Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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प्रस्तावना
क्या व्यवहार ---
- क्या परमार्थ सब जगह कर्म का सिद्धान्त एक-सा उपयोगी है। कर्म के सिद्धान्त की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में डॉ. मेक्समूलर का जो विचार है वह जानने योग्य है। वे कहते हैं
V
'यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्यत के लिये नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता, यह नीतिशास्त्र का मत और पदार्थशास्त्र का बल - संरक्षण सम्बन्धी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीतिशिक्षा के अस्तित्व के सम्बन्ध में कितनी ही शङ्का क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सबसे अधिक जगह माना गया है, उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुये हैं और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भावी जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला है। '
कर्मवाद के समुत्थान का काल और उसका साध्य
कर्मवाद के विषय में दो प्रश्न उठते हैं - (१) कर्मवाद का आविर्भाव कब हुआ ? (२) वह क्यों ?
पहले प्रश्न का उत्तर दो दृष्टियों से दिया जा सकता है । १. परम्परा और २. ऐतिहासिक दृष्टि से
१. परम्परा के अनुसार यह कहा जाता है कि जैनधर्म और कर्मवाद का आपस में सूर्य और किरण का सा मेल है। किसी समय, किसी देश विशेष में जैनधर्म का अभाव भले ही दिखाई पड़े, लेकिन उसका अभाव सब जगह एक साथ कभी नहीं होता । अतएव सिद्ध है कि कर्मवाद भी प्रवाह - रूप से जैनधर्म के साथ-साथ अनादि है, अर्थात् वह अभूतपूर्व नहीं है।
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२ परन्तु जैनेतर जिज्ञासु और इतिहास - प्रेमी जैन, उक्त परम्परा को बिना ननु नच किये मानने के लिये तैयार नहीं। साथ ही वे लोग ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर दिये गये उत्तर को मान लेने में तनिक भी नहीं सकुचाते। यह
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