Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ११३]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा (६०) खवणाए पट्टवगो जम्हि भवे णियमसा तदो अण्णे।
णाधिच्छदि तिण्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥११३॥ ६७. एदीए चउत्थगाहाए खीणदंसणमोहणीयस्स जीवस्स संसारावट्ठाणकालो जइ वि सुठु बहुगो होइ तो वि पट्ठवणभवं मोत्तणण्णेसिं तिण्हं भवाणमुवरि ण होइ त्ति पदुप्पाइदं ददुव्वं । तं कधं ? जम्हि भवे दसणमोहक्खवणाए पट्ठवगो होइ तदो अण्णे तिण्णि भवे णाइच्छइ । किंतु तं मोत्तणण्णेहिं भवेहिं खीणदंसणमोहणीयो णिच्छएणेव सव्वकम्मकलंकविप्पमुक्को होदूण णिव्याणं गच्छदि त्ति सुत्तत्थसमुच्चयो ।
और आयुकर्मके बन्धका निषेध किया है। इसी प्रकार उक्त जीव ( मनुष्य और तिर्यञ्च ) तिर्यश्चगति और मनुष्यगतिके साथ बँधनेवाली नामकर्मकी प्रकृतियोंका तथा तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका भी बन्ध करते हैं पर इत प्रकृतियोंका उक्त जीवोंके अधिकसे अधिक दूसरे गुणस्थान तक ही बन्ध होता है, इसलिए क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चों और मनुष्योंके इन प्रकृतियोंके बन्धका निषेध किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो तिर्यञ्च और मनुष्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं उनके तो एकमात्र देवगतिके साथ बन्धको प्राप्त होनेबाली नामकर्मकी प्रकृतियोंका और देवायुका ही बन्ध होता है, अन्य नामकर्मकी और आयुकर्मकी प्रकृतियोंका नहीं । अब रहे क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव और नारकी सो इस अवस्थामें इनके एकमात्र मनुष्यगतिके साथ बँधनेवाली नामकर्मकी प्रकृतियोंका और मनुष्यायुका ही बन्ध होता है यह नियम है। इस प्रकार नियमको देखकर यहाँ नाम और आयुसम्बन्धी अन्य प्रकृतियों के बन्धका निषेध किया है । परन्तु इन प्रकृतियोंका बन्ध तभी क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंके होता हो ऐसा नहीं है। किन्तु जो तद्भव मोक्षगामी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव है उनके तो आयुकर्मका बन्ध हो नहीं होता, जो तद्भव मोक्षगामी उक्त जीव नहीं हैं उनके पूर्वोक्त विधिके अनुसार देवायु और मनुष्यायुका बन्ध होता है। नामकर्मके विषय में यह नियम है कि गुणस्थान परिपाटीके अनुसार जिस गुणस्थान तक नामकर्मकी जिन प्रकृतियोंका बन्ध आगममें बतलाया है वहीं तक उक्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके यथायोग्य उन प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए, आगेके गुणस्थानोंमें नहीं।
यह जीव जिस भवमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है उससे अन्य तीन भवोंको वह नियमसे उल्लंघन नहीं करता है, अर्थात् नियमसे मुक्त होता है ॥ ११३ ॥
७. जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है ऐसे जीवका संसारमें अवस्थान काल यद्यपि काफी बहुत है तो भी वह प्रस्थापक भवको छोड़कर अन्य तीन भवोंसे अधिक नहीं होता यह इस चौथी गाथा द्वारा कहा गया जानना चाहिए ।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-क्योंकि जिस भवमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है उससे अन्य तीन भवोंको उल्लंघन नहीं करता। किन्तु उस भवको छोड़कर अन्य भवोंके अवलम्बन