Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा
णिबंधणकरणपरिणामाणमणुप्पत्तीदो । सुणाणुवहट्ठो एसो अत्थविसेसो कम त्ति णासंकणिज्जं, 'जम्हि जिणा केवली तित्थयरा" ति सुत्ततरवलेण तदुवलंभसिद्धीए । एवं ताव दंसणमोहक्खवणापट्टवगस्स कम्मभूमिजमणुसविसयत्तमबहारिय संपहि तण्णिवगस्स चदुसु वि गदीसु अविसेसेण संभवपदुप्पायणट्ठमिदमाह - 'णिgasो चावि सव्वत्थ' – मिट्ठवगो पुण सव्वासु वि गदीसु होइ, ण तस्स मणुसइविसयणियम अस्थि त्ति वृत्तं होइ । किं कारणमिदि चे ? मणुसगदीए आढतदंसणमोहraaree sदकरणिज्जकालब्भंतरे समयाविरोहेण कालं काढूण पुव्वाउअबंधवसेण चउन्हं गदीर्ण संकमणे विरोहाणुवलंभादो ।
गाथा ११० ]
शंका – सूत्रद्वारा अनुपदिष्ट इस अर्थविशेषकी उपलब्धि कैसे होती है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि 'जिस क्षेत्र में जिन, केवली और तीर्थकर होते हैं' इस अन्य सूत्रके बलसे उस अर्थविशेषकी उपलब्धि सिद्ध हैं ।
इस प्रकार सर्वप्रथम दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ मनुष्य है इस विषयका निश्चय करके अब उसका निष्ठापक सामान्यसे चारों ही गतियों में सम्भव है इस विषयका कथन करनेके लिए गाथासूत्र में यह वचन आया है - 'णिट्ठो चावि सव्वत्थ' परन्तु निष्ठापक चारों ही गतियों में होता है, वह मनुष्यगतिका ही होता है ऐसा नियम नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका — इसका क्या कारण है ?
समाधान-क्योंकि जिसने मनुष्यगति में दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ किया है उसका कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वके कालके भीतर परमागम के निर्देशानुसार मरकर पूर्व में परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होनेके कारण चारों ही गतियोंमें जानेमें कोई विरोध नहीं
पाया जाता ।
विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयको उपशमना कौंन जीव करता है इसका निर्देश पहले कर आये हैं । यहाँ दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कौन जीव करता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए बत लाया है कि पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुआ। मनुष्य ही दर्शनमोहनीयको क्षपणका प्रस्था पक होता है । इस विषयका विशेष खुलासा करते हुए जीवस्थान चूलिकामें वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि साधारणतः दुषमसुषमा कालमें उत्पन्न हुए कर्मभूमिज मनुष्य ही दर्शनमोहनीकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि ऐसा नियम है कि कर्मभूमि में भी जिस काल में जिन, केवली और तीर्थंकर होते हैं, कर्मभूमियोंके उसी कालमें वहाँ उत्पन्न हुए मनुष्य दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं । किन्तु इसका एक अपवाद है वह यह कि कदाचित् सुषमादुपम कालमें उत्पन्न हुए मनुष्य भी दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं । वीरसेन स्वामीने यह तथ्य इस आधार पर फलित किया है कि इस अवसर्पिणी काल भगवान आदिनाथ तीर्थंकर परम भट्टारक देव तीसरे सुपसादुषम कालके अन्तिम भागने
१. जीवस्थान चूलिका ८ सू० ११ ।