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१. कर्मविपाक - इस ग्रन्थ में मुख्यतया कर्म की मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियों के भेद, लक्षण एवं कर्मों के बंधने के हेतु आदि पर विचार किया गया है। इसमें ६० गाथाएं हैं।
२. कर्मस्तव — इसमें कर्म की चार अवस्थाओं—बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता का गुणस्थानों की दृष्टि से विवेचन किया गया है । किस गुणस्थान में कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता है ? उन्हें बतलाया गया है । इसमें ३४ गाथाएं हैं ।
२. बंधस्वामित्वमार्गणाओं के आधार पर गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। किस मार्गणा में स्थित जीव की कर्मसम्बन्धी कितनी योग्यता है ? गुणस्थान विभागानुसार कर्मबंध सम्बन्धी जीव की कितनी योग्यता है ? इन विषयों पर विचार किया गया है । इसमें गाथाएं २५ हैं ।
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४ षडशीति इसका अपर नाम 'सूक्ष्मार्थविचार है। इसमें मुख्यतः तीन विषयों पर चर्चा की गई है१. जीवस्थान, २. मार्गणास्थान, ३. गुणस्थान । जीवस्थान में गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्पबहुत्व इन छह विषयों पर विवेचन किया गया है। गुणस्थान में जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बंधहेतु, बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता, अल्पबहुत्व, इन दस अधिकारों पर विचार किया गया है। जीवस्थान से प्राणियों के संसारपरिभ्रमण की विभिन्न अवस्थाओं का मार्गणास्थान से जीवों के कर्मकृत स्वाभाविक भेदों का, गुणस्थान से आत्मा के उर्ध्वारोहन का क्रम बतलाया गया है। अन्ततः भाव और संख्या का विवेचन किया गया है। इसमें ८६ गाथाएं हैं ।
५. शतक — इस ग्रन्थ के प्रारंभ में कर्म प्रकृतियों का वर्गीकरण करके ध्रुवबंधिनी आदि प्रकृतियां बतलाई गई हैं । तदनन्तर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश बंध का सविस्तृत वर्णन दिया गया है। अन्त में उपशमश्रेणि, क्षपकश्रेणि से जीव की आरोहण विधि बतलाई गई है ।
इन पांच कर्मग्रन्थ पर ग्रन्थकार ने स्वोपशटीका का प्रणयन किया है। तृतीय कर्मग्रन्थ की टीका नष्ट हो जाने से किसी आचार्य द्वारा अवचूरिटीका लिखकर इसकी पूर्ति की गई है।
कमलसंयम उपाध्याय द्वारा इन कर्मग्रन्थों पर लघु टीकाओं का भी प्रणयन हुआ है । हिन्दी और गुजराती में इन कर्मग्रन्थों के अनुवाद एवं विवेचन भी मिलते हैं।
भावप्रकरण —— इसके रचयिता विजयवल्लभगणि हैं । ग्रन्थ में औपशमिक आदि भावों का वर्णन है । इसमें ३० गाथाएं एवं ३२५ श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञवृति है ।
बंधहेत दयत्रिभंगी - यह हर्षकुलगणि कृत है, इसमें ६५ गाथाएं हैं । इस पर विक्रम संवत् १६०२ में वानषि द्वारा ११५० श्लोक प्रमाण टीका लिखी गई है ।
बंधोदयसत्ताप्रकरण इसके रचयिता विजयविमलगणि है। इसमें २४ गाथाएं हैं । ३०० श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञ अवचूरि है ।
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उपर्युक्त कर्मसाहित्य के अतिरिक्त आचार्य प्रेमसूरि एवं इनके शिव्यसमुदाय द्वारा कर्म-सम्बन्धी निम्न ग्रन्थों की स्वोपज्ञ टीकायुक्त रचना की गई है
रसबंधो, ठियबंधो, पएसबंधो, खवगसेढी, उत्तरपयडीरसबंधो, उत्तरपयडीठियबंधो, उत्तरपयडीबंधो, उत्तर
पयडीएसबंध ।