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पूर्णिमापक्षोयश्रीगुणसमुद्रसूरिवरविरचितं
जिनदत्तकथानकम्
सम्पादिका
साध्वी ओंकारश्रीः युगप्रवर्तक पूज्यपादाचार्यवर्यश्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वर समुदायवर्तिनी
प्रकाशयित्री
भावनगरस्था श्री जैन-आत्मानन्द-सभा
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वि.सं. २०३४
पूर्णिमापक्षीय श्रीगुणसमुद्रसूरिवरविरचितं
जिनदत्तकथानकम्
सम्पादिका
साध्वी ओंकारश्रीः युगप्रवर्तकपूज्यपादाचार्यवर्यश्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरसमुदायवर्तिनी
प्रकाशयित्री
भावनगरस्था श्री जैन - आत्मानन्द-सभा
वीर नि. २५०४
आत्मसं. ८२
ई.स. १९७८
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प्रकाशक 'श्री गुलाबचंद लल्लुभाई शाह
प्रमुख श्री जैन आत्मानन्द सभा
भावनगर
प्रत ५००
मूल्य: ८०
मुद्रक
मूलग्रन्थ : स्वाति प्रिन्टर्स शाहपुर अहमदाबाद-३८०००१
शेषभाग : श्री स्वामिनारायण मुद्रण मंदिर पुरुषोत्तमनगर, नवा वाडज, अहमदाबाद-३८००१३.
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पूज्यपाद आगमप्रभाकर श्रुतशीलवारिधि मुनिभगवंत श्री पुण्यविजयजी महाराज
(वि. सं. १९५२ - वि. सं. २०२७ )
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ग्रन्थसमर्पणम्
पुण्यं मनस्तथा वाणी पुण्या, काया तथा तथा । येषां पुण्यात्मनां तेषां ज्ञानयोगवतां सताम् ।।१।। दिवंगतानां पूज्यानां महर्षीणां महात्मनाम् । निम्रन्थानां तथाऽनेकग्रन्थसंशोधकानां च ॥२॥
आगमप्रभाकराणां श्रुतेन शीलेन शोभमानानाम् । मुनिपुण्यविजयनाम्नां करयुगकमलेऽर्ण्यतेऽथ मया ॥३॥
उपकारगुणान् स्मृत्वा, पुनः पुनर्वन्दनावलों कृत्वा ।
ओंकारश्रीनाम्न्या निर्ग्रन्थिन्या सुभावेन ॥४॥ पुण्यप्रभावप्रख्यापकं च बहुविधगुणोपदेशकरम् । दानादिधर्मगर्भ जिनदत्तकथानकं चेदम् ॥५।। कुलकम् ।।
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ગ્રંથસમર્પણ
જેમનાં મન, વચન અને કાયા પવિત્ર છે તે પુણ્યાત્મા જ્ઞાનગી સંત દિવંગત પૂજય મહર્ષિ મહાત્મા નિર્ગસ્થ, અનેક ગ્રંથોના સંશોધક, આગમપ્રભાકર, શ્રુત અને શીલથી શેભાયમાન, મુનિ શ્રી પુણ્યવિજ્યજીના કરકમલમાં,
તેમના ઉપકારોને યાદ કરીને, પુનઃ પુનઃ વંદનાવલી કરીને, હું આકારશ્રી નામની સાથ્વી,
પુણ્યપ્રભાવનિરૂપક, અનેક ગુણોને ઉપદેશ કરનારું તથા જેમાં દાનાદિ ધર્મનું પ્રરૂપણ છે તે આ જિનદત્તકથાનક, ભાવપૂર્વક અર્પણ કરું છું,
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પ્રકાશકનું નિવેદન
અમારી સંસ્થાનાં પ્રકાશન પછી સંસ્કૃત-પ્રાકૃત ભાષાના અનેક પ્રાચીન ગ્રંથ આજદિન સુધીમાં સુસંપાદિત થઈને પ્રકાશિત થયેલા છે. આમાં વસુદેવહિંડી, હકલ્પસૂત્ર (નિયુક્તિ-ભાગ્ય-ટીકા સહિત) જેવા જે અતિમહત્તવના ગ્રંથો અમારી સંસ્થાએ પ્રકાશિત કર્યા છે તેમાં દિવંગત પૂજ્યપાદ મુનિભગવંત શ્રી ચતુરવિજ્યજી મહારાજ સાહેબ તથા તેમના સુપ્રસિદ્ધ વિઠય શિષ્ય દિવંગત પૂજ્યપાદ આગમપ્રભાકર શ્રત–શીલવારિધિ મુનિભગવંત શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ સાહેબને જેટલો ઉપકાર માનીએ તે ઓછો છે.
પ્રસ્તુત જિનદત્તકથાનક, સંસ્કૃતભાષાના અભ્યાસીઓ માટે ઉપયોગી એ કથાગ્રંથ છે. આને વિશેષ પરિચય પ્રસ્તાવનામાં જણાવેલ છે.
આ ગ્રંથનું સંપાદન પૂજ્યપાદ આગમપ્રભાકરજી મહારાજસાહેબની પ્રેરણાથી પરમપૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી ઓકારશ્રીજી મહારાજે કર્યું છે, એ જણાવતાં અમે સવિશેષ હર્ષ અને ગૌરવની લાગણી અનુભવીએ છીએ.
અમારી વિનંતિને ધ્યાનમાં લઈને પરમ પૂજ્ય સાધ્વીજી મહારાજ શ્રી એકારશ્રીજીએ આ ગ્રંથનું સંપાદન-સંશોધન કરીને અમારી સભા પ્રત્યે જે મમતા દર્શાવી છે તે બદલ અમે તેમને અંત: ઉપકાર માનીએ છીએ.
પ્રસ્તુત કથાનકનો ગુજરાતી ભાષામાં સંક્ષિપ્ત સાર તથા અન્ય માહિતી આપતી પ્રરતાવના, ૫૦ શ્રી અમૃતલાલ મોહનલાલ ભોજકે લખી આપેલ છે. તથા પ્રસ્તુત પ્રકાશનના મુદ્રણને લગતી કાગળ ખરીદીથી માંડી સમગ્ર વ્યવસ્થા, સુપ્રસિદ્ધ લેખક શ્રી રતિલાલભાઈ દીપચંદ દેસાઈએ કરી છે. આ બદલ અમે આ બન્ને ભાઈઓને ધન્યવાદ આપીએ છીએ.
પરમ પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી ઓકારશ્રીજી મહારાજની પ્રેરણાથી કપડવંજ, સુરત, વડોદરા, પાલેજ, નાગપર, મદ્રાસ વગેરે શહેરના શ્રી સંઘ તરફથી તથા અન્ય જ્ઞાનપ્રેમી ભાઈ-બહેને તરફથી જે આર્થિક સહાય મળી છે તે બદલ અમે તે સૌનો અનુમોદનાપૂર્વક હાર્દિક આભાર માનીએ છીએ. આ મદદના કારણે પડતર કરતાં પણ પુસ્તકનું મૂલ્ય ઓછું કરી શકાયું છે.
હાલમાં છપાઈ, કાગળ, બાઇન્ડિંગ વગેરે મુદ્રણ અંગેની પ્રત્યેક બાબતોમાં અસાધારણ ભાવ વધારો થયો છે, છતાં શાસનદેવની કૃપાથી અમે, પૂજ્યપાદ આગમપ્રભાકર મુનિભગવંત શ્રી પુણ્યવિજયજી ભ રાજસાહેબની ઇરછાનુસાર આ ગ્રંથને પ્રકાશિત કરી શક્યા છીએ તે માટે અમે અમારી જાતને ભાગ્યશાળી માનીએ છીએ.
તા. ૨૦–૭-૧૯૭૮
ગુલાબચંદ લલુભાઈ શાહ
પ્રમુખ શ્રી જૈન આત્માનંદ સભા
ભાવનગર
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संपादकीय
॥ जयन्तु वीतरागाः ॥
परम पूज्य परमोपकारक दादी गुरुणीजी श्री दानश्रीजी महाराज, परम पूज्य उपकारी दीक्षागुरुणीजी श्री विद्याश्रीजी महाराज तथा परम पूज्य शिक्षागुरुमीजी श्री विनयश्रीजी महाराजे परम उपकार करीने मारामां त्याग एवं ज्ञान मार्गनी उपासना करवाना संस्कारो सिंच्या छे ते बदल उक्त त्रणे य गुरुणीश्रीओने पुन: पुन: वंदनावली करीने जीवननी धन्यता अनुभवुं छु । पूज्यपाद आगमप्रभाकर श्रुतशीलवारिधि विद्वद्वरेण्य मुनिभगवंत श्री पुण्यविजयजी महाराज साहेबनी निश्रामां अनेक वर्षो सुधी रद्देवानुं सौभाग्य मने मधुं अने तदन्वये ज्ञान तथा ज्ञानि प्रत्येनेा भाक्तिभाव उत्तरोत्तर वध्या तेथी जीवननी सविशेष धन्यता अनुभवाय छे I
पूज्यपाद आगमप्रभाकरजीनी निधाम रहने प्रस्तुत जिनदत्तकथानक संपादन करवानी भावना होया छतां ते तेमना अस्तित्वकालम अली बनी नहीं छेपटे रोमना देहांत पछी अमारा संवत २०३० नी सालना अमदावादन | चातुर्मासमा पूज्यपाद आगमप्रभाकरजीना चिरकालना सहायक पं० श्री अमृतलालभाई भोजकने जायतां तेमणे मने संचनपद्धति पगेरे बाटोमा मार्गदर्शन आष्यु अने अवारनवार वाघोळना उपाध्ये आवीने तैयार मेटर जोई जता तथा तत्संबंधी योग्य सूचन पण करता, जेना फलस्वरुप प्रस्तुत कथानक संपादन प्रकाशन यथुं ।
जो के प्रस्तावना लखवा माठे पण मनुं मार्गदर्शन मेळवीने मारे पोते ज प्रयत्न करवो हते पण चातुर्मास पछी अन्यान्य क्षेत्रोसां विहारना कारणे ते काम पं० श्री अमृतभाईने ज सांप्यु अने तेमणे प्रस्तावना लखी आषी ।
५० अमृतभाई श्री महावीर जैन विद्यालय संचालित, पूज्यपाद आगमप्रभाकरजीए प्रारंभेला आगमप्रकाशनकार्यमा सतत रोकायेला होवाथी, श्री महावीर जैन विद्यालयमा मानद मंत्रीओनी अनुमति मेळवीने महामात्र श्री कान्ति लालभाई कोराए पं० अमृतभाईने प्रस्तुत संपादनकार्यमा पूर्ण सहकार आपवानी सूचना आपी ते बद्दल उक्त विद्यालयता अधिकारी महाशयोने तथा पं० अमृतभाईने धन्यवाद जणावु धुं ।
जैन समाज स्पर्शती विविध समस्याओमा संबंध प्रेरणादायक लेखन आदि प्रवृत्तियी जेमना जीवनने। उत्तर भाग वही रह्यो छे से प्रसिद्ध लेखक श्री तिलाई दीप देसाईए, प्रेस, कागलोनी पसंदगी वगेरे कार्यमा जे सहकार आप्यो छे ते बदल तेमने धन्यवाद जणावुं कुं । अनेक अप्रकाशित ग्रंथोंने प्रकाशित करीने श्री आनंद जैन उत्तर समृद्ध करता माये प्रयत्नशील, श्री गुलाबचंद भाई शाह आदि श्रीराम (भादर) ना अधिकारी महानुभावोने पण तेमनी ज्ञानमतिनी अनुमोदना पूर्वक धन्यवाद जगा हूं।
श्री यशोदाश्रीजी, श्री जयन्त प्रभाधीजी आदि शिष्यापरिवारे मारा प्रत्येक कार्यमा सुविधा करी आपी छे से बदल से सर्वना प्रति अने प्रस्तुत प्रकाशन अंगेमा तेमज कायम माटे अमारा उचित प्रत्येक कार्य प्रसंगे सदाय तत्पर एवा श्री लक्ष्मणदास हीरालाल भोजक प्रत्ये पण मारो कृतज्ञभाव व्यक्त करुं हुं ।
कोई बार अनवधानथी अने प्रेस तथा मुद्रणयंत्री क्षतिथी जे कोई अशुद्ध भई छे तेनुं शुद्धिपत्रक ग्रन्थना अते आप्युं छे ते जोवा भलामण करूं धुं । आ उपरांत जे कोई क्षति रही यांचया तथा मने जणाववा अभ्यासी विद्वानाने विनंति कहु ।
गई होय तेने सुधारीने
वैशाखी पूर्णिमा, सं० २०३४
ओंकारश्री
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ग्रन्थानुक्रमः
पृष्ठ क्रम
१-२
मुखपृष्ठादि ग्रन्थसमर्पण પ્રકાશકનું નિવેદન सम्पादकीय
ग्रन्थानुक्रमः
प्रस्तावना
१-११
विषयानुक्रमः जिनदत्तकथानकम् प्रथमं परिशिष्टम् --ग्रन्थगतविशेषनाम्ना मनुक्रमः द्वितीयं परिशिष्टम्-ग्रन्थगतमुभाषितानामनुक्रमः शुद्धिपत्रकम्
१३-१४
१-९५ ९७-९८ ९९-१०३
१०४
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प्रस्तावना
पूज्यपाद आगम प्रभाकर श्रुत-शीलवारिधि दिवंगत मुनिभगवंत श्री पुण्यविजयजी महाराज साहेबे पोताना कार्यकाळमां नाना-मोटा अनेक प्राचीन ग्रंथभंडारोन अवलोकन करीने पोताना मुख्य कर्तव्यरूप जैनआगमप्रकाशन अंगेनी सामग्री तो मुख्यतया एकत्रित करी हती । आ उपरांत तेमना अन्वेषणमां कोई पण विषयनो नानो के मोटो जैन के अजैन अज्ञात ग्रंथ, जो तेमना जोवामां आवतो, तो शक्य होय तो तेओ तेनी नकल करावी. लेता, अने जो ते प्रकारनी अनुकूळता न होय तो तेनी फोटो कॉपी तो करावी ज लेता । वळी प्रकाशित थयेला कोई पण विषयना ग्रंथो पैकी पण जो कोई ग्रंथनी विशिष्ट हाथ प्रत तेमना जीवामां आवती तो तेनी साथे मुद्रित नकलने अक्षरशः मेळवावी लेता, अने ते पण जो शक्य न होय तो तेवा विशिष्ट ग्रंथनी पण फोटो कापी करावी लेता।
उपर जणाव्या प्रमाणे प्रस्तुत जिनदत्तकथानकनी, सं.० १६६७ मां लखायेली कोई प्रति उपरथी पूज्यपाद आगमप्रभाकरजीए कोईनी पासे नकल करावेली हती । आ केवल नकल ज हती तेथी जेना आधारे मुद्रण थई शके तेवी पदच्छेदवाळी कोपी न हती। आ पछीनां वर्षामां तेमने कोईक स्थळेथी आनुं प्रत्यन्तर मळेलं तेनी साथे उक्त नकलने कोईनी पासे मेळवावेली पण खरी, आना पाठभेदनी नेांधना पाछळ 'प्रत्यन्तरे' संज्ञा लखेली हती, जुओ पृ. १८, टि. १ तथा टि० ४, पृ० ३५ टि० २-३, पृ० ३६ टि. २-३ । आ उपरांत शान्तमूर्ति मनिभगवंत श्री हंसविजयजी महाराजना संग्रहनी प्रतिनी साथे प्रस्तुत नकलने मेळवेली लागे छे. नकलना छेडे हं०' संज्ञा लखीने लेखकनो पुषिका नेांधेलो हती तेथी आ निर्णय थई शक्यों छे । वळी नकलना अंतर्मा 'उ १६' लखेलं हतं आथी कल्पी शकाय छे के छत्रीस पानांवाळी आ प्रति कदाच ऊंझाना ग्रंथभंडारनी होय. जेना उपरथी अहीं जणावेली प्राथमिक नकल थई होय ।।
कोईने प्रकाशित करवा माटे उपयोगी थई शके तेवा, केवळ नकल लेवराववाना आशयथी आ नकल करावेली लागे छे, अने जे कोईने आ काम सोंप्यु हशे तेमणे सामान्य संकेत पूरती नेांध लखेली तेना आधारे अहीं आटलं जणावी शकायु छे ।
प्रतिपरिचय
'पु०' प्रति--पूज्यपाद आगम भाकरजीए लखावेली उपर जणावेली प्राथमिक नकलनी 'पु०' संज्ञा आपी छे। ।
ई.' प्रति--श्री आत्मारामजी जैन ज्ञानमंदिर (बडोदरा) मां सुरक्षित श्री हंसविजयजी जैन ज्ञानभंडारनी । ३३ पानामां लखायेलो आ प्रति छे । प्रत्येक पत्रनी पृष्ठिमा १३ पंक्तिओ अने प्रत्येक पंक्तिमा ४० अक्षर छ। स्थिति सारी अने लिपि सुवाच्य छ । प्रतिनी लंबाई-पहोळाई १०x४। इंच प्रमाण छे । अंतमा लेखकनी पुष्पिका आ प्रमाणे छे--"सं० १६६३ वर्षे मागसीर वदि ५ बुधवासरे सारंगपुरनगरे लिखित सा. मेघा । शुभं भवतु ॥"
उपर जणावेली सामग्रीना आधारे परमपूज्य साध्वीजी श्री ओंकारश्रीजीए पोते मुद्रणयोग्य नकल लखीने प्रस्तुत ग्रंथनु संशोधन-संपादन कर्यु छे ।
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प्रस्तावना
प्रन्थ अने ग्रन्थकार
पुण्यकर्मथी प्राप्त थता शुभ फलनो निर्देश करवा माटे रचायेला प्रस्तुत जिनदत्तकथानकना नाम, कथावस्तु रचनानो हेतु तथा कथानकनी उपयोगिताना संबंधमां जिनदत्ताख्यान'द्वय' ग्रंथनी प्रस्तावनानां पृ. थी ४ जोवानी भलामणरे कर छु।
उपर जणावेलो प्राकृत भाषामां रचायेली बे कृतिओ (जिनदत्ताख्यानद्वय) नी रचना विक्रमनी १३ मी शताब्दीना पूर्वे थयेली छे । तेना तथा अन्यत्रथी पण प्राप्त कथावस्तुना आधारे श्री गुणसमुद्रसूरिए प्रस्तुत कथानक वि०स० १४७४मां रच्युं छे । आथी केवळ पूर्वनी प्राकृतभाषानिबद्ध कथानु अनुकरण करीने आ संस्कृत रचना करी छे. एम नथो किन्तु अहीं पूर्वना करतां नवीनता बताववानो प्रयत्न पण को छ । आ हकीकत पर जगावेल जिनदत्ताख्यानद्वयनी ।तावनामा आपेला तथा अहीं प्रस्तावनामां आपेला ‘संक्षिप्त कथासार' ने वांचवाथी तारवी शकाशे।
अहीं सत्य (पृ. ७०), अपरिग्रह (पृ० ७०), लोभत्याग (पृ०७१), अनित्यादि भावनास्वरूप आदि (पृ. ७५-७९ ), जिनमदिरनिर्माण-जिनपूजा-ग्रंथभंडारनिर्माण-श्रीसंघभक्ति-सप्तक्षेत्रव्यव्यय-आवश्यक. धर्मक्रिया-तीर्थयात्रा (पृ. ८०-८४) वगेरेनु उपदेशात्मक निरूपण छे । तेम ज सर्वत्याग करवानो उत्कट भावनावाळा जिनदत्त अने तेना अमात्यनो संवाद, आत्मकल्याणनां आवरणोने दूर करवाना उपदेशरूपे सुंदर रीते निरूप्यो छे (पृ. ८५-८९)। अहीं सर्वत्यागनो निषेध करवा अमात्ये असंगत शास्त्रीय पद्धतिथी प्रयत्न कयों छे । वळी अहीं विशाल जैन कथासाहित्य पैकीनी केटलीक कथाओनो निर्देश पण प्रसंगानुरूप को छ ।
उपर जणाच्या प्रमाणे मानव जीवननी वास्तविक सार्थकता माटे जैन परंपरा मुजब अहीं ठीक ठीक निरूपण कर्य ज छे, उपरांत ग्रंथकारना समयमां लोकजीभे रमती केटलीक उक्तिओ अने लोकव्यवहारभाषा. प्रयोगो तथा शब्दोने प्रस्तुत रचनामां वणी लीधा छे तेथी, तेष ज संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश अने जूनी गुजराती भाषानां समप्रतया से कडो सुभाषितोनां प्रसंगानुरूप अवतरणो आपीने आ कथानकनी उपयोगितामां ग्रंथकारे सविशेष उमेरो को छे । आ सुभाषितो आध्यात्मिक अने व्यावहारिक उपदेशरूपे छ ।
उपर जणावेली उक्तिओ, लोकव्यवहारभाषा प्रयोगो अने शब्दो अभ्यासीओने उपयोगी छे तेथी तेनी अनुक्रमे नांध आपुं छु--
उक्तिओ--१. अन्धयष्टिन्याय पृ० ९५०1७. २. न सपे म्रियते न यष्टिर्भज्यते पृ० १२५० १८. ३. मनुष्य कूटस्य लकुटशुषिरस्य च पारो नास्ति पृ० १५ पं० १५, ४. हस्तो दग्ध: पृथुकोऽपि गतः पृ० १८ पं. १०, ५. सर्पजग्धानां रज्जुभयं भवति पृ० २१ पं. १, ६. सुवर्ण पुनः सुरभि पृ० २३ पं० ११. ७. इष्ट पुनद्योपदिष्टम् पृ० २३ १० १२, ८. घृतपूरं पुनस्तन्मध्ये घृतं क्षिप्तम् पृ०२३ ५.० १२, ९. एष स कपित्थो न हि यो वातेन पतति पृ०२८५० १५, १०. वृतिश्चिर्भटानि खादन्ती दृष्टा पृ०३२ ३, ११. तस्य पितुः किमपि याति ? पृ० ३२ ५०१४, १२. शिरस्या जन्म भन्नोऽस्ति पृ. ३३ ६० ७. १३. यो दत्ते स देवता पृ० ३३ ५० ९, १४. पुण्यं पाप च युवयोमेस्तके पृ० ३३ ५० १४, १५. कस्या १. आ ग्रंथ, ई.स. ११५३ मां सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित थयेलो छे अने तेनु सपादन में
कयु छे । २. विशेष हकीकतो मळवानो अवकाश होवा छतां. मारा कामना भारणने लीधे अहीं भलामण करीने
संतोष मानवो पड्यो छे।
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प्रस्तावेनी
अपि वार्ताया अवसान न गृद्यते पृ. ३३ पं. १९, १६. काकस्य ग्रीवायां रत्नावली न शोभते पृ० ३६ 4.०५, १७. बहुजीवितपाद् दर्शनं वरम् पृ० ३९ ५० ६, १८. रङ्कस्य गृहे रत्नं न तिष्ठति पृ० ५४ पं०४, १९. घांचटलितं योजनशत याति पृ० ५४ ६.० १२, २०. स्त्रीणां पाणिबुद्धिः पृ०५६ ५० १, २१. सुवणे श्यामता न स्यात् पृ० ५८ ५० १, २२. यदावयोर्दुःखमभूत् तद् वैरिणोऽपि मा भूत् पृ० ५९ ५.० ३, २३. सर्वोऽपि प्राणी प्रायः पर्वतोपरि प्रज्वलत् पश्यति, न पुन: स्वपदारधः पृ० ६५ ५० १, २४. कोलिकोम निजलालयैव वेष्टयते पु. ७० ५० २५, २५. यथा मणशतं तथा शुण्ठिग्रन्थिकोऽपि पृ० ७२ १०५, २६. यादृश वाद्यते तादृश नृत्यते पृ० ९२ पृ० १, २७. यादग् वायुर्वाति ताहगाश्रयो गृह्यते पृ. ९२५० १, ___ उपरनी उक्तिओ पैकीनी केटलीक वर्तमान समयमां पण प्रचलित छे, ते आ प्रमाणे--1. आंधळानी लाकडी (घडपणमां मददगार माटे). २. साप मरे नहीं अने लाकडी भांगे नहीं ४. हाथ पण बळयो अने पोंक पण बळी गयो, (जेनां बेवानां बगड्यां होय ते संबंधमां). ६. सोनामां सुगंध भळी. ७. भावतुं हतु अने वैद्ये का. १०. वाड चीभडां गळे. ११. अमां तेना बापर्नु कई जाय छे ? १२. आखो भव माथे भाग्यो छे. १४ सारु खोटु तमारे माथे. १५. कोइ वातनो अंत न लेवो. १६. कागडानी कोटे रतन न शोभे. १७. जीव्या करतां जोयु भलु. १८. रांकना घरे रतन न छाजे. ११. घांटो टळयु सो गाउ जाय-अण्णी चूकयो सो वर्ष जीवे. २० स्त्रीनी बुद्धि पानीओ. २१. सोनाने शांम-काळाश न अडे. २२. आवु दुःख तो दुश्मनने पण न हजो. २३. सौ कोई बीजानी खामी जुवे छे, पण पोताना पगमां बळतु कोई जोतु नथी.
