Book Title: Jindutta Kathanakam
Author(s): Omkarshreeji
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 13
________________ प्रस्तावना प्रन्थ अने ग्रन्थकार पुण्यकर्मथी प्राप्त थता शुभ फलनो निर्देश करवा माटे रचायेला प्रस्तुत जिनदत्तकथानकना नाम, कथावस्तु रचनानो हेतु तथा कथानकनी उपयोगिताना संबंधमां जिनदत्ताख्यान'द्वय' ग्रंथनी प्रस्तावनानां पृ. थी ४ जोवानी भलामणरे कर छु। उपर जणावेलो प्राकृत भाषामां रचायेली बे कृतिओ (जिनदत्ताख्यानद्वय) नी रचना विक्रमनी १३ मी शताब्दीना पूर्वे थयेली छे । तेना तथा अन्यत्रथी पण प्राप्त कथावस्तुना आधारे श्री गुणसमुद्रसूरिए प्रस्तुत कथानक वि०स० १४७४मां रच्युं छे । आथी केवळ पूर्वनी प्राकृतभाषानिबद्ध कथानु अनुकरण करीने आ संस्कृत रचना करी छे. एम नथो किन्तु अहीं पूर्वना करतां नवीनता बताववानो प्रयत्न पण को छ । आ हकीकत पर जगावेल जिनदत्ताख्यानद्वयनी ।तावनामा आपेला तथा अहीं प्रस्तावनामां आपेला ‘संक्षिप्त कथासार' ने वांचवाथी तारवी शकाशे। अहीं सत्य (पृ. ७०), अपरिग्रह (पृ० ७०), लोभत्याग (पृ०७१), अनित्यादि भावनास्वरूप आदि (पृ. ७५-७९ ), जिनमदिरनिर्माण-जिनपूजा-ग्रंथभंडारनिर्माण-श्रीसंघभक्ति-सप्तक्षेत्रव्यव्यय-आवश्यक. धर्मक्रिया-तीर्थयात्रा (पृ. ८०-८४) वगेरेनु उपदेशात्मक निरूपण छे । तेम ज सर्वत्याग करवानो उत्कट भावनावाळा जिनदत्त अने तेना अमात्यनो संवाद, आत्मकल्याणनां आवरणोने दूर करवाना उपदेशरूपे सुंदर रीते निरूप्यो छे (पृ. ८५-८९)। अहीं सर्वत्यागनो निषेध करवा अमात्ये असंगत शास्त्रीय पद्धतिथी प्रयत्न कयों छे । वळी अहीं विशाल जैन कथासाहित्य पैकीनी केटलीक कथाओनो निर्देश पण प्रसंगानुरूप को छ । उपर जणाच्या प्रमाणे मानव जीवननी वास्तविक सार्थकता माटे जैन परंपरा मुजब अहीं ठीक ठीक निरूपण कर्य ज छे, उपरांत ग्रंथकारना समयमां लोकजीभे रमती केटलीक उक्तिओ अने लोकव्यवहारभाषा. प्रयोगो तथा शब्दोने प्रस्तुत रचनामां वणी लीधा छे तेथी, तेष ज संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश अने जूनी गुजराती भाषानां समप्रतया से कडो सुभाषितोनां प्रसंगानुरूप अवतरणो आपीने आ कथानकनी उपयोगितामां ग्रंथकारे सविशेष उमेरो को छे । आ सुभाषितो आध्यात्मिक अने व्यावहारिक उपदेशरूपे छ । उपर जणावेली उक्तिओ, लोकव्यवहारभाषा प्रयोगो अने शब्दो अभ्यासीओने उपयोगी छे तेथी तेनी अनुक्रमे नांध आपुं छु-- उक्तिओ--१. अन्धयष्टिन्याय पृ० ९५०1७. २. न सपे म्रियते न यष्टिर्भज्यते पृ० १२५० १८. ३. मनुष्य कूटस्य लकुटशुषिरस्य च पारो नास्ति पृ० १५ पं० १५, ४. हस्तो दग्ध: पृथुकोऽपि गतः पृ० १८ पं. १०, ५. सर्पजग्धानां रज्जुभयं भवति पृ० २१ पं. १, ६. सुवर्ण पुनः सुरभि पृ० २३ पं० ११. ७. इष्ट पुनद्योपदिष्टम् पृ० २३ १० १२, ८. घृतपूरं पुनस्तन्मध्ये घृतं क्षिप्तम् पृ०२३ ५.० १२, ९. एष स कपित्थो न हि यो वातेन पतति पृ०२८५० १५, १०. वृतिश्चिर्भटानि खादन्ती दृष्टा पृ०३२ ३, ११. तस्य पितुः किमपि याति ? पृ० ३२ ५०१४, १२. शिरस्या जन्म भन्नोऽस्ति पृ. ३३ ६० ७. १३. यो दत्ते स देवता पृ० ३३ ५० ९, १४. पुण्यं पाप च युवयोमेस्तके पृ० ३३ ५० १४, १५. कस्या १. आ ग्रंथ, ई.स. ११५३ मां सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित थयेलो छे अने तेनु सपादन में कयु छे । २. विशेष हकीकतो मळवानो अवकाश होवा छतां. मारा कामना भारणने लीधे अहीं भलामण करीने संतोष मानवो पड्यो छे।

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