सुत्तगाहाणं परवणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह--
* अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ परूवेयव्वाओ।
१८. अधापवत्तकरणे ताव इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ पयदपरूवणाए परिभासत्थपदुप्पायणे वावदाओ पढममेव विहासियव्वाओ ति भणिदं होइ ।
* तं जहा।
१९. सुगम ।
* दसणमोहउवसामगस्स०१, काणि वा पुयबद्धाणि०२, के अंसे झीयदे पुत्वं०३, किं ठिदियाणि कम्माणि०४।
६ १६. इसी प्रकार अपूर्वकरण और अतिवृत्तिकरणके भी लक्षणका यहाँ पर कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है किन्तु इन तीनों करणोंके लक्षणोंका विशेष व्याख्यान उपशामनाके कथनसे भिन्न नहीं है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* इन तीनों करणोंके लक्षण जिस प्रकार उपशामककी प्ररूपणामें कह आये हैं उसी प्रकार हैं।
६१७. क्योंकि अनुकृष्टि आदि प्ररूपणाकी अपेक्षा वहाँके कथनसे इनके कथनमें भेद नहीं पाया जाता । इसलिए वहाँ की गई पूरी प्ररूपणा यहाँपर भी करनी चाहिए। इस प्रकार इनके लक्षणका कथन करके अब अधःप्रवृत्तकरणके विषयमें चार सूत्रगाथाओंका कथन करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें इन चार सूत्र गाथाओंको कथन करना चाहिए।
$ १८. अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी प्रकृत प्ररूपणाके परिभाषारूप अर्थके कथनमें व्याप्त हुई इन चार सूत्र गाथाओंका सर्वप्रथम व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* वह जैसे।
१९. यह सूत्र सुगम है। * दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है, किस योग