आपणी प्रचलित उक्तिओनी अति प्राचीन समयथी प्रवाहिता छे ते उपरनी नेांध उपरथी जाणी शकाय छ.
लोकव्यवहारभाषाप्रयोगो-ततो वरः शृङ्गारित: परिणयनाय चटित:-वर परणवा चढयो पृ. २१ पं. २३, वरः पहुंकित:-वर पुंख्यो पृ० २२ ५० ११, दंष्ट्रा गलिता-दाढ गळी, लालच थई पृ० ३०५० ४, प्रातर्वार्ता-सवारे वात, सवारे जोयु जशे पृ० ३१ पं० १९ ।
शब्दो-अड्डाणक-अडाणु पृ० ६ ५० ५, पृ० ६६ ५० २६, अंबारी-अंबाडी पृ० ४५५०५, भारासण. पाषाण-आरासण पर्वतनो आरस पृ० ८१ ५० १, केहली-(?) कुई कियाळी पृ. १२ पं०.१७. गवालय-गवाळो दायजो पृ०६ ५० ४, घांच-घांटी पृ० ५४ पं० १२, जरद-कवचप्रकार पृ०४५ ५.७, जीणसाल-कवचप्रकार पृ० ४५५० ७, टलवलायते-टळवळे छे. पृ० ४७ पं० २४, टोप-टोप, शिरस्त्राण पृ. ४५ ५०७, तपासतत्पार्च, पृ० ७ पं० १८, धनिक-धणी, स्वामी पृ० ८ पं. ४, पृ० ३० पं० ५, पृ० ३१ पं० २३, धीरा-धीरज, धैर्य पृ. ४५ पं० २०, पुहुंकित-पुख्यो पृ० २१ पं० २३, बचक्कउ-बाचकुं, मुष्टि पृ०३० . २०, बुम्बा-बूम, राड पृ० ३४ १० १३, मंदिर-बंदर, वेलाकूल पृ० ८ ० १७ तथा २०, पृ० १५. १, रंगाउलि-कवचप्रकार पृ० ५५ ५० ७, लाहनक-लहाणुं पृ. ९३ ६. ४-५-२०
ग्रंथकार आचार्य श्री गुणसमुद्रसूरि, श्वेतांबर जैन परंपराना पूर्णिमागच्छना आचार्य श्री गुणसागरसूरिना शिष्य छ । तेमणे श्री संयमसिंहगणिना आग्रहथी प्रस्तुत कथानक वि.स. १४७४ मां रच्यु छ । आ हकीकत ग्रन्थना अंतमां जणावेली छे । पूर्णिमागच्छनी पट्टावलीमां श्री गुणसमुद्रसूरिनो से समयना पट्टधर आचार्य तरीके उल्लेख छ । श्री गुणसमुद्रसूरिना उपदेशथी बनावायेली अने तेमणे प्रतिष्ठित करेली जैन प्रतिमाओ कीनी पांच धातुप्रतिमाओनी नेांध, योगनिष्ट आचार्य भगवंत श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजीए संपादित करेला 'जैन धातुप्रतिमा. लेखसंग्रह' ना पहेला अने बीजा भागमा लेवाई छे, जुओ प्रथम भाग लेखांक १२५, ७३८ अने १०१७; तथा द्वितीय भाग लेखांक १३८ अने ३७७ । आ धातुप्रतिमाओ वि०स० १५०६, १५०७, १५.८ मा भने
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प्रस्तावनी
१५११ मा प्रतिष्ठित थयेली छे । आथी ग्रंथकारनो सत्तासमय विक्रमना पंदरमा शतकना उत्तरार्धथी १६ मा शतकना पूर्वर्धना समयना अतर्गत कही शकाय । - उक्त लेख संग्रहना प्रथम भागमा लेखांक १०१७ मां नेांधायेली श्री चन्द्रप्रभस्वामिनी धातुप्रतिमा, ग्रंथकारना उपदेशथी तिमिरपुर नगरमा हापाक नामना शेठे बनावरावी छे, अर्थात् ग्रंथकारना उपासकोमा हापाक नामना शेठ पण हता । आम छतां प्रस्तुत ग्रंथमां चित्तव्यामोहना निषेध माटे जे एक अतिकृपण शेठनुं कल्पित विनोद दृष्टांत आप्यु छे ते शेठनु नाम हापाक केम राख्यु हशे ? नाम तो ग्रंथकार बीतुं पण आपी शक्या होत !
संक्षिप्त कथासार
प्रारंभमां श्री वर्धमानस्वामि भगवानने नमस्कार करीने धर्मफल एवं पुण्यफलनु प्रतिपादन करवा माटे जिनदत्तकथानक रचवानी प्रतिज्ञा जणावी छ । जिनदत्तनी बाल्य-युवावस्था, लग्न अने द्यूतप्रसंग , अरिमर्दननृप शासित वसंतपुर नगरमां जीवदेव नामना शेठ वसे छे । तेमनी पत्नीनु नाम जिनश्री अने पुत्रन नाम जिनदत्त छ।
जिनदत्त नानी वयथी ज धर्मनिष्ठ सद्गुणी अने निरंतर साधुजनोनी सेवा करे छे । ने युवान थाय छे त्यारे तेनु, चंपापुरीनिवासी विमलशेठनी पुत्री विमलमतीनी साथे लग्न करावाय छे । जिनदत्त एकांत धर्मकार्यरत होवाथी सांसारिक बाबतोथी सर्वथा अलिप्त रहे छ । आथी घणी चिंता अने परामर्श करीने अन्य उपाय न सूझतां जिनदत्त सांसारिक भोग-विलास तरफ आकर्षाय' ए आशयथी जीवदेव शेठे जुगारी युवानोने सूचना करी के-मारा पुत्र जिनदत्तने तमे तमारा मंडलनो सभ्य बनावो । जुगारीओए युक्ति रचीने जिनदत्तने जुगार रमतो को।
जिनदत्तनुं देशाटन
एकदा जुगारमा बहु द्रव्य हारवाथी, जिनदत्तो लखेली चिट्ठी अनुसार ते द्रव्य, पिताना खजानचीए न मोकलाव्य । आ वात विमलमतीए जाणो तेथी तेणे पोतानो कीमती कंचुको अडाणे मूकावीने जिनदत्ते हारेखें द्रव्य भरपाई कराव्यु ।
जीवदेव शेठे द्रव्यव्ययना संबंधमां जिनदत्तने आश्वासन आप्यु छतां स्वमानी जिनदत्से द्रव्योपार्जन माटे पितार्नु घर छोडवानो निश्चय करीने, पोताना ससरानो बनावटी पत्र लखावीने, पोताना पिताजीने पहोंचाइयो । आथी जीवदेवशेठे जिनदत्त अने विमलमतीने चंपापुरी जवा माटे सूचना करी ।
__चंगपुरीमा पहेांच्या पछी सासराना त्यां वधारे रहेवु अनुचित मानीने, एक दिवस कोई न जाणे तेम जिनदत्तो देशाटन करवा माटे प्रयाण कयु ।
श्रीमतीपरिणयन
अज्ञात रीते चंपापुरीथी नीकळेलो जिनदत्त दशपुर नगरना बहारना प्रदेशमा एक सूकी वाडीमां आराम लेवा माटे सुई जाय छे । जिनदत्तना पुण्यप्रभावी सूकी बाडीने नवपल्लवित थएली जोईने माळीए पोताना औदत्त नामना शेठने समाचार आप्या । औदत्तशेठ वाडीमां आवीने जिनदत्तने पोताना घरे लई जाय छे । पोते अपुत्र होवाथी जिनदत्तने पुत्र तरीके राखे छे।
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प्रस्तावना
एक दिवस औदत्त शेठ, व्यापार करवा माटे सिंहलद्वीप जवानो निर्णय करे छे । तेनी साथे जिनदत्त जाय छे। अने सिंहलद्वीप पहांचे छे ।
आ दिवसोमा सिंहलद्वीपना राजा घनवाहननी श्रीमती नामनी पुत्रीने कर्मदेाषथी विचित्र व्याधि थयेलो छे, तेथी तेनी पासे रात्रीए सुनार माणसनुं मृत्यु थाय छे। आथी राजाए नगरमांथी वारा प्रमाणे प्रतिदिन एक माणसने राजकन्या पासे सुवानी आज्ञा करेली छे ।
सिंहलद्वीपमा पछांचीने नजीकमां एक जिनमंदिर जोतां, जिनदत्त एक माळीना घरे फूल लेवा माटे जाय छे । ते घरमां एक वृद्धाने रुदन करती जोईने जिनदतो तेने रोवानुं कारण पूछधुं त्यारे वृद्धाए कयुं के 'आज मारा पुत्रने, राजाज्ञाने अनुसरीने राजकन्या पासे रात्रे सुवा माटे जवानुं छे, अने त्यां तेनुं मृत्यु थशे, मारे - मात्र एक ज पुत्र छे' आ कारणथी हु रहुं छु' । 'तारा पुत्रना बदले हु जईश' एम कहीने जिनदत्ते वृद्धाने चिंतामुक्त करी ।
फूल लईने जिनमंदिरमां पूजा करीने जिनदत्त वृद्धाना घरे आवे छे । समय थतां आवेला राजपुरुषोनी साथे जिनदत्त राजकन्याना आवासमां जाय छे ।
'मारा कारणे आवा सुंदर पुरुष मृत्यु न थवु जोइए' ए आशयथी राजकुमारी, जिनदत्तने अन्य स्थळे जवा माटे सूचन करे छे । आम छतां जिनदत्त राजकुमारी साथे वार्तालाप करीने समय वीतावे छे । दरम्यानमां राजकुमारी निद्राधीन थाय छे ।
जिनदत्त, पूर्वना दिवसे मरेला माणसनुं मडदु लावीने तेने पोतानी पथारीमां वस्त्रथी ढांकीने सुवाडे छे, अने पोते सावधान थईने हाथमां खड्ग राखीने छुपाय छे । थोडा समय पछी राजकन्याना मुखमांथी धीमे धीमे नीकळीने एक मोटो सर्प, पथारीमा खुवाडेला मृतकने डसीने फरी पाछो राजकन्याना मुखमां जवानी तैयारी करतो हतो ते समये जिनदत्ते सर्पने पडकार्यो । आथी सर्प जिनदत्तनी तरफ आवतो हतो ते वखते ज जिनदत्ते चपळताथी पूंछडी पकडीने तेने बहु बळ अने वेगथी खूब ज घूमाध्यो जेथी सर्पना गळामां आंतरडां आ गयां अने ते निर्बल थई गयो । आथी दयावश जिनदो तेने नानी कूईमां नांखी दीधा ।
वहेली सवारे जागेली राजकुमारीए जिनदत्तने का - कुमार ! एक तो मारु पेट बिलकुल हळवु थयुं छे अने बीजुं तु जीवे छे, आ बे वातथी मने खूब ज आश्चर्य थयुं छे, तो आनुं कारण जणाव । जिनदो रात्रीनी हकीकत जणाव्या पछी राजकुमारीए जिनदत्तनी साथे लग्न करवानो निश्चय कर्यो ।
नियम प्रमाणे सवारे मृतक लेवा आवनार माणसे जिनदत्त अने राजकन्याने शतरंज रमतां जोईने 'गत रात्रीनो प्राहरिक जीवे छे' एवी वधामणी राजाने आपी । राजाए तेने इनाममां सोनानी जीभ आपी ।
राणी अने प्रधानोनी साथे आवीने राजाए श्रीमतीने खोळामां लईने जाण । त्यार पछी प्रधानोनी साथ परामर्श करीने श्रीमती अने जिनदत्तनुं अने धन श्रीमतीने दायजामां आप्यु । जिनदत्त त्यां आनंदथी रहे छे ।
तेनी पासेथी रात्रीनी सर्व हकीकत लग्न करावी राजाए घणी सामग्री
अन्यदा औदत्त शेठे व्यापारनुं काम पूर्ण करीने स्वदेश जवानी तैयारीनी जाण जिनदत्तने करी । राजानी अनुमति मेळवी श्रीमतीने साधे लईने, जिनदो औदत्त शेठनी साथै स्वदेश जवा माटे प्रयाण कर्यु
ज्यारे समुद्रमां अर्धा मार्गे वहाण पहोंच्यु त्यारे श्रीमतीना रूप तथा विपुल द्रव्यने जोईने रागांध तथा लोभां औदत्त शेठे, मध्य रात्रीना समये कपटथी जिनदत्तने समुद्रमां फेंकी दीधे ।
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प्रस्तावना
पोताना पतिने समुद्रमां पडेलो जाणीने विलाप करती श्रीमतीए औदत्त शेठने वा तात ! पुत्रने समुद्रमा छोडीने कथां जशा ? वहाणने केम थोभावता नथी ? औदत्त शेठे जणान्यु के जिनदत्त मारो पुत्र नथी, पण नोकर छे, हवे तुं मारी गृहस्वामिनी था । आथी श्रीमतीए पोताना शीलधर्मनी आण आपीने वहाणने हूववा माटे शाप आप्यो, तेथी वहाण डोलवा मांडयुं । भयभीत थयेला औदत्त शेठे पाताना दुष्कृत्य बदल श्रीमतीनी क्षमा मागी अने वहाणमां बेठेला सर्व माणसोनी विनंतिथी श्रीमतीए वहाणने स्पर्श करीने डूबतु बचाव्यं ।
अन्यदा वायुवेगे चालतु वहाण कोईक द्वीप आगळ पच्यु । त्यां पोतानो सर्व सामान लईने श्रीमती जुदी पडी, अने औदत्त शेठ पोताना नगर तरफ रवाना थयो ।
सिंहलद्वीपमां श्रीमतीनी समक्ष जिनदत्ते पोतानो पूर्व वृत्तान्त कद्देलो तेनुं स्मरण थतां श्रीमती, विमलमतोनी पासे रहेवा माटे चंगनगरी गई । सौ प्रथम जिनमंदिरमां दर्शन करवा गयेली श्रीमतीए जिनदत्तनुं नाम बोलीने पण पुनः वंदन कर्यु । आथी त्यां आवेली विमलमतीए जिनदत्तनुं नाम सांभळीने श्रीमतीने पूछ्थुं–बहेन तु' कोनुं नाम बोली ? श्रीमतीए पोतानो सपूर्ण वृत्तांत जणावीने विमलमतीनो परीचय पूछतां विभलमतीए जणाव्यु के तु जेने मळवा आवी छे ते हु पोते ज छु ।
श्रीमती अने विमलमती, विमलशेठना त्यां रहे छे । धर्मक्रिया एवं साध्वीजी पासे धर्मश्रवण करतां बन्नेए दीक्षा लेवानो विचार कर्यो त्यारे विमलशेठे बार वर्ष सुधी प्रतीक्षा करवा जणाव्यु
विद्याधरीपरिणयन
समुद्रपतन पछी जिनदत्तने एक काष्ठ हाथमां आवे छे तेना आधारे ते समुद्र तरी रहयो छे । आ समयमा रत्नपुरीना विद्याधर नामना राजा अने अशोकश्री नामनी राणीनी विद्याधरी नामनी युवान पुत्री, 'जे कोई पुरुष समुद्र तरीने बहार आवे तेने ज परणु, अन्यथा नहीं' आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करे छे । आथी राजाए पोताना अनुचरोने सतत तपास करवा माटे समुदना कांठा उपर राख्या छे ।
एक दिवसे काष्ठना आधारे तरतो तरतो जिनदत्त समुद्रनाकांठा से पांच्यो ज्यां विद्याधर राजाना अनुचरो हाजर हता । राजपुरुषोए जिनदत्तने आदर पूर्वक बोलावीने, साथै लईने, राजाने वधामणी आपी । विद्याधर राजाए, महोत्सव पूर्वक जिनदत्तने बोलावीने, विनयादि गुणोथी तेनुं कुलीनत्व जाणीने, राजकुमारीने जणाव्यु के-तारी प्रतिज्ञा आज पूर्ण थाय छे। राजकुमारीए पण जिनदत्तने जोईने, तेनी साथ लग्न करवानो पोतानो निर्णय जणाव्यो ।
'मारा पिता इच्छित वस्तु मागवानुं जणावे ते समये हाथी-घोडा वगेरे पैकी कंइ मागवु नहीं, पण तेमनी पासे १६ विद्याओ अने मनश्चितित विमान छे तेनी मागणी करवी', आ प्रमाणे चौरीमां बेठेली राजकुमारीए गुप्त रीते जिनदत्तने संकेत कर्यो । थोडा समय पछी कन्याना पिता विद्याधर राजाए जिनदत्तने क - जे इच्छा होय ते माग़ो । जिनदत्ते १६ विद्याओ अने मनश्चितित विमाननी मागणी करी । " मारी पुत्रीए ज आ हकीकत जिनदत्तने जणावेली होवी जोईए, वळी जिनदत्त योग्य अधिकारी पण छे' एम विद्याधर राजाए जिनदत्तने १६ विद्याओ, मनश्चितितविमान अने घणी वस्तुओ दायजामां पण आपी ।
