Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुड़े [दसणमोहक्खवणा २४. 'कदि आवलियं पविसंति' त्ति विहासाए उवसामगभंगो। 'कदिण्हं वा पवेसगो' त्ति विहासा मलपयडीणं सव्वासिं पवेसगो। उत्तरपयडीणं च पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-सम्मत्त-मणुस्साउ-मणुसगदि-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ४-थिराथिरसुभासुभ-णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं णियमा पवेसगो। सादासादाणमण्णदरस्स पवेसगो। चदुण्हं कसायाणं तिण्हं वेदाणं दोण्हं जुगलाणमण्णदरस्स पवेसगो। भयदुगुंछाणं सिया पवेसगो। छण्हं संठाणाणं छण्हं संघडणाणमण्णदरस्स पवेसगो। दोविहायगइ-सुभगभग-सुस्सरदुस्सर-आदेज्जअणादेज्ज-जसगित्तिअजसगित्तीणमण्णदरस्स पवेसगो। णवरि संजदासंजद-संजदेसु सुभगादेज्जजसकित्तीणं चेव पवेसगो।
२५. संपहि तदियगाहाए किंचि विसेसपरूवणं कस्सामो। तं जहा-'के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा' त्ति विहासा । तत्थ पयडिबंधे जाओ पयडीओ
विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और तीर्थकर इन प्रकृतियोंका स्यात् उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । इस प्रकार बन्धमार्गणा समाप्त हुई।
विशेषार्थ-सायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके सन्मुख हुआ जीव नियमसे कर्मभूमिज संज्ञी पर्याप्त मनुष्य होता है, इसलिए एक तो इसके मनुष्यगतिके साथ मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर और औदारिक आंगोपांगका बन्ध नहीं होता। दूसरे यह विशुद्धि युक्त परिणामवाला होता है, इसलिए इसके असातावेदनीय अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका बन्ध नहीं होता। इस अवस्थामें आयुबन्धके योग्य परिणाम नहीं होते, इसलिए मनुष्यायु और देवायुका भी बन्ध नहीं होता। इस प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टिके बन्ध योग्य ७७ प्रकृतियोंमेंसे १२ प्रकृतियोंके कम हो जानेपर यहाँ कुल ६५ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। शेष कथन सुगम है।
२४. 'कितनी प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। इसकी विभाषाका भंग उपशामकके समान है। 'कितनी प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है' इसकी विभाषा। मूल प्रकृतियोंका सबका प्रवेशक होता है। उत्तर प्रकृतियोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सम्यक्त्व, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघुचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे प्रवेशक होता है। साता और असातावेदनीय इनमेंसे अन्यतरका प्रवेशक होता है। चार कषाय, तीन, वेद और दो युगल प्रत्येक इनमेंसे अन्यतरका प्रवेशक होता है। भय और जुगुप्साका स्यात् प्रवेशक होता है। छह संस्थान और छह संहनन प्रत्येक इनमेंसे अन्यतरका प्रवेशक होता है। दो विहायोगति, सुभग-दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय तथा यश-कीर्ति-अयशकीर्ति इनमेंसे अन्यतर एकएकका प्रवेशक होता है। इतनी विशेषता है कि संयतासंयत और संयतोंमें सुभग, आदेय और यशःकीर्तिका ही प्रवेशक होता है।
६ २५. अब तीसरी सूत्रगाथाका कुछ विशेष कथन करेंगे। यथा-'उक्त जीवके बन्ध