Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११४]
सुत्तपरिहासा णियमा खेज्जा चेव होंति त्ति भणिदं । ते च सहस्सगणणा ण होति त्ति जाणावपढें 'सहस्ससो णियमा' ति णिद्दिटुं । तप्पाओग्गसंखेज्जसहस्समेत्ता होति त्ति वुत्तं होइ । सेसासु गदीसु पुण 'णियमा' णिच्छएण असंखेज्जा खीणदंसणमोहा जीवा होति त्ति णिच्छओ कायव्यो, वासपुधत्तंतरेण तदाउद्विदिअब्भंतरे समयाविरोहण संचिदाणं खइयसम्माइट्ठीणं पलिदोवमासंखेज्जभागमेत्ताणं तत्थ संभवोवलंभादो ।
६९. एवं ताव दंसणमोहक्खवणाए पडिबद्धाणं पंचण्हं सुत्तगाहाणं समुक्कित्तणं कादूण संपहि तदत्थविहासणं कुणमाणो तस्सेव परिकरभावेण परिभासत्थपरूवण?मुवरिमं पबंधमाह
* पच्छा सुत्तविहासा । तत्थ ताव पुत्वं गमणिज्जा परिहासा । अपेक्षा हजारोंसे कम नहीं हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये गाथासूत्रमें 'सहस्सो णियमा' इस वचनका निर्देश किया है। तत्प्रायोग्य संख्यात हजार हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु शेष गतियोंमें जिन्होंने दर्शनमोहका क्षय कर दिया है ऐसे जीव "णियमा' अर्थात् निश्चयसे असंख्यात हैं ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि उन गतियोंमें प्राप्त आयुस्थितिके भीतर आगमानुसार वर्ष पृथक्त्वके अन्तरसे संचित हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण उन गतियोंमें बन जाते हैं।
विशेषार्थ-इस गाथासूत्रमें किस गतिमें कितने क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव हैं इस बातका निर्देश किया गया है। मनुष्योंमें गर्भज संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्योंकी कुल संख्या ही संख्यात है, अतः उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपमके भीतर संचित हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टि कुल मनुष्य संख्यात हजार ही हो सकते हैं। इसका एक मुख्य कारण यह भी है कि जो कर्मभूमिज मनुष्य तीर्थकर, केवली या श्रतकेवलीके पादमूलमें क्षायिक सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करते हैं उनमेंसे कुछ तो उसी भवमें मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और जो तद्भव मोक्षगामी नहीं होते हैं वे जैसी आयुका बन्ध किया हो उसके अनुसार चारों गतियोंमें मरकर उत्पन्न होते रहते हैं। तथा गर्भज संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्योंका कुल प्रमाण संख्यात होनेसे अन्य गतियोंमें संचयका जो नियम है वह यहाँ लागू नहीं होता, इसी लिए मनुष्यगतिमें सायिक सम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण संख्यात हजार बतलाया है। शेष तीन गतियोंमें वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे एक क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यगतिसे आकर जन्म लेता है, इस नियमके अनुसार वहाँ प्रत्येक गतिमें अपनी-अपनी भवस्थितिके भीतर संचित हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। इस प्रकार इस गाथासूत्र में संख्याका निर्देश कर देशामर्षकभावसे सत् आदि आठों अनुयोगद्वारोंकी सूचना दी गई है यह सिद्ध हुआ।
६९. इस प्रकार सवप्रथम दर्शनमोहकी क्षपणासे सम्बन्ध रखनेवाली पाँच सूत्रगाथाओंकी समुत्कीर्तना कर अब उनके अर्थका व्याख्यान करते हुए उसीके परिकररूपसे व्याख्यान करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इस प्रकार गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तनाके पश्चात् सूत्रोंकी विभाषा की जाती है । उसमें भी सर्वप्रथम परिभाषा जानने योग्य है।