विचारीने
वामनरूपधारी जिनदन्तनी विविध चर्या
रत्नपुरीमां आनंद-प्रमोदथी जिन्सदना दिवसो पसार थता हता । एक दिवस जिनदत्तने पोतानी प्रथम पत्नी विमलमती याद आवी । आथी चिंतातुर जिनदत्तने विद्याधरीए चिंतानुं कारण पूछतां जिनदसे साची
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प्रस्तावना
हकीकत जणावी । त्यार पछी विद्याधरीनी प्रेरणाथी मनश्चितित विमानमां बेसीने जिनदन अने विद्याधरी, रात्रीना समये चंपापुरीना बहार उद्यानमां ऊतर्या । प्रथम जिनदत्ते अल्प समय निद्रा लोधी, त्यार पछी विद्याधरीने निद्रा लेवा जणाव्यं । ज्यारे कुमारी निद्राधीन थई त्यारे रूप परावर्तन करीने जिनदत्ते संताईने विद्याधरीनी रक्षा करी । प्रभात थया पद्देलां जिनदतो विद्याबलथी पोतानुं वामनस्वरूप बनायुं । अने ते विविध आश्चर्यकारक विनोदथी चंपापुरीना नागरिको तथा राजसभाने प्रतिदिन रंजित करतो हतो ।
अहीं जागेली विद्याधरीए जिनदत्तने न जोवाथी विलाप कर्यो । छेवटे ते जिनमंदिरमां गई । त्यां प जिनदननुं नाम बोलीने विलाप करती हती ते समये त्यां आवेला विमलशेठे जिनदत्तनुं नाम सांभळीने, विद्याधरीने आश्वासन आप्यु तथा पोताना घरे लई गया । त्यां विमलमती, श्रीमती अने विद्याधरी धर्मध्यानादि करे छे ।
वामनरूपधारी जिनदत्त विविध कौतुकोथी राजाने रंजित करीने प्रतिदिन मोटा मोटां इनामो मेळवे छे, अने ते दीन दुःखी जनोने आपे छे आथी रोजनी विपुल धनहानिधी चिंतित थयेला प्रधानोए राजा द्वारा जिनदत्तने सूचन कराव्यु के-तें समग्र नगरने कौतुकोथी रंजित कर्यु, पण जो तु विमलशेठना त्यां रहेती पतिवियोगिनी अने कोई पण पुरुषनी साथे वार्तालाप नहीं करती ऋण स्त्रीओनी साथे वार्तालाप करे तो तारी कला अने बुद्धिबल खरु कद्देवाय ।
एक दिवस समग्र राजसभानी साथे वामनरूपधारी जिनदत्त, विमल शेठना त्यां जे स्थळे उक्त त्रणेय स्त्रीओ धर्मध्यान करे छे त्यां गयो अने तेणे प्रथम विमलमतीने उद्देशीने क्युं तुं मारी साथे केम बोलती नथी ? आम जणावीने वामने विमलमती साथेनेा पोतानो समग्र वृत्तांत जणान्यो । तरत ज विमलमतीए पूछ-पछी ते जिनदत्त कथां गयो ? जिनदो -ते आवती काले कहोश ।
बीजे दिवसे वामने श्रीमतीने बोलावीने तेनी साथेनो पोतानो वृत्तान्त जणाव्यो त्यारे श्रीमतीए पूछयुं - समुद्रमां पडया पछी जिनदत्त क्यां गयो ? तेने पण जिनदो जणाव्यु के-ते आवती काले कहीश ।
बीजे दिवसे विद्याधरीने बोलावीने तेनी साथेनो पोतानो वृत्तान्त जणाव्यो । आधी विद्याधरीए विमलमतीने क- आ जिनदत्त जछे, अने त्रिद्याबलथी ते वामन थयेलो छे । आ वातनी श्रीमतीए पण पुष्टि आपी । आम छतां विमलमतीए विद्याधरीने निषेधीने, वामनने रोषपूर्वक कयुं ते सर्व लोकोने ठग्या छे, पण हु ताराथी गाउ' तेवी नथी तथा हापाशेठनी पत्नीओनी जेम अपकीर्ति वहोरु एवी पण नथी, हु तो कोई केवलज्ञानी कहे तो ज तने जिनदत्त मानुं । आम जणावाने श्रीमतीनी विनंतिथी हापाशेठनुं दृष्टांत कहे छे
“जितशत्रुनृपशासित प्रतिष्ठानपुरमा हापा नामनो शेठ रद्दे छे । ते करोडपती होवा छतां महाकृपण छे । तेने सुंदर रूपवाळी बे पत्नीओ छे । हापो शेठ सारु खावा- पीवा, पद्देखा-ओढवा पण आपे नहीं आथी तेनी पत्नीओ केदखाना जेवो अनुभव करती हती ।
"अन्यदा विशेष धनोपार्जन करवा माटे हापो शेठ दूर देशांतर गयो हतो ते समये एकादा फरतो फरतो एक धूर्त तेना घर आगळ आव्यो । तेणे उचे जोईने घर जोयुं अने कोईक पुरुषने पूछ-आ कोनुं घर छे ? जवाबमां पेला पुरुषे जणाव्युं-जेनुं नाम पण सवारे न लेवाय एवा कृपणनुं आ घर छे, विपुल द्रव्यव्ययथी बने आ सुदर घर तो तेना पूर्वज पुरुषे करावेलु छे, वर्तमान गृहस्वामी तो तेना वंशरूप हीरानी खांणमां कांकरा जेवो पाक्यो छे ।
"त्यार पछी घरना बारणा पासे जईने धूर्ते घरना अंदर दृष्टिपात कये तो जीर्ण-शीर्णवस्त्रधारी बे सुंदर स्त्रीओ जोई अने नसो देखाय तेवां नोकरोनां शरीर जोयां ।
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प्रस्तावना
" 'जो कोई देवनी सहाय मळे तो हुँ घरना स्वामिनी गेरहाजरीमां घरनो धणी थई शकु' एम विचारीने धूते ते नगरमां आवेला साक्षात् सहाय करनार यक्षना मंदिरमा ण लांघण करीने, यक्षने प्रत्यक्ष कर्यो । यक्षे कह्य-शा माटे लांघण करे छे ? धूर्ते कह्यु-मने हापाशेठना जेवा ज रूपवाळो करो। यक्षे कह्यु-हु आवं अनुचित कार्य नहीं करु', मारा मंदिरमांथी नीकळी जा ।
'पुनः धूर्ते चार लांघण करी त्यारे यक्षे विचार्यु के-जो आ धूर्त लांघणो करीने मरी जशे तो मारी पूजा-मान्यता कोई नहीं करे, अने मारुं स्थान निष्फल थशे । आम विचारीने यक्षे धूर्तनुं हापाशेठना जेवू रूप बनाव्यु ।
" हवे धूर्त, हापाशेठना घरे गयो त्यारे नोकरोए अने बन्ने शेठाणीओए आगन्तुकने हापाशेठ मानीने तेने विनय पूर्वक आवकार आप्यो ।
"गृहस्वामी बनेला धूत हापाशेठे नोकरो, मुनिम अने बे शेठाणीओनी समक्ष जणाव्यु के-मने देशांतरमां मुनिए दान अने भोग माटे लक्ष्मीनो उपयोग करवानो उपदेश आप्यो तेथी अने एक मोटा श्रीमंतने समुद्रमा वहाण साथे डूबेलो सांभळोने में संकल्प कर्या के 'जो हु सुखरूप घरे पहचु तो मारु अने अन्यनु वांछित पूरीश'।
"त्यार पछी बन्ने स्त्रीओने सुंदर आभूषण अने वस्त्रो पहेराव्यां, नोकरोने पण घणी सामग्री आपीने धूर्त हापाशेठ प्रतिदिन सुंदर भोजन वगेरेने। उपभोग करे छे । उपरांत दानशाला वगेरे द्वारा अनेक जनोने दान आपे छे, धार्मिक कार्यामां पण द्रव्यव्यय करे छे अने बन्ने स्त्रीओ साथे आनंदप्रमोदथी विलसे छे ।
"केटलाक दिवसो पछी असल हापो शेठ परदेशथी रात्रीना समये पोताना घरे आवे छे त्यारे पहेरेगिरे कधु-शेठ तो घरमां छे, तु धूत छे । आथी आखी रात बहार हीने प्रभाते असल हापाशेठे घरमां जोयु तो पोताना जेवीज आकृतिवाळो पुरुष हिंडोळा उपर बेठेलो हतो। आथी अत्यंत व्यथित थईने असल हापाशेठे राजानी समक्ष फरियाद करी ।
"राजाए धूत हापाशेठने बोलाव्यो । बन्नेनी आकृति संपूर्ण मळती जोईने निर्णय करवो अशक्य जाणीने राजा अने प्रधानोए एकमत थईने 'हापाशेठनी पत्नोओ जेने स्वीकारे ते साचो हापाशेठ' एम निर्णय करीने बन्ने शेठाणीओने राजसभामा बोलावी । घरमांथी नीकळीने मार्गमा बन्ने शेवाणीओए निर्णय कये के-असल शेठ तो जेणे फरियाद करी छे ते छे, पण एवा कृपणनी साथे जीवीने भव बाळवा करतां नवा हापाशेठने ज स्वीकारखो । राजसभामां आवीने बन्ने शेठाणीओए धूत हापाशेठने पति तरीके स्वीकार्यो । आथी विलाप करता असल हापाशेठने धक्का मारीने बहार काढवामां आवे छे । आ जोईने धूर्त हापाशेठने अत्यन्त दया आवे छे अने ते पुनः राजानी समक्ष आवी, अभय मागीने, पोतानी धूर्तता प्रकट करी असल हापाशेठने साचो ठरावे छे । आथी बन्ने स्त्रीओनी अत्यन्त अपकीर्ति थाय छे ।
"धूते जतां जतां असल हापाशेठने कह्य-हवेथी दान आपजे, भोगवजे, छता वैभवे वधारे संचय करीश नहीं, छतां पण जो सचय करीश तो हे हापा ! हुं फरी पाछो आवीश' । ___ आ दृष्टांत सांभळीने सौ कोई विमलमतीनी प्रशंसा करे छे ।
आ समयमा राजाना मदोन्मत्त हाथीए आलानस्तभ तोडीने समग्र नगरमां हाहाकार मचाव्यो छे । ज्यारे कोईथी पण हाथो काबूमां न आव्यो त्यारे राजाए जाहेर कराव्यु के-जे कोई आ हाथीने वश करशे तेने राजा अधु राज्य अने मदनमंजरी नामनी राजकन्या आपशे । ज्यारे आ काम करवा कोई पण तैयार न थयु त्यारे वामनरूपधारी जिनदत्ते ते स्वीकारीने युक्ति-प्रयुक्ति आदिथी हाथीने वश को ।
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कुरूप वामननी साथे मदनमंजरी केम परणावी शकाय ? आ चिंताथी, वामननी मागणी छतां राजा कोईने कोई बहाने दिवसो वितावे छे ।
प्रस्तावना
जिनदत्तनुं मूलस्वरूपे प्रकट थवु अने मदनमंजरीपरिणयन
केटलाक दिवस पछी चंपापुरीना बहार उद्यानमां आवेला केवलज्ञानी भगवाननी देशनाना अंते राजाना पूछवाथी केवली भगवाने जणाव्युं के वामन ए ज जिनदत्त छे । आ पछी राजा अने पोतानी त्रण पत्नीओनी विनंतिथी जिनदत्ते पोतानुं मूल रूप प्रकट कर्यु अने सौ आनंदित थयां ।
चंपानरेशे पुत्री मदनमंजरीने जिनदत्तनी साथे परणावीने, पोते अपुत्र होवाथी समग्र राज्य जिनदत्तने आपीने श्री गुणाकरसूरिनी पासे दीक्षा लीधी ।
जिनदत्त पोतानी चार पत्नीओ साथे चंपानगरीमां आनंद-प्रमोदथी राज्यसुख भोगवे छे, विमलमती, श्रीमती अने विद्याधरीने जे परिताप थयो तेनुं शास्त्रीय समाधान करे छे । आम तेमना दिवसो सुखमां पसार थाय छे । जिनदत्तनुं वसंतपुरगमन
एक दिवस माता - पितानुं स्मरण थतां पोताना सैन्य अने परिवारनी साथे जिनदहो वसंतपुर तरफ प्रयाण कर्यु । मार्गमां अनेक राजाओ वगेरेनी भेट-सोगाद लेतो लेतो जिनदत्त वसंतपुर नजीक पांच्यो ।
वसंतपुरना अरिमर्दन राजाए विचायु के मोटा सैन्य साथे कोई राजा चढी आव्यो छे । आथी पोतानी अल्पक्षमताने लीधे तेणे नगरनां द्वार बंध करावीने रहन- सुवर्णनुं भेटणु आपीने प्रधानोने जिनदत्त राजानी पासे मोकल्या । अरिमर्दन राजाना सात्त्विक गुणनी परीक्षा करवाना आशयथी जिनदो प्रधानोने सूचव्यु - 'मारे कोई भेट - सोगाव लेवी नथी, पण नगरमां वसता जीवदेव शेठ अने तेमनी पत्नीने बांधीने मने सांपी दो तो ज तमने जता करु, नहीं तो युद्ध माटे तैयार थाओ' ।
प्रधानो द्वारा जिनदत्तनी मागणी जाण्या पछी विस्तारथी चर्चा - विचारणा करीने अरिमर्दन राजाए ते मागणी न स्वीकारी अने नगरनां द्वार बंध करावी दीघां ।
'पोताना कारणे नगरजनो, राजा अने समग्र राज्यने कष्ट थशे' एम विचारीने, पोतानी पत्नी साथे जीवदेव शेठ, कोई न जाणे तेवी रीते नगरमांथी नोकळीने जिनदत्तनी समक्ष उपस्थित थाय छे ।
जीवदेव शेठ द्वारा ' ते राजाज्ञाथी नहीं पण गुप्त रीते स्वयं अरिमर्दन राजाना सत्त्वगुणथी प्रभावित थाय छे। लांबी चर्चा अने समक्ष पोतानी पुत्र रूपे ओळख आपीने तेमना पगमां पडे छे ।
आव्या छे' आ हकीकत जाणीने जिनदत्त, वार्तालापना अंते जिनदत्त, माता-पितानी
वियोगना दिवसोनी वीतक कथा माता-पिता द्वारा जाणीने जिनदत्त तेमने आश्वासन आपे छे । प्रसंगोपात्त जीवदेव शेठे वृद्धत्वनो निर्देश करीने पोतानी संयम लेवानी इच्छा जणावी त्यारे जिनदो तेमने साथे रहेवा माटे विनयपूर्वक विनंति करी अने जीवदेव शेठे ते स्वीकारी ।
ज्यारे राजपुरुषो द्वारा अरिमर्दन राजा बधी हकीकत जाणीने जिनदत्तने मळवा आवे छे त्यारे जिनदव सम्मुख जईने तेमने आदरपूर्वक पोतानी पासे बेसाडे छे अने विस्तारथी वार्तालाप करे छे ।
जिनदहो सम्मुख उपस्थित जनसमूहमां बेठेला जुगारीओ द्वारा गीरो मुकावेलो रत्नकंचुक मंगावीने विमलमतीने आप्यो ।
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प्रस्तावना
सौभाग्यलतापरिणयन
पोतानुं वृद्धत्व अने अपुत्रत्व विचारीने अरिमर्दन गजाए, राज्य सहित पोतानी सौभाग्यलता नामनी पुत्र'नो स्वकार करवा जिनदत्तने समजावीने, सुमुहर्ते सौभाग्यलतानु लग्न जिनदत्तनी साथे करावीने समग्र राज्य जिनदत्तने सेप्यु।
बीजा दिवसे प्रभातमां उद्यानपालके अरिमर्दन राजाने जणाव्यु'--नगर बहारना उद्यानमां श्री धर्मघोषसूरि नामना गुरु पधार्या छ । आथी उद्यानपालकने आजीवन निर्वाह योग्य दान आपीने, अरिमर्दन, जिनदत्त अने नगरजनोनी साथ उद्यानमा गुरु महाराजनी पसे जाय छे । गुरुनो उपदेश सांभळीने अरिमर्दन राजा, जीवराज शेठ अने जिनश्री शेठाणीए दीक्षा लीधी तथा जिनदत्त राजाए गृहस्थधर्मनां बार व्रत अंगीकर्या ।
