Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [दसणमोहक्खवणा पच्छद्धस्सावयारो । तं कधं ? 'खीणे देव-मणुस्से दंसणमोहणीए खीणे संते तदो देवमणुसगइविसयाणं चेव णामाउअपयडीणं बंधो होइ, गाण्णगइविसयाणं । कुदो एवं चे ? सेसगइसंजुत्तणामाउअबंधसंताणस्स सम्मत्तपरसुणा पुव्वमेव छिण्णत्तादो । तदो तिरिक्ख-मणुस्सेसु वट्टमाणो खइयसम्माइट्ठी देवगइसंजुत्ताणं चेव णामाउआणं बंधओ होइ । देव-णिरयगदीसु च वट्टमाणो मणुसगइसंजुत्ताणं चेव तेसिं बंधगो होदि त्ति घेत्तव्वं । पयडिणिदेसो एत्थ सुगमो ति ण पुणो परूविज्जदे । एदेसिं च बंधो खइयसम्माइडिम्मि सिया होइ त्ति जाणावणटुं सिया विसेसणं कदं। सिया एदेसि बंधगो होइ सिया च ण होइ त्ति । किं कारणं ? चरिमभवे वट्टमाणस्स आउअबंधाणुवलंभादो। णामपयडीणं च सगपाओग्गविसये बंधुवरमे जादे तत्तो उवरि बंधाणुवलंभादो।
शंका-वह कैसे ?
समाधान—'खीणे देव-मगुस्से' अर्थात् दर्शनमोहनीयके क्षीण होनेपर वहाँसे लेकर देव और मनुष्यगतिसम्बन्धी ही नाम और आयुकर्मकी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, अन्य गतिसम्बन्धी प्रकृतियोंका नहीं।
शंका-ऐसा किस कारणसे ?
समाधान-क्योंकि शेष गतिसंयुक्त नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्धसन्तानका और आयुकर्मकी बन्धसन्तानका सम्यक्त्वरूपी परशुके द्वारा पहले ही छेद कर दिया है।
अतः तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें वर्तमान क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव देवगति-संयुक्त ही नामकर्मकी प्रकृतियोंका और आयुकर्मका बन्धक होता है तथा देवगति और नरकगतिमे वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यगति संयुक्त उक्त प्रकृतियोंका बन्धक होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। प्रकृतमें प्रकृतियोंका निर्देश सुगम है, इसलिए उनका प्ररूपण नहीं करते हैं । इन प्रकृतियोंका बन्ध क्षायिकसम्यग्दृष्टिके कदाचित् होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये गाथासूत्रमें 'सिया' विशेषण दिया है। कदाचित् इनका बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक नहीं होता, क्योंकि अन्तिम भवमें विद्यमान उक्त जीवके आयुकर्मका बन्ध नहीं पाया जाता और नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्धका अपने योग्य स्थानमें उपरम हो जाने पर उससे आगे बन्ध नहीं पाया जाता।
विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकी क्षपणा तीन करणपूर्वक होती है और तीन करणोंमेंसे प्रत्येक करणका काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः यहाँ दर्शनमोहनीयको क्षपणाका कुल काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बतलाया है, क्योंकि तीनों करणोंके समुच्चयरूप कालका योग भी अन्तर्मुहूर्त ही है, इससे अधिक नहीं । जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य और तिर्यश्च है वह नामकर्मकी देवगतिके साथ बँधनेवाली प्रकृतियोंका तथा देवायुका ही बन्ध करता है, क्योंकि नरकगतिके साथ बँधनेवाली उक्त प्रकृतियोंका यद्यपि मनुष्य और तियञ्च बन्ध करते है, पर इनका बन्ध उक्त जीवोंके मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होता है आगेके गुणस्थानोंमें नहीं, इसलिए तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके नरकगतिके साथ बँधनेवाली नामकर्मकी प्रकृतियों