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ॐ ३० 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ *
हैं और पर-भवों (अगले जन्मों) में भी संताप, पीड़ा और नरकगति आदि के दुःख ही देते हैं। ऐसी स्थिति में भी इन कषाय-शत्रुओं के दोषों को क्यों नहीं जानते-देखते हो?"१ अर्थात् अहर्निश कषायों के कारण होने वाली हानि को तथा कषायों को संसारवृद्धि के दुर्गुणों के कारण तथा अनेक दुःखों के उत्पादक जानते-मानते हुए, अनुभव करते हुए भी इन्हें क्यों अपनाते हैं ? . . . अधिक सुख किसमें है ? : कषाय-सेवन से या अकषाय से ?
आगे इसी में तुलनात्मक दृष्टि से आत्मार्थी को सोचने पर मजबूर करते हुए कहा है-“हे धीर ! कषाय के सेवन से अर्थात् कषायों के अपनाने से, क्रोधादि कषाय करने से जो सुख प्राप्त होता है, तथैव कषायों का त्याग करने-नष्ट करने से = अकषायभाव में रहने से जो सुख मिलता है अथवा कषाय करने से क्या परिणाम आता है या लाभ मिलता है और कषायों का स्वेच्छा से त्याग (निरोध) करने से क्या परिणाम आता है या लाभ मिलता है? इन दोनों की भलीभाँति तुलना करके देखो। इनमें से जो विशिष्ट लाभकारी हो, श्रेयस्कर हो, उसको अपनाओ, उसका सेवन करो।"२ । कषाय-सेवन से सुख-शान्ति नहीं
अतः यह अनुभवसिद्ध तथ्य है कि कषाय-सेवन की अपेक्षा अकषायभाव में रहने में अधिक सुख-शान्ति, सन्तोष और आनन्द है। यदि कषाय-सेवन करने में अधिक सुख, लाभ और आनन्द होता तो कोई भी आत्मार्थी साधक कषाय-विजय या कषाय-उपशमन का प्रयत्न या साधना नहीं करता और स्वयं तीर्थंकर भगवान भी कषाय का स्वयं त्याग न करते और न ही वे दूसरों को कषाय-त्याग या कषाय-विजय का उपदेश देते। वीतराग सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनने के बाद कोई तीर्थंकर, अरिहन्त, केवलज्ञानी पुरुष कषाय का अंशमात्र भी सेवन नहीं करते।३ तीर्थंकरों पर भी पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आने पर अनेक परीषह एवं उपसर्ग आते हैं, किन्तु परीषहों एवं उपसर्गों के निमित्तभूत व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति आदि पर वे जरा भी रोष, द्वेष, आक्रोश, अहंकार, छलकपट या स्वार्थसिद्धि का लोभ आदि कषाय नहीं करते। अगर कषाय करना अच्छा होता, किसी उपसर्ग
-अध्यात्म-कल्पद्रुम
१. को गुणस्तव कदा च कषायैर्निर्ममे, भजसि नित्यमभिमानेन यत्।
किं न पश्यसि दोषममीषां, तापमत्र, नरकं च परत्र।।। २. यत्कषायजनितं तव सौख्यं, यत्कषाय-परिहानि-भवं च।
तद्विशेषमथवैतदुदक, संविभाव्य भज धीर ! विशिष्टम्।। ३. ‘पाप की सजा भारी, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. ५२९
-वही .
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