जिनदत्ते वर्मतपुर नगरमां बहोतेर देवकुलिकाथी शोभायमान अने एकसो आठ मंडपवाळु राजविहार नामर्नु विशाल जिनमंदिर बनाव्यु (अही जिनमंदिरनु अने विविध प्रकारे जिनपूजाफलनुं विस्तारथी वर्णन छे), तथा शास्त्रग्रंथो लखावीने ज्ञानभंडारन निर्माण कयु । (अहीं शास्त्रग्रंथो लखाववा, श्री संघभक्ति, सप्तक्षेत्रद्रव्यव्यय वगेरे वगेरे जिनदत्तनां धर्मकृत्यो जणाव्यां छे) ।
केवलज्ञानप्राप्ति
अन्यदा विचरता विचरता अरिमर्दनमुनि, जीवदेव मुनि वगेरे महर्षिओ वसंतपुरमा आवीने अल्प समय रही अन्यत्र विहार करे छे । केटलाक समय पछी 'उक्त मुनिओ अनशनव्रत लईने दिवंगत थया' आवा समाचार कोई प्रवासीए जिनदत्तने कह्या । आ सांभळीने जिनदत्तराजाए, प्रधानोनी समक्ष पोतानो दीक्षा लेबानो निर्णय जणाव्यो । (अहीं प्रधानकथित युक्तिपूर्वक दीक्षाग्रहणनिषेधनुं अने जिनदत्तकथित दीक्षाग्रहणविषयक शास्त्रीय विधानद् विस्तारथी वर्णन छे) । छेवटे स्वय प्रव्रजित थवा माटे जिनदत्तराजा महेलमाथी बहार नीकळे छे, पाछळ परिवार, प्रधानो अने नगरजना छ । आगळ चालतां पोते बनावेला जिनमंदिरमां देववंदन करवा माटे जिनदत्तराजा जाय छे । देववंदन करता करतां, वीतरागत्वनी भावना भावतां भावतां तथाप्रकारना शुभाध्यवसायनी परंपरखुद्धिथा जिनदत्तने जिनमंदिरमा ज केवलज्ञान थाय छे । देवताओए मुनिवेष आप्या पछी श्री जिनदत्तकेवलोए धर्मदेशना आपी।
जिनदत्तना पूर्वभवनी कथा
धम देशनानी समाप्ति पछी 'आपना पूर्वभवन स्वरूप जणाववा कृपा करो' आ प्रकारनी सभाजनोनी विनंतिथी श्री जिनदत्तकेवलीए नीचे प्रमाणे तेमनो पूर्वभव कह्यो--
दक्षिणार्ध भरतना अवंती देशमा उदायननृपे वसावेल विक्रमवर्मनृपशासित दशपुर नामर्नु नगर छे । ते नगरमा शिवधन नामने। वणिक रहे छे, तेने यशोमती नामनी पत्नी अने शिवदेव नामनो पुत्र छ ।
एकदा शिरोवेदनाथी शिवधननु मृत्यु थाय छे । समयान्तरे संपत्ति पण क्षीण थवाथी पुत्र शिवदेवने साथे लईने यशोमती उज्जयिनी नगरीमा एक सारा गृहस्थना त्यां घरकाम करवा माटे रहे छे, अने शिवदेव, ते गृहस्थनां पशुओ चराववाचें काम करे छ।
आ रीते समय जतां एक दिवस वगडामां एक तपस्वी मुनिने जोईने, शिवदेव, वंदन करीने तेमनी सेवा करे छे । आ रीते केटलाक दिवस व्यतीत थया पछी माघीपूर्णिमाना तहेवारना दिवसे अन्यान्य स्त्रीओए यशोमतीना घरे विविध खाद्य वानगीओ आपी । ज्यारे शिवदेव जमवा माटे तैयारी करे छे त्यारे त्यां आहार
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प्रस्तावनी
लेवा माटे तपस्वी मुनि आवे छे । भक्तिभावथी रोमांचित थईने शिवदेव, मुनिने आहारदान करे छे । ते वखते खाद्य बानगीओ आपवा आवेली पांच कन्याओए शिवदेवनी भक्तिनी अनुमोदना करी । त्यार पछी शिवदेवे प्रसन्न मनथी भोजन कर्यु ।
अनुक्रमे सारी भावनावाळा विचारोथी आयुष्य पूर्ण करीने शिवदेव जिनदत्तरूपे जन्म्यो अने जे पांच कन्याओए मुनिदाननी अनुमोदना करी हती ते पांचे बीजा भवमा जिनदत्तनी पत्नीओ थई ।
विमलमतो आदिनी दीक्षा तथा जिनदत्तकेवलीनु मोक्षगमन
उपर जणावेल श्री जिनदत्तकेवलिकथित पूर्वभवकथा सांभळाने विमलमती आदि पांचे राणोओने जातिस्मरण ज्ञान थयु अने ते पांचेए दीक्षा लीधी।
श्री जिनदत्तकेवली दीर्घ समय सुधी महीमडलमा विचरीने, अनेक जनोने धर्मबोध आपीने अते मोक्षे गया।
जिनदत्तराजाए दीक्षा लीधा पछी प्रधानोए तेमना पुत्र विमलबुद्धि कुमारने। राज्याभिषेक को अने ते कल्याणकर सुखोने भोगवे छ ।
ग्रन्थकारनी प्रशस्ति
पूर्णिमापक्षना पट्टधर आचार्य श्री गुणसागरसूरिना शिष्ये संवत १४७१ मां संक्षेपथी रचेली, अद्भुत पुण्यप्रभाववाळी अने सांभळवामां अमृत समान, आ जिनदत्त राजानी कथाने, हे भव्यजनो ! तमे कल्याण माटे दीर्घ समय सुधी सांभळजो ॥१
संयमसिंह नामना गणिना आग्रहथी श्री गुणसमुद्रसूरिए साधारण जनो उपर अनुग्रहबुद्धिथी रचेली आ कथा दीर्घ समय सुधी जय पामो ॥ २
अक्षयतृतीया, सं० २०३४ ता. १०-५-१९७८
अमृतलाल मोहनलाल भोजक
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विषयानुक्रमः
मङ्गलम् वसन्तपुर-अरिमर्दननृप-जीवदेवश्रेष्ठि-जिनश्रीश्रेष्ठिनी-जिनदत्तानां परिचयः जिनदत्त-विमलमत्योः पाणिग्रहण जिनदत्तस्य विषयविरागश्च संसारप्रवृत्तिविषये पित्रादेरूपदेशानन्तरमपि जिनदत्तस्य धर्मप्रवृत्तिस्थैर्यम् पितृसङ्केतितद्युतकारैः सह गुतरमणे जिनदत्तस्य द्रव्यहानिः हारितद्रव्यलज्जया विमलमतिं तत्पितृगृहे मुक्त्वा जिनदत्तस्य प्रच्छन्नं विदेशगमनम् दशपुरवास्तव्यऔदत्तप्रेष्ठिगृहे जिनदत्तस्य प्रतिपन्नपुत्रत्वेनावस्थानम्, औदत्तप्रेष्ठिना सह सिंहलद्वीपगमनं च ८-९ सिंहलद्वीपगतस्य जिनदत्त:य मालाकारीपुत्रस्थाने श्रीमतीनाम्न्या राजकन्याया; प्राहरिकत्वेन गमनम्, जिनदनकृतश्रीमत्युदरगतसर्पनिग्रहेण श्रीमतीराजकन्याया व्याध्यपगमः, जिनदत्त-श्रीमत्योः पाणिग्रहणं च ९-१३ श्रीमतीसहितस्य जिनदत्तस्यौदत्तत्रेष्ठिना सह स्वदेशगमनप्रस्थानम्
१३-१५ श्रीमतीरूपमुग्धौदत्तोष्ठिकृत: समुद्रे जिनदत्तप्रक्षेपः, श्रीमतीविलापः, श्रीमतीशीलप्रभावभीतस्यौरतश्रेष्ठिन: श्रीमती प्रति क्षमायाचना च
१५--१७ औदत्तभोष्ठिसार्थपृथग्भूतायाश्चम्पानगर्यागतायाः श्रीमत्या विमलमत्या सहावस्थानम्
१८-१९ उत्तीर्णसमुद्रस्य जिनदत्तस्य विद्याधरराजपुत्र्या विद्याधरीनाम्न्या सह पाणिग्रहणं विविधविद्याग्रहणं च १९-२३ जिनदत्तकृतं चम्पानगर्या विद्याधरीपत्नोपरिहरणम्, वामनरूपविकृर्वणं च
२४-२५ विद्याधर्याः परिदेवनम्, विमलमती श्रीमती-विद्याधरीणां सहावस्थानम्, तपश्चर्यादिधर्मकरणं च २५-२६ वामनरूपधारिजिनदत्तकृतो मौनावलम्बिनिजपत्नीत्रयवार्तालापेन सर्वजनचमत्कारः
२६-२८ विमलमतीकथितं चित्तव्यामोहनिषेधे हापाकोष्ठयदाहरणम्
२८-३३ जिनदत्तकृतं मदोन्मचहस्तिवशीकरणम्, प्रतिज्ञाबद्धचम्पानरेशस्य वामनरूपधारिणे जिनदत्ताय निजकन्यादानविषये चिन्ता च
३४-३७ केवलज्ञानिकथित जिनदत्तस्य वामनस्वरूपकरणम्, कृतस्वाभाविकरूपस्य जिनदत्तस्य निजभार्यात्रयेण मेलापकश्च ३७-३९ निजपुत्रीमदनमजरी-जिनदत्तपरिणयनपूर्वकं चम्पानरेशस्य जिनदत्ताय निजराज्यसमर्पणं वीक्षाग्रहण च ३९-१० जिनदत्तराज्यद्धिमुद्दिश्य लोकानां वर्णवाद:
४०-११ निजपत्नीभिः सह बिरहदु:खानुभववार्तायां जिनदत्तस्य कमेदियफलनिवेदक वक्तव्यम्
४१-४३ जननी-जनकस्मरणाद् जिनदत्तस्य वसन्तपुरं प्रति प्रस्थानम्
४४-१६ जिनदत्तसैन्यभीतवसन्तपुरनरेशारिमर्दनप्रेषितढौकनादेजिनदत्तकृतो निषेधः । अरिमर्दनसत्वगुणपरीक्षणार्थ जिनदत्तकृतायाश्च सपत्नीकजीवदेवशोष्ठिसमर्पणाज्ञाया अरिमर्दननरेशस्याननुपालनम्
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विषयानुक्रमः
निजनृप-नगरादिरक्षार्थ सपत्नीकस्य जीवदेवश्रेष्ठिनो जिनदत्तसमक्षमात्मसमर्पणम्
५०-५३ जिनदत्त-तज्जननी-जनकमेलापकस्य विस्तरतो वर्णनम्
५३-५७ जिननी-जनक-जिनदत्तानां परस्परवृत्तान्तनिवेदको वार्तालाप:
५७-६२ ज्ञातवृत्तान्तस्यारिमदननृपस्य जिनदत्तेन सह मिलनं परस्पर वार्तालापश्च
६२-६६ जिनदत्तकृतगतकाररक्षादिवर्णनम्
६६-६७ निजपुत्रीसौग्यलता-२ जिनदत्तयोः पाणिग्रहणानन्तरमरिमर्दननृपस्य जिनदत्ताय निजराज्यदानम् [अत्र परिग्रहत्यागोपदेश: ७१ पत्रे]
६७-७३ धर्मघोषमुनिदेशनाश्रवणानन्तरमरिमद ननृप-जीवदेवश्रेष्ठि-जिनश्रीधेष्ठिनीनां दीक्षाग्रहणम्, धर्मघोषमुनेश्च द्वादशभावनादिप्ररूपक: विस्तरतो धर्मोपदेशः
७३-८० जिनदत्तनृपस्य धर्मप्रवृत्तिः
८-८४ जिनदत्तनिर्मापितजिनमन्दिरवर्णनम्
८०-८१ जिनदत्तकृतद्रव्य पूजा ज्ञानभाण्डागारनिर्मापण-श्रीसङ्घभक्ति-उभयकालावश्यकक्रियादीनां विस्तरत उपदेशात्मक वर्णनम्
८१-८३ अरिमर्द नमुन्यादीनां वसन्तपुरागमनं ततो विहरण च
८३-८४ अरिमर्दन-जीवदेवादिमुनिदेहावसानश्रवणानन्तर दीक्षाग्रहणनिश्चितमनसो जिनदत्तनृपस्य दीक्षाग्रहणनिषेधप्ररूपकस्य तदमात्यस्य च विस्तरतो संवादः
८४-८९ प्रवजितुकामस्य जिनभवनस्थितस्य जिनदत्तानृपस्य केवलज्ञानावाप्तिः, जिनदत्तकेवलिनो धर्मदेशना च ८९-९१ जिनदत्त केवलिकथिता निजपूर्वभवकथा
९१-९४ विमलमत्यादीनां जिनदत्तात्नीनां जातिस्मरणम्, दीक्षाग्रहणम् , जिनदत्तकेवलिमोक्षगमनं च जिनद-विमलप्रतिपुत्रस्य विमलवुद्धिकुमारस्य राज्याभिषेक: श्रेयःसुखोपभोगश्च ग्रन्थकारप्रशस्ति:
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श्रीगुणसमुद्रसूरिवरविरचितं जिन दत्तक थान कम
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बमोऽस्तु अमाय भगवते महावीराय
श्रीगुणासमुद्रशिविरचितं जिनदत्तकथानकम् ॥
ॐ नमः सिद्धम् ॥
[मङ्गलम् ] श्रीशारदाबासवसेव्यमान आबालकालाद् दलिताभिमानः ।
गुणैरसङ्ख्यैः परिर्द्धमानः सतां श्रिये श्रीजिनवर्धमानः ॥१॥ धर्मो जयति, धर्मफलानि किञ्चिदुच्यन्ते, यत :
धर्मादवाप्यते राज्य, धर्मात्, सुखफलोदयः ।
धर्मादवाप्यते सिद्धिस्तस्माद् धर्म समाचर ॥१॥ तथा अमूर्तोऽमि, धर्मा, बाह्यलक्षणैर्मीयते, यतः -
धरान्तःस्थं तहोमसमुच्छ्रयेणानुमीयते ।
तथा पूर्वकृतो धर्मोऽप्यनुमीयेत. सम्पदा ॥२॥ अथ भो भो भव्याः ! श्रुणुत जिनदत्तकथानकात् पुण्यफलानि, यथा
[वसन्तमुरवर्णनम्] । भरतखण्डमण्डनं वसन्तपुरं नाम नगरम् । किं विशिष्टम् ?
यस्मिन् देवगृहेषु दण्ट्पटना,स्नेहक्षयो दीपके, 'अन्तर्जाङ्गुलिकालय द्विरसनाः; खड्गेषु मुदिता । बादस्तर्कविचारणासु, विपणीश्रेणीषु मानस्थिति----
बन्धः कुन्तलवल्लरीषु, सततं, लोकेषु नो दृश्यते ॥३॥ ____ 1. गारुडिकगृहमध्ये ॥
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जिनदत्तकथानकम्
[वसन्तपुरराशोऽरिमर्दनस्य वर्णनम्] तत्राऽरिमर्दनो नाम राजा, यः सौम्यो दाता विशेषज्ञः कृतज्ञश्चास्ति, यतः
त्यजेत् स्वामिनमत्युग्रमत्युग्रात् कृपणं त्यजेत् ।
कृपणादविशेषज्ञ, तस्माच्च कृतनाशनम्' ॥४॥ अन्यच्च यो गम्भीरप्रकृतिः पिशुनवचनप्रेरितोऽपि कर्णदुर्बलो न जायते, यतः
घटवत् परिपूर्णोऽपि विदग्धो रागवानपि । ग्रहीतुं शक्यते नैव पार्थिवः कर्णदुर्बलः ॥५॥
[जीवदेवश्रेष्ठिवर्णनम् ] तस्य पुरस्य मध्ये नगरमुख्यः प्रसिद्धो जैनो बहुधनकोटीश्वरो जीवदेवश्रेष्ठी ।
सत्वेऽपि र-नकोटीनां तस्य रत्नत्रयी परम् । आसीददूषण साधुकोटीरस्य' विभूषणम् ॥६॥ मनो-वाक्-कायचेष्टासु धर्मस्तस्यावतिष्ठते । अर्थो वचसि कायेऽपि कामः काये कदाचन ॥७॥
__[जिनश्रीश्रेष्ठिनीवर्णनम्] तत्प्रिया जिनश्री नाम पतिमार्गानुगामिनी गृहस्वामिनी गजगामिनी तथा सतीत्वादिगुणैः सा निजवंशतिलकभूता, यतः -
सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तेन विनयेन च । विवेकेन स्त्रियः काश्चिद् भूषयन्ति धरातलम् ॥८॥
[जीवदेवश्रेष्ठिपुत्रजिनदत्तवर्णनम्] तत्पुत्रो भाग्यसौभाग्यनिधिः सदा सदाचारो जितेन्द्रियः सुशीलो जिनदत्तो नाम कुमारः। तदीयमौदार्यादिगुणवृन्दमेकया जिह्वया वर्णयितुं न केनापि शक्यते, तथापि केऽपि द्वित्राः पवित्रास्तद्गुणा वर्णिकामात्रा अत्राभिधीयन्ते, यथा
परपरिवादे मूकः परनारीवक्त्रवीक्षणेष्वन्धः ।
पङ्गुः परधनहरणे, स जयति लोके महापुरुषः ॥९॥ 1. कृतघ्नम् ॥ 2. श्रेष्ठिमुख्यस्य ॥
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कथानकप्रारम्भ: जिनदत्त-विमलमत्योः पाणिग्रहण च
तथा
गर्व नोद्वहते, न निन्दति परं, नो भाषते निष्ठुरमुक्तः केनचिदप्रियाणि सहते, क्रोधं न चालम्बते । स्वश्लाघां न करोत्यणु परगुणं मेरूपमं यः सृजेद्, दोषांश्छादयते, स्वयं न कुरुते ह्येतत् सतां चेष्टितम् ॥१०॥
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः, त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं, .
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥११॥ [जिनदत्त-विमलमत्योः पाणिग्रहणं जिनदत्तस्य विषयविरागश्च ]
अन्यदा स कुमारो यौवनोदये चम्पापुर्यां विमलश्रेष्ठिपुत्रीं विमलवती कन्यां महामहोत्सवेन परिणायितः । तथापि स पितुः प्रसादेन निश्चिन्तः साधुसेवां विधत्ते, स्वाध्यायं पठति च शनैः शनैः श्रमणपरिचयेन विषयपराङ्मुखो जातः, यदाह
सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते, मुक्ताऽऽकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते । स्वातौ सागरशुक्तिसम्पुटगत तज्जायते मौक्तिकं,
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संवासतो जायते ॥१२॥ तथा च
उत्तमजणसंसग्गी' सीलदरिद पि कुणइ सीलड्ढं ।
जह मेरुगिरिविलग्गं तणं पि कणगत्तणमुवेइ ॥१३॥ अन्यदा तज्जनन्या श्रेष्ठिनोऽयं प्रोक्तम्- 'पुत्रोऽयं गृहचिन्तां न विधते'। तेनोक्तम् 'आवयोः प्रसादेन सम्प्रति करोतु धर्मम्' । तया प्रोक्तम् – 'एक एवावयोः पुत्रः परिणीतश्च तथापि निश्चिन्तः, तत् कथमित्यमात्मीयं गृहं निर्वहिण्यति ?' । श्रेष्ठिनोक्तम्-'सम्प्रत्येव तिष्ठतु पुनरग्रे ज्ञास्यते' । कियत्स्वपि. दिनेषु गतेषु पुनः श्रेष्ठिन्या कथितम्- 'यूयं न जानीथ, पुत्रोऽसौ संसारसुखपराङ्मुखोऽस्ति, कस्तु स्वकीया द्रव्यकोटीभॊक्ष्यते ? ' । तयेत्थं प्रेरितः श्रेष्ठो चिन्तयति-'सत्यमेवेदम्, करोमि कमप्युपायौं यथाऽसौ गृहादिचिन्तां करोति' ।
1. उत्तमजनसंसर्गः शीलदरिद्रमपि करोति शीलाढयम् । यथा मेरुगिरिविलग्नं तृणमपि कनकत्वमुपैति ॥
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जिनदत्तकथानकम् अन्यदा श्रेष्ठिना समाय पुत्रो भाषितः - "वत्स ! यद्यपि कश्चिदनिर्वाही देवगुरुप्रसादेनात्मीये न विद्यते, यतः कर्म करा वणिक्पुत्रा बहवः सन्ति त एव सर्व कुर्वन्तः सन्ति, तथापि त्वदुचितानि कार्याणि त्वयैव विधेयानि, यतः -
दाने तपसि मृत्यौ च भोजने नित्यकर्मणि ।
विद्याभ्यासे सुतोत्पत्तौ परहस्तो न विद्यते ॥ १४ ॥ तथा तव स्थाने त्वमेवासि, नान्यः, त्वं चैकमतिः, गृहस्थस्य तु त्रिवोऽपि तुल्यः स्यात्, शास्त्रेऽप्येवमस्ति -
अजीर्णे भोजनत्यागी, काले भोक्ता च सात्म्यतः । अन्योन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयेत् ॥ १५ ॥
अन्यच्च
यस्य त्रिवर्गशून्यस्य दिनान्यायान्ति यान्ति च ।
स · लोहकारभस्त्रेव श्वसन्नपि न जीवति ॥ १६ ॥" स कुमार एवमाकर्ण्य स्त्रमनसि चिन्तितवानिति -- "तात इयदेव वेत्ति. न पुनः शास्त्रान्तररहस्यम्, तच्चेदम् -
'दहइ गोसीस सिरिखंड छारक्कए, छगलगहणटू एरावणं विक्कए । कप्पतरु तोडि सो कयर वद्धारए, जुजिविसएहिं मणुयत्तणं हारए ।॥ १७ ॥
तथा
अपारे संसारे कथमपि समासाद्य नृभवं, न धर्म यः कुर्याद् विषयसुखतृष्णातरलितः । बुडन् पारावारे प्रवरमः हाय प्रवहणं,
स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धु प्रयतते ॥ १८ ॥ तातेन यदुक्तं 'त्रिवर्गः साध्यः' तत्रापि धर्म एव सारः, यतः
त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य ।
तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, न तं विना यद् भवतोऽर्थकामौ । १९॥" ___ 1. दहति गोशीर्ष श्रीखण्डं क्षारकृते, छगलग्रहणार्थ औरावणं विक्रीणाति । कल्पतरूं त्रोटयित्वा स बकर पद्धं पति, पृथग्विषयैः मनुष्यत्वं हारयति ।
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जिनदत्तस्य संसारसुखविरागः [ पित्रादेरुपदेशानन्तरमपि जिनदत्तस्य धर्मप्रवृत्तिस्थैर्यम् ] पुनः पितृवन्मोहवशान्मात्रा सर्वकुटुम्बेन मिौरन्यैरपि स्वजनपरिजनैर्यथाई शिक्षितोऽपि स विरक्तो निर्विकारः कुमारः संसारसुखप्रवृत्तिं न चकार कदापि । पुनर्लोकाः केऽपि चैवं शिक्षयन्ति यथा - "भोः कुमार ! कदाग्रहो न क्रियते यावती भूमिर्गृह्यते तावती मुच्यते तथा द्विहस्ताभ्यां कार्य कार्यमिति, शिक्षादायिनायिकाजडपुत्रवत् तवापि दन्तपातः कदाग्रहेण भावी, तथा धर्मज्ञेनापि पितरौ मान्यौ, यतः -
आस्तन्यपानाजननी पशूनामादारलाभाच्च नराधमानाम् ।
आगेड कमग तु मध्यमानामाजीवितात् तीर्थमिवोत्तमानाम् ॥२०॥" इत्यादिका या शिक्षा तैर्दत्ता सा सर्वाऽपि तस्य भृतवटोपरि व्यूढा, परं तया संसारशिक्षया तस्य कुमारस्य मनसि प्रत्युत हास्य जातम् - "अहो ! वृथैव लोकैः स्वात्मा स्वशरीरादि का वि । दण्ड्यते, अतोऽनर्थदण्डोऽयम्, अतो धर्मत्यैव शिक्षा दातव्या यतः
उबएसमंतरेण' वि कामत्थेसु कुसलो सय लोओ ।
धम्मोवगहण सिक्खं विणा न, ता तीइ जइयव्वं ॥२१॥ तथा श्रोतुररुचिसम्भवेऽपि हितशिक्षादानं घटते, यदुक्तम् -
परो रुष्यतु वा मा वा विषवत् प्रतिभातु वा ।
भाषितव्या हिता भाषा, स्वपक्षगुणकारिणी ॥२२॥ एवं विचिन्त्य स पुण्यात्मा विशेषतो धर्मकर्म करोति । [पितृसङ्केतितद्यूतकारैः सह युतरमणे जिनदत्तस्यैकादशकोटिद्रव्यहानिः]
अन्यदा अनुत्पन्नापरोपायेन पित्रा द्यूतकारवर्गः सङ्केतितः यथा - अयं मत्पुत्रो निजसमुदायान्तर्गृह्यताम् । तैर्दृष्टैः ‘भवत्वेवम्' इतिष्ठवचोऽङ्गीकृतम् । एकस्मिन् दिने स जिनदत्त: सौवर्णसुखासनारूढो जिनालय गच्छंश्चतुष्पयमध्ये द्यूतकारविलग्योत्तारितो भाषितश्चस्वमद्य द्यूते रमत्व । इति श्रुत्वा द्रव्येण होडवाहबूतनियम परिग्रहप्रमाणमध्ये स्मृत्वा च तद्वचः कर्णे चित्तेऽपि न धत्ते स्म कुमारः । तथापि प्रसह्य मनसा बिनापि तैयूँतकारैस्तत्प्रवृत्ति कारितः । ततो धूतस्तैः पूर्व कन्यपि लक्षाः स जापितः , पश्चादेकादश द्रव्यकोटीारितः । एवं स रममाणोऽपराह्ने सुकुमारतया क्लान्त उत्तिष्ठन् हारितद्रव्यं तैर्याचितः । ततस्तेन द्रव्यार्पणार्थं
1. उपदेशमन्तरेणापि कामार्थयोः वुशलः स्वयं लोकः । धर्मोपग्रहणं शिक्षा विना न, तस्मात् तस्यांशिक्षायां पतितव्यम् ॥ 2. जापितः = जयं प्रापित.॥
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जिनदत्तकथानकम् धूर्तकरेण पत्र्यां प्रेषितायां भाण्डागारिको ज्ञातवृत्तान्तोऽसद्वययत्वात् तन्नायच्छत्, परं ते धूर्ता निर्धाटिताः ।
ततः केनापि विमलमत्यै तद्वन्यतिकरे प्रोक्ते सा लज्जमाना श्वश्रू-श्वशुरयोरकथयन्ती भर्तुर्भक्त्या स्वगवालयात्' कृष्ट्वा पञ्चदशकोटीप्रमाणं कञ्चुक धूर्तानां कृते प्रेषीत् । तैस्तमड्डाणकं' कापि हट्टे मुक्त्वा लभ्यद्रव्य गृहीत्वा स मुक्तः । ततः कुमारः स्वगृहं गतो लज्जमानो दथ्यौ-"हा ! मया किं कृतम् ? यतः
मुहूर्तमपि जीवेत नरः शुक्लेन कर्मणा ।
न कल्पमपि कृष्णेन लोकद्वयविरोधिना ॥२३॥ तथा... रूव पतिट्ठा माणो लज्जा धम्मो कुलक्कमो महिमा ।
अत्थो माया महिला, हारिज्जइ जूयरमणेण ॥२४॥ अथ सङ्घलोकस्य कथं स्वमुख दर्शयिष्यामि?" इति । अभुजानो जनकेनाश्वासितःवत्स ! का लक्ष्मीः ? यदि हारिता तदा हारिताऽभूत्, आत्मीये गृहे पुराऽपि द्रव्यस्येयत्ता,
पुनर्बहवी भविष्यति, ततो मा खेदं कुरु, शीघ्रमुत्तिष्ठ, भुङ्क्व । इत्युक्त्वा भोजयित्वा जनको गतः [हारितद्रव्यलज्जया छलेन विमलमति पितृगृहे मुक्त्वा जिनदत्तस्य प्रच्छन्नं विदेशगमनम्]
अथ जिनदत्तेन चिन्तितम्– ' अस्य नगरस्य मध्ये मया न स्थेयम्, कमप्युपाय कृत्वा विदेशं यामि, ममेह माने गते स्थितिरनुचिता, यतः--
माणु* पइट्ठइ जइ न तणु, तो देसडा चइज्ज । मा दुज्जणकरपल्लविहिं दंसिज्जंतु भमिज्ज ॥२५।। वसेन्मानाधिकं स्थानं, मानहीन विवर्जयेत् ।
भग्नमानं सुरैः सार्ध विमानमपि सन्त्यजेत् ॥२६॥ . तथा--
वरं प्राणपरित्यागो, मा मानपरिखण्डना ।
मृत्युश्च क्षणिक दुःख मानभङ्गो दिने दिने ॥२७॥ 1. स्वसङ्ग्रहात् । गवालय= गवाळो' इति भाषायाम् ॥ 2. 'अडाणु =गिरो' इति भाषायाम् ॥ 3. रूपं प्रतिष्ठा मानः लज्जा धर्मः कुलक्रमः महिमा अर्थो माया महिला हार्यते द्यूतरमणेन ॥ 4, मानः प्रतिष्ठति यदि न तनुः = अल्पः, ततो देशं त्यजेत्; मा दुर्जनकरपल्लवैः दर्शयन् भ्रमेव ॥
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सपत्निकस्य जिनदत्तस्य श्वसुरगृहगमनम्
जनमालिन्य- दारिद्रयापमान - व्यसनागमे । परदेशं विना नान्यदिह श्रेयो मनस्विनः ॥ २८ ॥
परं स्नेहलां सुकुमालां बालां मद्वियोगे सम्भाव्यमानदुःखमालां पितृगृहे मुचामि यथा तत्र सुखेन तिष्ठति " ।
1
अन्यदा श्वशुरालापेन कूटलेखमानीय जनपार्श्वात् पितुः करेऽर्पयामास । तं वाचयित्वा कमपि महमुद्दिश्य जामातृ-पुत्र्योराकारणं ज्ञात्वा पिता तत्प्रेषणमकरोत् । ततः स जिनदत्तोऽखण्डप्रयाणैः श्वसुरालये गतः । श्वसुरादिस्वजनानां मिलितः । परस्परं हर्षोत्कर्षेण केनाप्यागमनकारण ं न पृष्टम् । ततस्तत्र कुमारो महासुखेन दिनानि कत्यपि स्थितः श्वश्रूगौरवितश्च,
यतः -
तथा
तथा च
थीयहं तिन्नि पियारडां, कलि कज्जल सिंदूर । अन्न वि तिन्नि पियारडां, दुद्ध जमाई तूर ॥ २९ ॥
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'सासू दिइ जमाइहं पुत्तह संचइ हत्थ । एक्क छोरिकारणिहिं, वचइ सघलउ सत्थ ॥३०॥ अन्यदा तेनाचिन्ति यथा इह मम स्थातुमयुक्तम् यतः :पीहर (रि) नरु सासरउ (इ), संजमियां सहवास । ए त्रिणि इ. अलखामणां, जउ जोईइ तपास ॥ ३१ ॥ अन्यदा स चैकाकी देशान्तरं प्रति चलितः यतः -
दीसइ * विविहऽच्छरियं, जाणिज्जइ सुयण-दुज्जणंवि
अप्पा च कलिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुढवी ||३२||
तथा
-
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केशा नखा नराः । स्थानभ्रष्टा सुशोभन्ते सिंहाः सत्पुरुषा गजाः ॥३.३॥
1. स्त्रीणां त्रीणि प्रियाणि कलिः १ कज्जलं २ सिन्दूरम् ३ मन्यान्यपि श्रोणि प्रियाणि दुषं १ जामाता २ तूरम् ३ ॥ 2. श्वश्रूः ददाति जामात्रे पुत्रात् खचयति=संकोचयति हस्तम्, एकस्मात, पुत्री कारणाद् वञ्चयति सर्व सार्थम् 3. स्त्री पितृगृहे, नरः श्वसुर गृहे, संयमिनः सहवासे, एतानि त्रीण्यपि अप्रियाणि; यदि दर्श्यते तत्पार्श्वम् ॥ 4. दृश्यते विविधाश्चर्यम्, ज्ञायते सुजन- दुर्जनविशेषः, आत्मा च कल्यते; हिण्डयते तेन = तस्मात् पृथिव्याम् ॥
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जिनदत्तकथानकम् [दशपुरवास्तव्यऔदत्तश्रेष्टिगृहे जिनदत्तस्य प्रतिपन्नपुत्रत्वेनावस्थानम]
ततो जिनदत्तो विदेशं गच्छन् कियद्भिर्दिवसः दशपुरनगरपरिसरे गतः । तत्र दशपुर नगरोद्यानवाटिकामध्येऽशोकतरुतले निषण्णः, खेदान्निद्रायितश्च । तद्भाग्येन शुष्काऽपि वाटिका पुनर्नवा जाता । तथा दृष्ट्वा कश्चिन्मालिकोऽशीतिकोटयधिपस्याप्यपुत्रस्य वाटिकाधनिकस्य औदत्तव्यवहारिणोग्रेऽवोचत् । श्रेष्ठी पुष्पितां वाटिकां श्रुत्वा तत्र गत्वा भ्रमन् वृक्षतले जिनदत्तं वीक्ष्य हृष्टो बभाषे-कीदृशस्त्वम् ? तेनोक्तम् – वैदेशिकोऽहम् । श्रेष्ठिना सभाग्यं तं विज्ञाय गृहमानीय बाढं गौरयित्वा भाषितः-वत्स ! त्वं विदेशं मा यासीः, वं मम धर्मपुत्रः सवश्वरश्च । ततस्तत्र महाऽऽग्रहेण स्थितस्य तस्य सुखेन कालो याति धर्मेण किं किं न वाञ्छितं स्यात् यतः -
आरोग्यं सौभाग्यं धनाढयता नायकत्वमानन्दः ।
कृतपुण्यस्य स्यादिह सदा जयो वाञ्छितावाप्तिः ॥३४॥ तथा
यद्यपि कृतसुकृतभरः प्रयाति गिरिकन्दरान्तरेषु नरः ।
करकलितदीपकलिका तथापि लक्ष्मीस्तमनुसरति ॥३५॥ तथा
"पुण्यहीण षण दीण, पामइ परिभव हासा ।
पुण्यई सुख अनंत, पुन्नि पूरी दस दिसा ॥३६॥ तस्य सर्वदा पृथक् पृथग् 'मन्दिरेषु चतुरशीतिप्रवहणानि वहन्ति, चतुरशीतिवणि क्पुत्राश्च तन्नियुक्ताः सन्तिः । [औदत्तश्रेष्ठिसहगतस्य जिनदत्तस्य सिंहलद्वीपराजपुत्र्या श्रीमन्या सह पाणिग्रहणम्]
एकदा सर्वयानपात्राण्येकत्र मन्दिरे यान्ति सन्ति । तदा पुत्राग्रे औदत्तेन प्रोक्तम्वत्स ! यदि कथयसि तदाऽहमेषां सार्थे चलामि, यथा द्रव्यनाशो न स्यात् , त्वं गृहे तिष्ठ । तेनोक्तम्-अहमपि समेष्यामि, त्वत्प्रसादाद् ममापि विदेशदर्शनेच्छा पूर्यताम् ।
1. बाटिकास्वामिनः । धनिक="धणी' इति भाषायाम् ॥ 2. पुण्यहीना बहवो दीनाः प्राप्नुवन्ति परिभवं हास्थम् । पुण्येन सुख अनन्तम्, पुण्येन पूरिता दश दिशाः ॥ 3. तस्य औदत्तव्यवहारिणः ॥ 4. अत्र 'मन्दिर' शब्दप्रयोगो बेलाकूलार्थे ज्ञेयः । मन्दिर 'बंदर बंदिर' इति भाषायाम् ॥ 5. अत्रापि मन्दिर' शब्दो वेलाकूलार्थे ज्ञेयः ॥
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जिनदत्तस्य श्रीमतीनामराजपुत्रीप्राहरिकत्वप्रतिपत्तिः ___ ततः सुमुहूर्ते द्वावपि पितापुत्रौ यानपात्रमारुह्य चलितौ 'बहुमन्दिराण्युल्लङ्घय सिंहलद्वीपं प्राप्तौ। तत्र राजा घनवाहनः। तस्य रूपेण लक्ष्मीरिख, विद्यया भारतीव, शीलेन सीतेव नवयौवना पुत्री श्रीमती नामास्ति। सा कर्मदोषेण सव्याधिर्जाता। तस्याः प्राहरिको यः कोऽपि रात्रौ तिष्ठति स म्रियते, तदभावे श्रीमतीपुत्री-पुरलोक-राज्य-देशविप्लवो जायते । ततो राजादेशात् कृतायाः पत्रिकायाः क्रमेण सर्वलोको दिन प्रति एकैको वारके तद्यामिको भवति । एवं कालो गच्छति ।
तदा जिनदत्तो वाहनादुत्तीर्य परकार्याणि मुक्त्वा जिनभवनं दृष्ट्वा पुष्पानयनाय मालिकगृहं गतः। तत्रैका वृद्धा मुक्तकण्ठं रोदिति । तेनोक्तम् -- मातः ! कथं रोदिषि ? निजं दुःख वद । तयोक्तम् --
जो न हु दुक्खं पत्तो, जो न हु दुक्खस्स निग्गहसमत्थो ।
जो न हु दुहिए दुहिओ, कह तस्स कहिज्जए दुक्खं ? ॥३७॥ स ऊचे -
अहयं दुक्खं पत्तो, अहयं दुक्खस्स निग्गहसमत्थो ।
अहयं दुहिए दुहिओ, मह तेण कहिज्जए दुक्खं ॥३८॥ ततस्तया सखेदं स्वदुःखकारणमूचे -- हे वत्स ! श्रृणु, ममैक एव पुत्रो राजपुत्रीश्रीमतीयामिकत्वे स्थितोऽद्य मरिष्यति तेन रोदिमि, अद्य ममाभाग्याद् मम पुत्रवारको जातः, अन्धयष्टिन्यायेन स ममाधाररूपोऽभूत्, हतदैवेन सोऽपि न संसोढः, यदुक्तम् -
व्याघ्रो नैव, गजो नैव, सिंहो नैव च नैव च । अजापुत्र बलिं दद्याद, देवो दुर्बलघातकः ॥३९॥
तथा
दुपयं चउप्पयं बहुपयं व अपयं समिद्धमहणं वा । अणुवकए व कयंतो हरइ हयासो अपरितंतो ॥४०॥"
1. अत्रापि 'मन्दिर' शब्दो वेलाकूलार्थे ज्ञेयः ॥ 2. यो न खलु दुःखं प्राप्तः, यो न खलु दुःखस्य निग्रहसमर्थः, यो न खलु दु.खिते दुःखितः, कथं तस्य कथ्यते दुःखम् ॥ 3. अहं दुःखं प्राप्तः, अहं दुःखस्य निग्रहसमर्थः, अहं दुःखिते दुःखितः, मम तेन कथ्यते दुःखम् ॥ 4. द्विपदं चतुष्पदं बहुपदं वा अपदं समृद्धमधन वा अनुपकृत इव कृतान्तो हरति हताशः अपरितान्तः = अखिन्नः ॥ J-2
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जिनदत्तकथानकम्
इत्यादि दीनवाक्यानि श्रुत्वा तस्य करुणापरिणामेन तदुःखं प्रतिबिम्बितम्, यतः
विरला जाणंति गुणे, विरला पालंति निद्धणे नेहं ।
विरला परकज्जकरा, परदुक्खे दुक्खिया विरला ॥४१॥ तथा च -
' सज्जनस्य हृदयं नवनीतं ' गीतमत्र कविभिन तथा तत् ।
अन्यदेहविलसत्परितापात् सज्जनो द्रवति, नो नवनीतम् ॥४२॥ ततस्तेन चिन्तितम् -
— अस्थिरेण शरीरेण स्थिरं धर्म समाचरेत् ।
अवश्यमेव यास्यन्ति प्राणा प्रापूर्णका इव ।।४३॥' परोपकृतिनिरतेन तेन प्रोक्तम् - त्वं स्वस्था भव, तव पुत्रस्य स्थानेऽहं यास्यामि । तयोक्तम् – वत्स ! नैवं स्यात् , त्वमपि कस्या अपि मातुः पुत्रः, तस्या अपि दुःखं मम तुल्यम्, आत्मनिष्ठया परनिष्ठा ज्ञायते, यतः -
सुखी न जानाति परस्य दुःखं, न यौवनस्था गणयन्ति धर्मम् ।
आपद्गता निष्करुणा भवन्ति, आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति ।४४।। एवं श्रुत्वाऽपि स्वप्रतिपन्नवचनभङ्गभयात् साहसात् परोपकारकरणात् स्वकायनिरपेक्षत्वाच्च जिनदत्तो महाऽऽग्रहेण तां मालिक स्त्रियं मानयित्वा पुष्पाण्यादाय जिनमर्चयित्वा सज्जो भूत्वा स्थितः ।
तावदारक्षका ‘रे गृहान्निस्सर निस्सर' इति हक्कयन्तः समेताः । तदा स सलीलमुत्थाय खड्गं गृहीत्वाऽग्रेऽभूत् । एवं धीराणामुचितम् , यतः –
जीयं कस्स न इट्ट ? , कस्स न लच्छी य वल्लहा होइ ! । अवसरवडियाण पुणो दुन्नि वि धीराण न हु किंचि ॥४५॥
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् ।
विरक्तस्य तृणं नारी, निरीहस्य तृणं नृपः ॥४६॥ 1. विरला जानन्ते गुणान् , विरलाः पालयन्ति निर्धने स्नेहम् , विरलाः परकार्यकराः, परदुःखे दुःखिता विरलाः ।। 2. जीवितव्यं कस्य न इष्टम् ?, कस्य न लक्ष्मीश्च वल्लभा भवति ?; अवसरपतितानां पुनः द्वे अपि धीराणां न खलु किञ्चित् ।।
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श्रीमतीशयनगृहे जिनदत्तस्यात्मसङ्गोपनम्
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ततोऽसौ राजद्वारे प्रविशन् गवाक्षस्थेन राज्ञा दृष्टः । ततः 'कोऽसौ ? क्व याति ? ' इति राज्ञा पृष्टे केनापि प्रोक्तम् - पुत्रीयामिकोऽद्यैष भावी । राज्ञोक्तम्- धिग् धिग् मम नगर क्षयकारिणीयं पुत्री यदर्थे प्रत्यहमीदृशानि नररत्नानि क्षयं यान्ति परं पुत्रीमोहात् तदपि संसोढम्, यतः
तथा -
'अक्खाणsसणी, कम्माण मोहणी, तह वयाण बंभवयं । गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पंति ॥४७॥
अहो मोहपिशाचोऽयं, कथं भवचतुष्पथे । मनागपि छलं प्राप्य भविनश्छलयत्यलम् ॥४८॥
अथ कुमारीगृहमध्येऽयं गतः । ततो दोलाखट्वारूढया श्रीमत्या जिनदत्तं दृष्ट्रोत्थाय प्रतिपत्तिः कृता, चिन्तितं च- अहो अस्य कीदृशं रूपलावण्यसौभाग्यम्, अहो ! सत्त्वप्रकृतिः, अहो ! सुन्दराकारः, अहो ! गुणनिधित्वम् । पुनस्तया चिन्तितम् -
अतिसिंहमहो ! धैर्यमतिसूर्यमहो ! महः । अतिस्मरमहो ! रूपं, नृरत्नस्यास्य दृश्यते ॥ ४९॥ नररत्नमिदं धन्यमधन्यायाः कृते मम । क्षयमेष्यति कल्पद्रुः, कपिकच्छूकृते यथा ।। ५० ।। अहमेकैव तातस्य, कुलकल्पद्रुकानने । विश्वोद्वेगकरी जज्ञे, विषवल्लीव जङ्गमा ॥ ५१ ॥
ततः पृष्टम् - कस्त्वम् ? कुतः समायातः ? तेनोक्तम् - वाणिज्यार्थं विदेशादायातोऽहम्, अद्य तव समीपे रक्षार्थं स्थास्यामि । श्रीमत्योक्तम् - अत्र मम पार्श्वे न स्थेयं त्वया यतो रात्रौ विरूपं भावि अद्य मम यत् किश्चिद् भवति तद् भवतु परं त्वया न स्थेयम् । इत्थं मिथःसंलापैर्यामिन्याः प्रथमप्रहरे गते दोलाखट्वारूढायाः श्रीमत्या ईषन्निद्रा समेता ।
-
"
अथ जिनदत्तेनोपायो विचिन्त्य रचितः यत्- - पाश्चात्यदिनोज्झितमेकं मृतकं गवाक्षमार्गेणानीय स्वशय्यायां तदाऽऽच्छाद्य मुक्तवान्, जाग्रदस्थाच्च, यतः
स्वयं च खड्गमादाय दीपोपच्छायामा श्रयद्
1. अस्यां गाथायां सर्वत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी ज्ञेया । अक्षेषु = इन्द्रियेषु अशनी - रसना, कर्मसु मोहनीयम् तथा व्रतेषु ब्रह्मव्रतम्, गुप्तिषु च मनोगुप्ति; [ एतानि ] चत्वारि दुःखेन जीयन्ते ॥
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जिनदत्तकथानकम् उद्यमे नास्ति दारिद्रयं, जपतो नास्ति पातकम् ।
मौनेन कलहो नास्ति, नास्ति जागरतो भयम् ॥५२॥ लोकेऽप्येवमस्ति – 'यः सुप्तः स भूत इव, यो जागर्ति स मार्गयति' । 'अत्र किं किं भविष्यति ?' इति चिन्तयता तेन दृष्टम् – पूर्व कुमारीमुखाद् धूम्रकलिका, पश्चात् कालदारुणो महाकायो रक्ताक्ष उत्फणः फणी निर्गतः। ततः फूत्कारान् मुञ्चन् शय्योपरि गत्वा रोषेण मृतकं दृष्ट्वा यावत् पश्चादागत्य नागः कन्यामुखं प्रविशति तावद् जिनदत्तेन हक्कितः - रे दुष्ट ! चौर्यवृत्त्या मनुष्यं दष्ट्वा क्व यास्यसि ? ततः सर्पः सदर्पस्तं प्रति धावितः । जिनदत्तेन तु पुच्छे धृत्वोर्वीकृत्य पुनः पुनरन्दोलितः । ततः सोऽधोमुखत्वेन गलगतान्त्रत्वादबलोऽभवत् । अहो ! साहसवतां को न हि वश्यः स्यात् , यदुक्तम् -
उद्यमः साहसं धैर्य, बलं बुद्धिः पराक्रमः । षडेते यस्य विद्यन्ते, तस्य देवोऽपि शङ्कते ॥५३।। साहण' सउण न चंदबल न वि जोयइ धण ऋद्धि ।
इक्कलउं लक्खहं भिडइ, जिहां साहस तिहां सिद्धि ।।५४।। ततो जिनदत्तेन सदयहृदयेन चिन्तितम् – “हहा ! कथमेनं जीवं कदर्थयामि ? यद्यस्य पादौ स्यातां तदाऽयं पलायते, अथास्य वाचा स्यात् तदा 'मां मुञ्च' इत्येवं वक्तुं शक्नोति, अथ हस्तौ स्यातां तदा तौ स्वस्यान्तरे ध्रियते । " इति विचिन्त्य स सर्पः केहलीमध्ये क्षिप्तः । कुमारेण द्वयं कृतम् – सुस्थममारिश्च । तथा लोकस्याभाणको सत्यापितो यथा - 'न सपों म्रियते, न यष्टिर्भज्यते' इति । अहो ! सज्जनानामीदृशमेव लक्षणं
स्यात्, यतः -
येषां मनांसि करुणारसरञ्जितानि, येषां वांसि परदोषविवर्जितानि ।
येषां धनानि सकलार्थिजनाश्रितानि, तेषां कृते वहति कूर्मपतिर्धरित्रीम् ॥५५॥
अथ स कुमारः सुस्थो जातश्चौरनिग्रहात् । ततः कुमारी प्रबुद्धा कुमारं प्रति वक्तिहे सुभग ! महच्चित्रकरमिदं द्वयम् – ममोदरे महती निवृतिर्गतशल्यसूचिनी, तव जीवितं मदीयभाग्यसूचकं चेति, त्वं किमपि कारणं वेत्सि । ततः सोऽपि सर्व रात्रिवृत्तान्तमूचे । हृष्टा राजपुत्री दध्यौ – जयन्ति मम पुण्यानि येनेदं नररत्नं न विनष्टम् । ततः प्रतिज्ञातं ___ 1. साधनानि शकुनानि न चन्द्रबलम् , नापि पश्यति धनं ऋद्धिम्, एको लक्षैः [ सह ] युध्यते, यत्र साहसं तत्र सिद्धिः ॥ 2. केहली= (१) लघुकूप, ‘कियाळी' इति भाषायाम् ॥ 3. आभाणक-किंवदन्ती॥
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जिनदत्त - श्रीमत्योः पाणिग्रहणम्
तया मम भवेऽस्मिन्नयमेव वरः । ततः राजपुत्र्योक्तम् - मां वृणु । तेनोक्तम् त्पितुरादेशं विना नैव घटते । सा चाह - नीतिशास्त्रन्यायादेवं घटते, यतः
सोऽप्याह चेत्थं दृश्यते, यथा
-
-
स्वयं वरयते कन्या, माता वित्तं, पिता कुलम् ।
बान्धवा धनमिच्छन्ति मिष्टान्नमपरे जनाः ॥५६॥
सत्यमिदम्, परमनूढालक्षणं चेदम्, अलङ्कारशास्त्रे स्वकीयनायिकालक्षणं
-
देवता - गुरुसाक्ष्येण, स्वीकृता स्वीयनायिका ।
क्षमावत्यतिगम्भीरप्रकृतिः सच्चरित्रभृत् ॥५७॥
तयोरित्थं मिथः संलापे जायमाने मातङ्गः शग्रहणाय प्रातरायातः । तौ शारिपारी रममाणौ च दृष्ट्वा तेन राज्ञे कथितम् - देव ! वर्ध्यसे, यदद्य सयामिका पुत्री विजयते । इत्याकर्ण्य नृपतिरुधुषिताभ्युष्टिकोटिरोमो तस्य पारितोषिके सुवर्णस्य जिह्वां ददौ ।
-
त्व
-
ततः सपत्नीकः सपरिच्छदः पार्थिवः कुमारीगृहे गतः । तस्य यथोचितं प्रतिपतिश्च जाता । ततः सिंहासनमासीनो नृपः कुमारीमुत्सङ्गे कृत्वा गाढमालिङ्गय कुमारान्निशावृत्तान्तं श्रुत्वा सर्प पूर्वभवद्वेषेण वैरायमाणं कमपि व्यन्तरं निश्चित्य प्रधानान् प्रोचे • अस्य महोपकारिणः कुमारस्य किमुचितं क्रियते ? तैर्गदितम् - • अस्य यत् क्रियते तत् स्तोकम्, परं पुत्री दियताम् । ततो राज्ञा सुलग्ने महामहेन स श्रीमत्या सह परिणायितः । ततो हस्तमोक्षणावसरे गजाश्व - दुकूलादि भूरि दानं दत्तम् । पुंसां सर्वत्र पुण्यान्यचिन्त्यसुखकारीणि स्युः, यदुक्तम्
यदाशाया न विषयं दुर्घटं च जनेऽपि यत् ।
तदप्यारोपयत्याशु, प्राक्पुण्यं प्राणिनां करे ॥ ५८॥
ततः श्रीमत्या राज्ञा च सह जिनदत्तो विद्वद्गोष्ठ्या सस्नेहं सुखेन कियन्तं कालं गमयति ।
—
[ श्रीमतीसहितस्य जिनदत्तस्य औदत्तश्रेष्ठिना सह स्वदेशागमन प्रस्थानम् ]
अत्रान्तरे औदत्तश्रेष्ठी सर्व क्रय-विक्रयादि कृत्वा कुमारान्तिकमायातः वत्स ! त्वं किं कर्ताऽसि ? अहं स्वपुरं प्रति यामि । स प्राह – आम तात ! अहमप्यायास्यामि, क्षणं प्रतीक्षस्व यथा राजानं मुत्कलयामि । ततस्तदादेशाद् नृपान्तिकं गत्वोचे - राजन् ! अहं स्वेदेशे यामि, मामनुमन्यस्व । राजा ब्रूते – वत्स ! त्वादृशां को विदेशः ?, यतः
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जिनदत्तकथानकम्
को विदेशः सविद्यानां ? कः परः प्रियवादिनाम् ? | कोऽतिभारः समर्थानां ?, किं दूरं व्यवसायिनाम् ? ॥५९॥
तथा युष्मादृशां धीमतां भाग्यवतां विदेशोऽपि स्वेदशाधिकः, यतः
परः प्राह
मानमुल्लसति यत् पदे पदे, सम्पदे भवति वाक्यडम्बरः । धीमतामभिमतार्थसिद्धये यद् विदेशगमनं स उत्सवः ॥ ६०॥
- देव ! यद्येवं तथापि जन्मभूमिर्दुस्त्याज्या, यतः
-
ततो राजा जगाद
मया न ज्ञातः,
1 अच्छंतु निरंतर गुरुसिणेह सम्भावनिब्भरा मणुया । सहवासवढिया तरुवरा वि दुक्खेहिं मुच्चति ॥ ६१ ॥
इत्याद्युक्त्वा कुमारः पुनरूचे देव ! त्वया दूरत्वान्नाहं विस्मार्यः ; यतः
"सुयणा न दिति हिययं, दिन्नं न हरंति जीवियं जाव ।
इराण य नेहो, इयरह सो, दुन्नि हिययाई ॥ ६२ ॥
सम्प्रति
-
-
""
वत्स ! इयच्चिरं त्वया सार्धं लीलागोष्ठ्या कालो गच्छन्नपि
यियाससि निजं स्थानं, यदि त्वं तर्हि किं ब्रुवे ? |
यियासुश्च मुमुर्षुश्च वारितौ न हि तिष्ठतः ॥ ६३ ॥
हे कुमार ! त्वादृशाः सत्पुरुषाः संसारे विरला एव, यतः
परं मम मनो भवता सार्धं समेष्यति । यत्र पुरेऽवस्थाता, ततोऽभीष्टसङ्गतिं यः करोति स मूढ एव यदुक्तम् -
―
योगे सति सुखं स्वल्पं, वियोगे दुःखमुल्बणम् । विदन्नपीति हा मूढो, जनः संसजति प्रिये ॥६४॥
――
नहिं को न दीसइ ?, केण समाणं न हुंति उल्लावा ! | हिययाणंद पुण जं जणेइ तं माणुसं विरलं ॥ ६५ ॥ "
1. तिष्ठन्तु निरन्तरगुरुस्नेहसद्भावनिर्भरा मनुजाः, सहवासवर्धिता तरुवरा अपि दुःखैः मुच्यन्ते ॥
2. सुजना न ददति हृदयम् दत्तं न हरन्ति जीवितं यावत् । इतरजनानां च स्नेहः, इतरथा सः द्वे हृदये ॥ 3. नयनाभ्यां को न दृश्यते ?, केन समं सह न भवन्ति उल्लापाः ? हृदयानन्दं पुनर्यो जनयति स मनुष्यो विलः ॥
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औदत्तश्रेष्ठिकृतो जिनदत्तस्य समुद्रप्रक्षेपः इति सदुःखं चलनमनुमत्य सुवर्ण-रत्नादिसारबहुवस्तुभिर्भूतं प्रवहणं दत्त्वा श्रीमत्या सह राज्ञा जिनदत्तः प्रस्थापितः ।
[श्रीमतीरूपमुग्धौदत्तश्रेष्ठिकृतः समुद्रे जिनदत्तप्रक्षेपः, श्रीमतीविलापश्च]
यावता प्रवहणान्यर्धमार्गे गतानि तावता श्रीमतीरूपं बहुद्रव्यं च दृष्ट्वा रागान्धस्य लोभान्धस्य च श्रेष्ठिनो दृष्टिश्चलिता, यतः -
रागंधो' मोहंधो कज्जाकजं न जाणई जीवो ।
धत्तरभामिओ इव सव्वं पिच्छइ सुवन्नमहो! ॥६६॥ ततः क्रूरकर्मणा पापिना श्रेष्ठिना केनापि च्छलेन विश्वास्य मध्यरात्रौ समुद्रमध्ये कुमारः क्षिप्तः । ततो निर्घातं श्रुत्वा 'किमपि पतितं पतितम् ' इति जनकलकलो जातः ।
तस्मिन्नवसरे श्रीमती पृच्छन्ती स्वपति समुद्रमध्ये पतितं जनमुखात् श्रुत्वा 'हा नाथ ! हा नाथ !' इति तारं रुरोद। इत्थं बहु विलप्य ' हा श्वशुर ! हा तात ! पुत्रं समुद्रमध्ये मुक्त्वा क्व यासि ?' इति श्रेष्ठिन सा बभाषे । ततः श्रेष्ठी जगौ - एवं मा ब्रूहि, मम दासोऽयम् , मया सह भोगान् भुझ्व, त्वं मम गृहसर्वस्वस्वामिनी भवेति। ततः सा दध्यौ – “हहा ! अस्यैव दुष्टस्य चेष्टितमिदं सम्भाव्यते, किमन्यथाऽमुष्य मुखादीदृशी वाक्यपद्धतिनिर्गच्छति ? तथा सत्यमिदं जातं यद् मनुष्यकूटस्य लकुटशुषिरत्वस्य च पारो नास्ति, अन्यच्चोक्तम् -
मायावंतह माणुसह, किमइ पतीज ण जाइ ।
नीलकंठ महुरं लवइ, सविस भुयंगम खाइ ॥६७॥ तथाऽस्य परस्त्रीरतस्य श्रेष्ठिनो जीवितं धिगस्तु, यदुक्तम् -
वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसञ्चितं व्रतम् ।
वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥६८॥ तथा
अप्पु धूलिहिं मेलियं, सयणहं दीधी छार ।
पगि पगि माथाढांकगुं, जिणि जोई परनार ॥६९॥ ____ 1. रागान्धो मोहान्धः कार्याकार्य न जानते जीवः, धत्तरभ्रामित इव सर्व पश्यति सुवर्णमहो !2. मायावतो मनुष्यस्य कथमपि विश्वासो न याति, नीलकण्ठो मधुरं लपति सविषं भुजङ्गमं खादति ॥ 3. आत्मा धूलो मेलितः, स्वजनेषु = स्वजनोपरि दत्तं = क्षिप्तं भस्म, पदे पदे शिरःप्रच्छादनम् , येन दृष्य परनारी ॥
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जिनदत्तकथानकम् विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, परस्त्रीषु सिया । कृत्वा कुलक्षयं प्राप नरकं दशकन्धरः ॥७०॥ सीलब्भट्ठाणं पुण नामग्गहणं पि पावतरुबीअं ।
जा पुण तेसिं तु गई को जाणइ ? केवली भयवं ॥७१॥" इत्यादि मनस्येव विचिन्त्य श्रीमती को पिधाय प्रोचे - " हा पाप! वचनमिदमश्रोतव्यम्, पुनरीदृशं वचो मा वादीः, न जाने क्व नरके त्वं यास्यसि ? यतः -
"भक्खणे देवदव्वस्स, परत्थीण य संगमे ।
सत्तमं नरगं जंति, सत्तवारा य गोयमा ! ॥७२॥ तथा 'मम शीलधर्मप्रभावो यदि स्यात् तदा प्रवहणं ब्रडतु' इति तस्याः सत्याः शापेन यानपात्रं दोलायमानं दृष्ट्वा जनो जगौ -- रे दुरात्मन् ! त्वं सर्वमपि समुद्रे मज्जयिष्यसि । सर्वजनाक्रोशं निशम्य भीतः श्रेष्ठी श्रीमतीपादयोः पतित्वा 'मम दुष्टस्य दुष्कृतं क्षमस्व ' इति जगौ। 'हा पापिष्ठ हा अद्रष्टव्यमुख ! मां मा स्पृश, दूरे भव' इति तया धिक्कृतः सः। ततो जनो बभाषे-- मातः ! अस्मान् निरपराधान् रक्ष रक्ष । इति श्रुत्वा सा तत्कृपया स्वकरस्पर्शन प्रवहणं स्थिरीचकार । अहो ! शीलप्रभावः । यतः -
हरति कुलकलक्कं लुम्पते पापपकं, सुकृतमुपचिनोति श्लाध्यतामातनोति । नमयति सुरवर्ग हन्ति दुर्गोपसर्ग, रचयति शुचि शीलं स्वर्गमोक्षौ सलीलम् ।।७३॥
अथ सा मनस्येवं खिद्यते, यथा - " हा तात ! दैवेन तत् किमपि मम पातितं यद् वक्तुमपि न शक्यते । यतः -
विहिणो वसेण कज्ज जयम्मि तं किंपि दारुणं पडइ ।
जं न कहिउं, न सहिउं, न चेव पच्छाइउं तरइ ॥७४॥ तथा --
अन्न* चितवीइ अन्न हुइ, अन्न कीजइ अन्न थाइ ।
सूइ अन्न मनोरहे, अन्नेरडे विहाइ ॥७५॥ 1. शीलभ्रष्टानां पुनर्नामग्रहणमपि पापतरुबीजम् , या पुनस्तेषां गतिः [तां ] को जानाति ? केवली भगवान् ॥ 2. भक्षणे देवद्रव्यस्य, परस्त्रीणां च सङ्गमे सप्तमं नरकं यान्ति सप्तवारान् च गौतम !॥ 3. विधेर्वशात् कार्य जगति तत् किमपि दारुणं पतति यद् न कथयितुं न सोढुं न चैव प्रच्छादयितुं शक्यते ॥ 4. अन्यत् चिन्त्यते, अन्यद् भवति; अन्यत् क्रियते, अन्यद् भवति; सुप्ते अन्ये मनोरथाः, अन्यतराः प्रभाते ॥
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श्रीमत्याः परिदेवनम्
हा ! हत दैवेन ममाऽऽशातरून्मूलनं शीघ्रमेव कृतम् । यथा -
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आसातरुयर' मउरिउ जाब फलेवा लग्ग । उन्मूलिउ विहिकुंजरिइं, है असंधि ( ? ) भग्ग ॥ ७६॥
अतः कर्मविपाकान्न कोऽपि छटति, यतः
देव' आगलि न राय न राणउ, कर्म आगलि न को स-पराणउ ।
डुंबनउ जल वहिउं हरिचंदिई, भालडी मरण लाधु मुकुंदिइ ॥७७॥
जं जेण कथं कम्म अन्नभवे इहभवे वि सुहमसुहं । तं तेण पावियव्वं, निमित्तमित्तं परो होइ ॥ ७८ ॥
१७
तावद् दैवेन महादुःखसागरेऽहं क्षिप्ता, सम्प्रति किं करोमि ? तातस्य गृहे व्रजामि ? अथाप्रभुवं यामि ? अथात्मानमपि समुद्रे क्षिपामि तावत् पितृगृहगमनमनुचितम्, यतः पतिवर्जिता तत्र गता कथमहमभाग्या स्वकुटुम्बस्य मुखं दर्शयिष्यामि ? यतो यथा चन्द्रं विना शर्वरी, इन्द्रं विना स्वर्गभूमिः, सूर्य विना द्यौः, मेघं विना विद्यद, शाखां विना वृक्षम्, नाशां विना मुखं न शोभते, तथा पति विना स्त्रीति । अथाऽग्रतो गत्वा किं करोमि ? स्वजनाभीष्टाद्यभावात् । तथा समुद्रपात शस्त्रघातादिना स्वात्महत्या जिनैर्निषिद्धा । यदुक्तम्
* रज्जुग्गह - विसभक्खण-जलजलणपवेस- तिन्ह छुहदुहओ । गिरिसिरपडणाओ मया, सुहभावा हुंति वंतरया ॥ ७९ ॥
—
मरणे प्रायः शुभध्यानं न स्यात्, ततो दुर्गतिहेतुत्वात् कुमरणमिदं न घटते । तथा चास्य पापिनः सार्थः सर्वथा मोक्तव्य एव 1
1. आशा तरुवरो मुकुरितो यावत् फलितुं लग्नः [ तावद् ] उन्मूलितो विधिकुञ्जरेण हृदयसन्धौ भग्नः ॥ 2. दैवाग्रे न राजा न राणकः, कर्माग्रे न कः [ अपि ] स्व-परकीयः, चाण्डालस्य जलं ऊ हरिश्चन्द्रेण भल्लया मरणं लब्धं मुकुन्देन ॥ 3. यद् येन कृतं कर्म अन्यभवे इहभवेऽपि शुभमशुभं तत् तेन प्राप्तव्यं = भोक्तव्यम्, निमित्तमात्र परो भवति ॥ 4 रज्जुग्रह-विष भक्षण - जलज्वलनप्रवेश- तृष्णा क्षुधादुःखतों गिरिशिखरपतनाद् मृताः शुभभावाद् भवन्ति व्यन्तराः ॥
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जिनदत्तकथानकम्
[औदत्तश्रेष्ठिसार्थपृथग्भूतायाश्चम्पानगर्यागताया: श्रीमत्या विमलमत्या सहावस्थानम् ]
इत्थं चिन्तयन्त्यां तस्यां प्रवहणं वायुवेगेन चलत् कस्मिन्नपि द्वीपे लग्नम् । तत्र पृथगू भूत्वा स्ववाहनान्विता श्रीमती स्थिता ।
ततः श्रेष्ठी स्वपुरं प्रति गच्छन्निति दध्यौ, यथा- " मम श्रीमती कान्ताऽपि न जाता, जिनदत्तः पुत्रोऽपि नाऽऽसीत् , ततो मम द्वयमपि गतम् । यदुक्तम् -
निदाघे दाघार्तस्तरलतरतृष्णातरलितः, सरः पूर्ण दृष्ट्वा त्वरितमुपयातः करिवरः । तथा पक्के मग्नस्तटनिकटवर्तिन्यपि यथा,
न नीरं नो तीरं द्वयमपि' गतं दैववशतः ॥८॥ तथा 'हस्तो दग्धः, पृथुकोऽपि गतः' इति सत्यापितम् , तथा ममेहलोक-परलोकयोरपि द्वयं गतम् । यदुक्तम् -
जनापवादं कुलशीललाञ्छनं धनापहारं निजबन्धुनाशनम् ।
इहैव विन्दन्ति हतात्मपौरुषा नराः परस्त्रीनिरता निरन्तरम् " ॥८१॥ इत्यादि चिन्तयन् दशपु गतः श्रेष्ठी ।
नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यं च भवे भवे ।
भवेन्नराणां स्त्रीणां चान्यकान्तासक्तचेतसाम् ॥८२॥ - ततः श्रीमती चिन्तयति – किमहं करोमि ? पत्यौ लोकान्तरिते जीवन्ती किमहं करिष्यामि ? तस्मादिहैवानशनं गृहीत्वा परलोकं साधयामि । एवमनल्पान् विकल्पान् कल्पयन्त्यास्तस्याः . पूर्व स्वपतिना वार्तान्तरप्रोक्तं चम्पास्थस्वभगिनीस्वरूपं स्मृतिमायातम् । ततः साऽचिन्तयत् – चम्पापुरीस्थिताया निजपतिभार्याया विमलमत्याः समीपे गच्छामि, कदाचिद् दैवयोगेन तत्रस्थाया मम पतियोगोऽपि भवति । अहो ! असम्भाव्येऽपि वस्तुनि मनः कल्पनां करोति । यदुक्तम् -
- हीया ! मनोरह मा करउ जं कज्जह असमत्थ ।
सग्गि जि तरुवर मउरिया, तिहां कि वाही हत्थ ? ॥८३॥ ... 1. °मपि विनष्टं विधिवशात् ॥८०॥ प्रत्यन्तरे ॥ 2. सुभाषितत्वेनात्र मूले स्वीकृतः केवलं पु.प्रतावुपलभ्यमानः श्लोकोऽयं प्रक्षिप्त आभाति ॥ 3. हृदय ! मनोरथं मा कुरु यः कार्यस्य असमर्थः । स्वर्गे ये तरुवरा मुकरिताः तत्र किं वाह्यते हस्तः१॥ 4. तिहां पसारइ हत्थ ॥८३।। प्रत्यन्तरे ।।
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श्रीमती विमलमत्यो: सहावस्थानम् न चेत् तत्र पतिसङ्गमस्तदा सर्वधनमिदं धर्मे व्ययित्वा दीक्षा ग्रहीष्यामि ।" इति चिन्तयित्वा निजवाहनमारुह्य चम्पापुरीं गता।
तत्र प्रथमं देवालयं गता विधिना देवान् नमस्कृत्य प्रान्ते जिनदत्ताभिधानं गृहीत्वा पुनः प्रणामं चकार ।
इतश्च पूर्वमागतया देवभवनमध्यस्थया विमलमत्या स्वपतिनामोच्चारं श्रुत्वा हृष्टया पृष्टम्-भद्रे ! त्वया कस्याभिधानं गृहीतम् ? अथ तया पतितुल्यरूपलावण्यदेहोच्चत्वादिगुणानुमानेन तां स्वभगिनी सम्भाव्य तदने सर्वोऽपि निजपतिवृत्तान्तो जगदे । पुनः श्रीमत्या 'त्वं स्वसम्बन्धं वद' इति भाषिता विमलमती स्ववृत्तान्तं प्रोच्य ' यदर्थं त्वमिहागता सैवाह तव भगिनी' इति गदित्वा श्रीमती हृष्टां चकार ।
ततः सा विमलमती पितुर्वचनेन स्वगृहे तां नीत्वाऽऽगता । ततो द्वे अपि ते समदुःखे साध्वीसमीपे धर्म श्रृण्वन्त्यौ दीक्षार्थिन्त्यौ जाते। ततः पिता प्रोचे–'हे वत्से ! युवां द्वादश वर्षाणि प्रतीक्षेथाम् , कदापि युष्मत्पुण्ययोगेन पतिरायाति । यतः -
भूमीतलि' भमंतेहिं मिलीइ जु मरीइ नहीं ।
बारवरसछेहिं जिम दवदंती नल मिलिउ ॥८४॥' इति प्रोच्य ते द्वे अपि महाऽऽग्रहेण दीक्षां याचमाने अपि तातेन द्वादश वर्षाणि स्थापिते । तदनु सर्व शृगारं मुक्त्वा पतिवियोगदुःखातुरे सुखपराङ्मुखे तिष्ठतः ।
इतश्च मूलसम्बन्धः कथ्यते - [ उत्तीर्णसमुद्रस्य जिनदत्तस्य विद्याधरराजपुत्र्या विज्जाहरीनाम्न्या
सह पाणिग्रहणं विविधविद्याग्रहणं च ] यदा जिनदत्तः समुद्रमध्ये पातितस्तदा समुद्रदेवतया सत्पुरुषरत्नहत्याभयेन त्रिरुल्लालितः, तदा पूर्वपुण्यानुभावेनैकं फलकं स प्राप । अहो ! भाग्यवतां किं वाञ्छितं न स्यात् ? । यतः
तृष्यम्बु, क्षुधि भोजनं, पथि रथः, शय्या श्रमे, नौ जले, व्याधौ सत्परिचारकौषधभिषक्सम्पद्, विदेशे सुहृत् । छायोष्णे, शिशिरे शिखी, प्रतिभये त्राणं, तमिस्र प्रभा,
धर्मः संसरतां भवेद् बहुभवे चिन्तामणिर्देहिनाम् ॥८५॥ 1. भूमितले भ्रमभिर्मिल्यते, यतो म्रियते न हि, द्वादशवर्षान्ते दवदन्त्या नलो मिलितः ॥
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तथा -
जिनदत्तकथानकम्
तथा
रणे वने शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥ ८६ ॥
फलकाधारेण स जिनदत्तो जलधि तरन्नस्ति । इतश्च
रत्नपुरीनगर्या विज्जाहरो नाम राजा । तस्य चतुरशीतिपत्न्यः । तन्मध्ये अशोकश्रीः पट्टराज्ञी । तत्पुत्री विज्जाहरी नाम कुमारी । पितुरेकैव सा पुत्री, अतोऽतीववल्लभा । अपरं सौभाग्योपरिमञ्जरी यत् शीलालङ्कारिणी सर्वस्त्रीलक्षणधारिणी च तद्रूपाग्रे सर्वदेवाङ्गनाः पदधावने यान्ति । तदुद्वहनाय भूरिशो राजकुमाराः समायान्ति परं साध्वीसङ्गेन संसारसुखविमुखा सा बुद्धया राजानमुत्तरयामास - तात ! मम स एव वरः यो द्वाभ्यां भुजाभ्यां महासमुद्र - मुत्तीर्य समायाति नान्यः, तदभावे दीक्षैवेति मे प्रतिज्ञा ।
ततो जनकोऽतीवदुःखी जातो दध्यौ - " इदं कार्यमसम्भाव्यमस्त्येव तथाप्युपक्रमं करोमि, कदाचिदघटमानमपि विधिवशाज्जायते । यतः
अघटितघटितानि घटयति, सुघटितघटतानि जर्जरीकुरुते । विधिरेव तानि घटयति, यानि पुमान् नैव चिन्तयति ॥८७॥
विहि विहडावर, विहि घडइ, विहि घडिउं भंजेइ । इमइ लोय तडफडई, जं विहि करइ सु होइ " ॥ ८८ ॥
इति विचार्य पित्रा समुद्रोपकण्ठे तद्वीक्षणाय जना मुक्ताः । कियत्यपि काले गते तटासन्नं जिनदत्तमागच्छन्तं वीक्ष्य ते सर्वे हृष्टा भणन्ति अहो ! पूर्वं कुमार्याः, ततो राज्ञः, ततोऽस्माकमपि च भाग्यं वर्तते, यथेष्टनररत्नप्राप्तिमनोरथसिद्धेः ।
जिनदत्तश्च तान् वीक्ष्य न विश्वसिति । यतः -
मुताहलं " न गिण्हइ तारापडिबिबभोलिओ हंसो । दुज्जणजणेण घट्ठो न वीससइ सज्जणजणस्स ॥ ८९ ॥
1. विधिर्विघटापयति, विधिर्घटयति, विधिर्घटितं भनक्ति, निरर्थकं लोको व्याकुली भवति यद् विधिः करोति तद् भवति ॥ 2. मुक्ताफलं न गृह्णाति ताराप्रतिबिम्बवञ्चितो हंसः । दुर्जनजनेन घृष्टः = पीडितो न विश्वसिति सज्जन । अत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी ज्ञेया ॥
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उत्तीर्णसमुद्रस्य जिनदत्तस्य विद्याधरनृपान्तिकगमनादि २१ 'सर्पजग्धानां रज्जुभयं भवति' इति स क्षणं विलम्बते । तैरुक्तम् – मा भैषीः । तव धीराऽस्तीत्यादिवचनैविश्वस्तः फलकादुत्तीर्य जिनदत्तस्तटमायातः । ततोऽनन्तरं ते राजान्तिके गत्वा वर्धापनिका गृहीता। ततो राज्ञा मुदा सुखासनं प्रेषयित्वा स महामहेनाऽऽनायितः । राज्ञा तस्य विनयादिगुणः कुलीनत्वं ज्ञातम् । यतः -
आचारः कुलमाख्याति, देशमाख्याति भाषितम् । सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति, वपुराख्याति भोजनम् ॥९०॥
तथा
हंसा गति, पिकयुवा किल कूजितानि, नृत्यं शिखी, परमशौर्यगुणं मृगेन्द्राः ।
सौरभ्य-शैत्यललितं मलयादिवृक्षाः, कैः शिक्षिता ?विनयकर्म तथा कुलीनाः ॥९१॥
ततो राज्ञा पुत्र्यै कथापितम् त्वत्पुण्याकृष्टः समुचितो वरः प्राप्तः, तव प्रतिज्ञा पूर्णाऽस्ति । अथ 'मम मनोरथाः सेत्स्यन्ति ' इति श्रुते तस्या राजसुतायाः वामनयनाङ्गस्फुरणेन हर्षोत्कर्षोऽजनि । पुनरित्थं तस्या विवेकिन्या मनसि विचारो जातः – “यन्मया पूर्वमन्य. च्चिन्तिम् , देवेन चान्यत् कृतम् , अतः कर्मगतिर्दुर्लध्या । यतः--
उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां, प्रचलति यदि मेरुः, शीततां याति वह्निः ।
विकसति यदि पद्मं पर्वतारो शिलायां, तदपि न चलतीयं भाविनी कर्मरेखा ॥९२॥ अहो ! महासमुद्रोल्लङ्घनकरो नरोऽत्र समेष्यतीति स्वप्नेऽपि चिन्तितं नासीत् , तदपि विधिविलसिताद् जातम् । यदुक्तम् -
यन्मनोरथशतैरगोचरं, न स्पृशन्ति कवयो गिराऽपि यत् ।
स्वप्नवृत्तिरपि यत्र दुर्लभा, हेलयैव विदधाति तद् विधिः ॥९३॥" ततस्तया भोगफलं कर्म विचार्य परिणयननिषेधो न कृतः । अनिच्छन्त्याऽपि तया स्ववाचाङ्गभयात् परिणयनमनुमतम् ।
अथ राज्ञा ज्योतिषिका आहूताः, तै ढं विलोक्य लग्ननिर्णयः कृतः । ततो वरः शृङ्गारितः परिणयनाय चटितः । तदा लोकास्तस्य भाग्यसौभाग्यप्रकर्ष विलोक्य परस्परं जल्पन्ति" तत् सत्यं यच्छास्त्र प्रोक्तम् , यथा
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जिनदत्तकथानकम्
ज' जस्स पुव्वलिहियं धण धन्नं कंचणं कलत्तं च ।
तं तस्स मग्गलग्गं पुच्छंतं घरघरंगणए ॥९॥ अन्यथा देवदुर्लभेदृशस्त्रीरत्नयोगः कथं स्यात् ?, यतः सूक्तम् – 'संयोगा दुल्लहा हुति' । भाग्येनैव सदृशयोगो भवति, यतः -
'पूनिम विण ससि खंडिउ थाइ, शशि विण पूनिम लाजइ बाइ ! ।
सुकुल पुरुष सुकुलिणी नारि, बिहूं जोड थोडी संसारि ॥९५॥ बहु किं कथ्यते ?
जं जं दुलहं, जं जं च सुंदरं, जं च तिहुयणे सारं ।
तं तं धम्मफलेण य, साहीणं तिहुयणे तस्स ॥९६॥" ___ एवं निजकर्णमधुराणि जनवचांसि शण्वन् जिनदत्तो विवाहमण्डपद्वारमागतः । ततो वरः 'पुहुंकितो, मातृगृहे निवेसितः । ततश्चतुरिकायां मङ्गलेषु जायमानेषु कन्ययाऽसौ गुप्तं सङ्केतितःस्वामिन् ! यदा मम पिता तव दानं दत्ते तदा त्वया गजाश्वादि किमपि न ग्राह्यम् , परं मत्पितुः कोशे अनिवन्धनी-जलशोषणी-अग्निस्तम्भिनी नगरपुरक्षोभिणी-बहुरूपिणी-अञ्जनीतारणीप्रभृतिषोडशविद्या मनश्चिन्तितं विमानं चास्ति, तत्प्रभावो महान् , नाधुना च वक्तुं शक्यते, अत एव तदेव याच्यम् । ततो जिनदत्तेन तदनुमेने । एतद् युक्तं यत् तया विचक्षणया भर्तुरग्रे गृहसारग्रहणोपायः प्रोक्तः, यतः -
मितं ददाति हि पिता, मितं भ्राता, मितं सुतः ।
अमितस्य हि दातारं भर्तारं का न पूजयेत् ? ॥९७॥ एतावता संसारे स्वार्थ एव सर्वत्र दृश्यते, न तु मातृ-पितृ-स्वजनादिसम्बन्ध कोऽपि गणयति, यदुक्तम् -
___ 1. यद् यस्य पूर्वलिखितं धनं धान्यं काञ्चनं कलत्रं च तत् तस्य पश्चाल्लग्नं पृच्छद् गृहगृहाङ्गनके । अत्र भवतीति अध्याहार्यम् ॥ 2. पूर्णिमां विना शशी खण्डितो भवति, शशिनं विना पूर्णिमा लज्जते भगिनि ! । सुकुल: पुरुषः सुकुलिनी नारी [ च], द्वयोर्युगलं स्तोकं संसारे ॥ 3. यद् यद् दुर्लभम् , यद् यत् च सुन्दरम् , यत् च त्रिभुवने सारम् , तत् तद् धर्मफलेन च स्वाधीन त्रिभुवने तस्य ॥ 4. 'पोख्यो' इति गूर्जरभाषायाम् । पहुंकित = प्रोक्षित ||
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जिनदत्तस्य विद्याधर्या पाणिग्रहणं विद्यावाप्तिश्च वृक्ष क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः, शुष्कं सरः सारसाः, पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुपा दग्धं वनान्तं मृगाः । निर्द्रव्यं पुरु त्यजन्ति गणिका भ्रष्टं नृपं सेवकाः,
सर्वः कार्यवशाज्जनोऽभिरमते, कः कस्य को वल्लभः ? ॥९८॥ अत्रान्तरे कन्याजनकः संप्राप्तः, प्रोक्तवांश्च – हे वरराज ! स्वकीयं वाञ्छितं याचस्व । तेनोक्तम् -- यदि याचितं ददासि तदा षोडशविद्या विमानं च देहि, नान्यत् किमपि प्रार्थये । ____ अथ राज्ञा चिन्तितम् – “अहो ! कथमनेन सम्प्रत्यागतेन मम गृहमर्म ज्ञातम् ? महच्चित्रमिदम् , परमेवं जाने 'पुत्र्यैव प्रोक्तम्, नान्यः कोऽपि कथयिता घटते,' तद् ददामि, यदेकस्य कस्यापि विद्या देया एव स्युः, अन्यथा गुरोक्रणित्वं भवति; अन्यच्चेदृशः पुरुषः संसारे दुर्लभोऽस्ति, अपरं जामाता, तदेते एवाऽऽभाणकाः सत्या जाताः, यत् ‘सुवर्ण' पुनः सुरभि ' 'इष्टं पुनर्वैद्योपदिष्टम् ' 'घतपूरं पुनस्तन्मध्ये घृतं क्षिप्तम् ,' तथा विद्या पात्रे दातव्या, यदाह -
विज्जा' वि होइ बलिया, गहिया पुरिसेण भागधिज्जेण । सुकुलकुलबालिया विव असरिसपुरिसं पई पत्ता ॥९९॥
अन्यच्च
विज्जा' अणुसरियव्वा, न दुव्विणीयस्स होइ दायव्वा ।
परिभवइ दुविणीओ तं विज्ज तं च आयरियं ॥१०॥ . पुनरेवमस्ति -
विद्यया सह मर्तव्यं, न दातव्या कुशिष्यके ।
विद्यया लालितो मूर्खः, पश्चात् सम्पद्यते रिपुः ॥१०१॥ महापात्रश्चायं जामाता"। इति ध्यात्वा राज्ञा तत् सर्वमन्यदपि वस्तुजातं तस्मै दत्तम् । इत्थं तां कन्यां परीणीय महता महेन भूपतिप्रदत्तसौधमागत्य जिनदत्तः स्थितः । तत्र च पुण्यानुभावेन सुखेन कालं गमयति, यतः -
धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः, कामार्थिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः, किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रदः । राज्यार्थिष्वपि राज्यदः, किमथवा नानाविकल्पैर्नृणां,
तत् किं यन्न ददाति वाञ्छितफलं स्वर्गापवर्गप्रदः ? ॥१०२॥ 1. विद्याऽपि भवति बलवती गृहीता पुरुषेण भागधेयेन, सुकुलकुलवालिकेत्र असदृशपुरुषं पति प्राप्ता ॥ 2. विद्या अनुसर्तव्या, न दुविनीतस्य भवति दातव्या; परिभवति दुर्विनीतः तां विद्यां तं च आचार्यम् ॥ .
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जिनदत्तकथानकम् [जिनदत्तकृतं चम्पानगर्या विज्जाहरीपत्नीपरिहरणं वामनरूपविकुर्वणं च ]
अथ कस्मिन्नप्यवसरे विज्जाहरीप्रियया समं सारिपाशै रममाणस्य मिथः प्रीतिसंलापं कुर्वतः कुमारस्य स्नेहादिगुणतुल्यत्वेन पूर्व चम्पापुरी मुक्ता विमलमती स्मृतिमागता । ततस्तेन सदुःखेन चिन्तितम् – “सा मद्वियोगेन कथं जीवितं धारयिष्यति ? रे दैव ! त्वया कस्यापि वल्लभजनस्य भवे वियोगदुःखं न दातव्यम् , यतः -
कान्तावियोगः स्वजनापमानं, ऋणस्य शेषं कुनृपस्य सेवा ।
दरिद्रभावे विमुखं च मित्रं, विनाऽग्निना पञ्च दहन्ति सद्यः ॥१०३॥ - तथा केनाप्येवमुक्तम् , यथा -
'जह हुज्ज मज्झ जम्मो, असारसंसारसायरुच्छंगे ।
ता सरसकव्व-पियमाणुसस्स मा हुज्ज विच्छोहो ॥१०४॥" तदा कन्यया प्रोक्तम् - नाथ ! कथमद्य खिद्यसे ? किं क्वापि ममापि विनयच्युतिदृष्टा ? ततः कुमारेण 'नहि नहि' इत्युक्ते कन्या प्राह - तत् किं खेदकारणम् ? सोऽप्याह - शृणु प्रिये ! एकस्या कान्तायास्तवेव वल्लभाया विनयादिगुणाः स्मृताः, ततः खेदोऽस्ति । 'स्वामिन् ! ममापि तुल्या या स्त्री सा किं नाम्नी ? क्व चास्ति ? इति निर्बन्धेन पृष्टे चम्पास्थितविमलमत्याः संबन्धः प्रोक्तः ।
""वरि ते पंखीया भला, माणुसपाहिं बप्पडा ।
ऊडी जाई तिहां, जिहां मन होइ आपणुं ॥१०५॥ यद्येवं तन्मनश्चिन्तितविमाने सति कथं खेदः ?” इति चिन्तितं जिनदत्तेन ।
_ ततश्चम्पापुरी गन्तुकामेन तेन प्रभाते राजा मुत्कलापितः । राजा वदति – क्व गामी ? तेनोक्तम् – स्वदेशस्वजनमिलनाय यास्यामि । ततो भशं राज्ञा सस्नेहतयाऽसौ स्थापितोऽपि न स्थितः, तदा राज्ञा कथमप्यतिष्ठते तस्मै बहुधनं दापितं परं न गृहीतम् , यत्र तत्र सर्वसमृद्धिप्राप्तेः ।
ततो विज्जाहरी सर्व कुटुम्ब मुत्कलाप्य तदादेशात् स्वकीय सर्व भूषणं गृहीत्वा मनश्चिन्तितं च विमानमारूढा ।
1. 1. यदि भवेद् मम जन्म असारसंसारसागरोत्सले तर्हि सरसकाव्य-प्रियमनुष्ययोः मा भवतु विरहः ॥ 2. वर ते पक्षिणः शोभनाः मनुष्यपक्षे मनुष्यापेक्षया दीनाः [ये] उडुयित्वा यान्ति तत्र यत्र मनो भवति आत्मनः॥
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जिनदत्तकृतं चम्पापुर्या' स्वपत्नीविद्याधरीपरिहरणम् अथ निर्ध्वनिनिशायां जिनदत्तादेशाद् विमानं चम्पोद्यानं जगाम । तत्र रात्रिशेषे पूर्व क्षणं कुमारः सुष्वाप । ततो जिनदत्तादेशाद् राजपुत्री सुप्ता । तदाऽजनीविद्यया स्वयमदृश्यीभूय प्रभातं यावत् स स्थितः श्वापदादिरक्षार्थम् ।
ततः कौतुकेन रूपपरावर्तविद्यया वामनरूपं विधाय नगरमध्ये गत्वाऽनेकगीत-नृत्यविनोदैर्लोकान् रञ्जयति । लोकाल्लब्धं सुवर्ण-दुकूलादि तदैव याचकेभ्यो ददाति । लोकमुखेन ज्ञात्वा राज्ञा स वामन आकारितः । तत्रापि राजसभायां स्वकलाप्रकटनेन सर्व रञ्जितमस्ति ।
[विज्जाहर्याः परिदेवनम् ] इतश्च सा विज्जाहरी प्रातर्जागरिता पतिं न पश्यति ततः पूत्कारान् करोति - " आः ! कथमहं पापिनी निद्रां कृतवती ? एषा निद्रा सर्वदुःखभाजनम् , यतः - .
निद्रा मूलमनर्थानां, निद्रा श्रेयोविघातिनी ।
अचैतन्यकरी निद्रा, निद्रा संयोगघातिनी ॥१०६॥" इत्यादि वदन्ती मुहुर्मुहुर्मूर्च्छति, पुनर्वनवातेन स्वस्थीभवति, भणति च – “हा नाथ ! मामेकाकिनी मुक्त्वा क्व गतोऽसि ? रे विधे! त्वया वल्लभवियोगः कथं विहितः ?, यदाहुः -
1रे विहि! मा मा सज्जसि, सज्जसि मा देहि माणुस जम्मं ।
अह जम्मं मा पिम्मं, अह पिम्मं मा वियोगं च ॥१०७॥ तथा -
हीयडा' झरि म झरि. झरंतह नयणह हाणि ।
कवण कहेसि सज्जणहं, रोयंतह कंठह प्राणि ॥१०८॥ अहो ! यावद् जीवानां स्तोकोऽपि स्नेहो भवति तावन्निवृतिः कुतः स्यात् ? यदुक्तम् -
"ताव च्चिय होइ सुहं जाव न की रेइ पियजणो को वि ।
पियसंगो जेण कओ दुक्खाण समप्पिओ अप्पा ॥१०९॥ 1. रे विधे! मा मा सृज, [ यदि] सृजसि मा देहि मानुष्यं जन्म, अथ जन्म [ ददासि ] मा प्रेम, अथ प्रेम [ ददासि ] मा वियोगं च ॥ 2. हृदय ! विषीद, मा [वा ] विषीद, विषीदतो नयनयोः हानिः [भवति ], कः कथयिष्यति सज्जनं 'रुदतः कण्ठे प्राणान् ' । 3. तावत् खलु भवति सुख यावद् न क्रियते प्रियजनः कोऽपि । प्रियसङ्गो येन कृतः [ तेन ] दुःखेभ्यः समर्पित आत्मा । ..J4 ...
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जिनदत्तकथानकम् तथा
'जह जह बंधइ नेहो पिय-पुत्त-कलत्त-मित्त-बंधूहिं ।
तह तह खिप्पइ बहुले संसारे घोरकंतारे ॥११०॥" ... [विमलमती-श्रीमती विज्जाहरीणां सहावस्थानं तपश्चर्यादिधर्मकरणं च]
एवं महाशोकं कुर्वाणा विज्जाहरी स्वनाथविलोकनार्थमासन्नदेवालयं गता, तत्रापि तद्विरहेण रुदती सा लोकैः कारण पृष्टा जिनदत्तवृत्तान्तं प्रोचे । 'न जाने मां मुक्त्वाऽद्य रात्रौ क्वापि गतः' इत्युक्त्वा सा स्थिता ।
- ततो विमलश्रेष्ठिना निजजामातृनाम श्रुत्वा ध्यातम् जिनदत्तस्तावद् विद्यमानो जातः, तदेनां तद्वल्लभां गृहे नयामि यथा कस्या अपि भाग्येन स कदाचिदायाति । ततः श्रेष्ठिना तां सन्धीर्य स्वगृहं नीत्वा 'वत्से ! अत्र सुखेन तिष्ठ, अग्रे पुत्रीद्वयं ममास्ति, तृतीया त्वमपि पुत्री' इत्याद्यक्त्वा सबहुमानं स्थापिता। ततः सुखेन तास्तिस्रोऽपि नायिका मिथोबद्धस्नेहा मौनावलम्बिन्यस्तीववियोगातुरा विशेषतो धर्मध्यानं कुर्वाणाः सन्ति । यदुक्तम् -
ओमिति पण्डिताः कुर्युरश्रुपातं च मध्यमाः ।
अधमाश्च शिरोघातं, शोके धर्म विवेकिनः ॥१११।। [वामनरूपधारिजिनदत्तकृतो मौनावलम्बिनिजपत्नीत्रयवार्तालापेन सर्वजनचमत्कारः]
अथाऽन्यदा वामनेन रञ्जितो राजा नित्यं बहु प्रसाददानं दत्ते । स च तत्कालमेवाऽर्थिभ्यो यच्छति । प्रधानैरचिन्ति - वामनोऽसौ सर्व' कोशं रिक्तीकरिष्यति, ततः केनाप्युपायेन राजा दानं ददानो वार्यते । इति ध्यात्वा तै राज्ञो विज्ञप्तम् ,यत् – “स्वामिन् ! वामनस्येदं कथनीयम् , यत् त्वया सर्वो नगरलोको रञ्जितः, त्वं महान् कलावान् , परं यदि नगरेऽत्र वास्तव्यविमलश्रेष्ठिधर्मशालास्थाः पतिवियोगिनीः केनापि सहाऽजल्पन्तीस्तिस्रः स्त्रीरालापयिष्यसि तदा तव कला बुद्धिबलं च ज्ञास्यते, नाऽन्यथा" इति ।
एकदा तथैव राज्ञोक्ते वामनो जगौ – भूपते ! ताः स्त्रियः कीदृश्यः सन्ति ? पाषाणघटिताः, उत चित्रलेपकाष्ठनिर्मिता वा, देव्यो विद्याधर्यो वा ? इति श्रुत्वा राज्ञोचे - ता मानुष्य एव सन्ति । वामनः प्राह – “अहो ! तासामालापने का कथा ! देव ! यदि तव कौतुकं स्यात् तदा त्वत्सभाग्रे द्विपञ्चाशत्करप्रमिता शृङ्गारशिला नाम शिलाऽस्ति तामट्टहासेन हासयामि " । तथैव राजादेशाद् वामनेन सर्वां' शिलां पट्टदुकूलादिभिराच्छादितां 1. यथा यथा बध्यते स्नेहः प्रिय-पुत्र-कलत्र-मित्र-बन्धुभिः तथा तथा क्षिप्यते बहुले संसारे घोरकान्तारे ॥
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वामनरूपधारिणा जिनदत्तेन नृपादिरञ्जनम्
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कृत्वा तन्मस्तके स्वहस्तं न्यस्य तारणी विद्या जप्ता । ततः सा शिला विद्याबलेन ऊर्ध्व - मुत्पतिता सती नभोमण्डले इतस्ततो भ्रमति चाट्टहासं मुञ्चति च । इति दृष्ट्वा सर्वैः सभालोकैभयभ्रान्तैः पलायितम् । राज्ञोक्तम्- - वयं त्वत्कौतुकानां घ्राणाः, परं भ्रमन्तीं शिलामाकशादुत्तारय । वामनेनोक्तम् - राजन् ! मा भैषीः, मच्छिक्षिता शिला तव किमपि न करिष्यति । इत्युक्त्वा राजादेशात् शिला स्वस्थाने निवेशिता । तुष्टेन च राज्ञोक्तम्अहो ! वाञ्छितं वरं याचस्व । वामनः प्राह - हे देव ! तिस्रः स्त्रीर्यावन्नालापयामि तावत् तव प्रसादं न गृह्णामि ।
इतश्च सर्वसभासहितो राजान्वितो वामनो धर्मशालां गतः । तत्र धर्मध्यानस्थिता राजाद्यागमनज्ञानात् सविशेषं संवृताङ्गीरघोदृष्टीः शान्तचित्ता अपवरकमध्यस्थाः स्त्रीवलोक्य, बहिरागत्य स्थितानां ‘ कथमयं वामन एता ईदृशीर्जल्पयिष्यति : ' इति राजादीनां कौतुकं जातम् ।
--
इतश्च वामनेव मध्ये गत्वा ज्येष्ठा विमलमतीः सम्भाषिता - हे भद्रे ! मया साकं कथं न जल्पसि ? किं तदपि तव विस्मृतं यत् यस्मिन्नवसरे मयैकादश द्रव्यकोटयो हारितास्तदा त्वया पञ्चदशकोटिप्रमाणः कञ्चुको द्यूतकारेभ्यो दत्तः, अहं तेभ्यस्तमड्डाणकमर्पयित्वा गृहमागतः ' इति श्रुत्वा सा विमलमतीरुत्फुल्ललोचना मुखमूर्ध्वकृत्य सम्मुखं विलोकयति स्म 'अहो वामन ! त्वं कथमेनं वृत्तान्तं जानासि स क्वास्ति जिनदत्तः ? ' इति तयोक्ते 'अधुनाऽहं व्यग्रेोऽस्मि, कल्ये कथयिष्यामि इति भणित्वा निर्गतः सः । राजादयो धूनिताः, परं केनापि न ज्ञातम् यद् • इयं कथं जल्पिता ? इति । ततः सर्वेऽपि स्वस्व
,
-
स्थानं गताः ।
अथ द्वितीयदिने प्राग्वद् राजादिभिः सहाऽऽगत्य वामनेन द्वितीया श्रीमती अधोभ्रवं वीक्षमाणा जल्पिता - हे सुन्दरि ! त्वं मया सह कथं नाऽऽलपसि ? त्वया सर्वं पूर्वानुभूतमेकस्मिन् भवेऽपि कथं विस्मारितम्, यदा धवलगृहमध्येऽहमागतः तदा दोलाखाट्वाया उत्तीर्य मत्सम्मुखमागत्य प्रीत्याऽऽलापं कृत्वा त्वं निद्रायिता, अथ मया सर्प निगृह्य तव सौख्यमुत्पादितमिति त्वमपि स्मर । अथ सा समुत्थाय तं विकस्वरनयनाभ्यां निरीक्षते स्म, 'अहो वामन ! समुद्रमध्ये क्षिप्तो जिनदत्तः क्वास्ति ?, कथं तद्वृत्तान्तश्च त्वद्गोचरो जातः ?, त्वं च कः ? इतीदं सर्वमसम्भाव्यं मां ज्ञापय ' इति तयोक्ते ' अद्याहं कार्यातुरोऽस्मि, कल्ये कथयिष्यामि ' इत्युक्त्वा धर्मशालाया बहिरागत्य राजादीनामग्रे तेनोक्तम्- • भो ! द्वितीयाऽद्य जल्पिताऽस्ति । इति श्रुत्वा चित्ते चमत्कृतास्ते सर्वे स्वस्थानं गताः । पुनः
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जिनदत्तकथानकम्
कन्यानां तत्पितॄणां लोकानां च हृदि 'कोऽयं ?, किं वदति ? ' इत्यादयो भूयांसो विकल्पा जायमानाः सन्ति ।
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अथ तृतीयदिने पूर्वरीत्या समागत्य विज्जाहरी यत्र प्रदेशेऽस्ति तत्र गत्वा वामनो बभाषे – “हे भद्रे ! हे सुन्दरि ! हे विज्जाहरी ! त्वं मां नोपलक्षयसि ?, चतुरिकामध्ये त्वया मम सङ्केतः कथितः, यत् 'पितृपार्श्वात् षोडशविद्या विमानं च याचनीयम् ' तथैव राज्ञोऽग्रे मयोक्ते तत् सर्वं लब्धम्, ततो विद्याबलेनाहमीदृशो जातः " । इत्युक्ते सम्भ्रान्ततया मुखं विलोक्य सा चिन्तयति - सत्यमेवेदम्, विद्यावानेष चिन्तितरूपाणि करोति । ततो विमलमत्यग्रे तया कथितम् - - हे भगिनि ! जिनदत्तोऽयं भवत्येव, विद्याबलेनेदृशो जातः । अथ श्रीमत्या भणितं — हे सखि ! सत्यप्रायमिदं सम्भाव्यते विज्जाहरीपूर्व प्रोक्तवृत्तान्तेन ।
अथ राजादिषु श्रृण्वत्सु विमलमती रोषं कृत्वा जगौ – रे मुग्धे ! मां न कोऽपि विप्रतारयितुं शक्नोति वचनाडम्बरेण यतो न ज्ञायते विद्यासिद्धो नरो देवतादिप्राप्तवरो वा धूर्ती वा कोऽप्येष भावी, तदेनं तदैव मानयामि यदा केवली स्वमुखेन वदति, नान्यथा । इत्थं सर्वसमक्षं सखीद्वयं निर्भर्त्स्य पश्चाद्विमलमत्या वामनो हक्कितः - रे कितव ! त्वयाsबला-बाल-गोपालादयः सर्वे वचनप्रपञ्चवैचित्र्यात् विप्रतारिताः, पुनर्नाहं केनाऽपि विप्रतायें, एष स कपित्थो न हि यो वातेन पतति, रे वामन ! हापाश्रेष्ठिभार्यावद् विषयलौल्येन लोकापवादपापाऽपकीर्तिभाजनं नाहं भविष्यामि । श्रीमत्या पृष्टं – हे भगिनि ! कोऽसौ हापा - श्रेष्ठिवधूसम्बन्धः ? सा भणति यदि कौतुकं तदा श्रूयताम् –
-
प्रतिष्ठानपुरे जितशत्रुर्नाम राजा । तन्नगरमध्ये श्रेष्ठी हापाख्यो वसति, स बहुद्रव्यकोटिपतिरपि कृपणपितामह इव शोभनं न खादति, न पिबति, सत्यपि धने महादरिद्रवद् रुति, न कस्यापि किञ्चिद्दत्ते च ।
यतः
निबफलं ' किवणघणं सायरसलिलं च दूहवारूवं ।
कायरकरि करवालं विहलं विहिणा विणिम्मवियं ॥ ११२ ॥
"कां किज्जइ कृपणह तण, धोइ धवलहरे हिं ।
वर पन्नाडां झुपडां, पहिय अवलंबइ जेहिं ॥११३॥
1. निम्बफलं कृपणधनं सागरसलिलं च दुर्भगारूपं कातरकरे करवाल विफलं विधिना विनिर्मितम् ॥ 2. किं क्रियते कृपणानां धवलैः धवलगृहैः १ वरं पर्णयुक्ताः कुटयः पान्था अवलम्बन्ते यत्र ||
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विमलमतीवक्तव्ये हापाकश्रेष्ठ्यदाहरणम्
धम्मि न वेचइ रूयडउ, मीठउ ग्रास न खाइ ।
राउलि चोर पलेवणइ, धन पेखंतां जाइं ॥११४॥ दानं दूरेऽस्तु, कृपणस्य धनं भोजने वपुभोगेऽपि नायाति । यतः -
धनेऽपि सति भोजन प्रकृतिशोभनं नात्ति यो, न चारुतरमम्बरं परिदधाति भीतो व्ययात् । करोति कुसुमादिभिर्न तनुभोगमप्युत्तम, परस्य वितरत्यहो! कथमसौ धन तृष्णकः ? ॥११५॥
देशे देशे धनार्थं स भ्राम्यति, न गणयति रात्रि दिनं च । ____तस्य द्वे भार्ये रतिप्रीतितुल्ये महारूपवत्यौ स्तः, परमाजन्मगुप्तिगृहक्षिप्ते इव, बन्दिपतिते इव, महावस्थाप्राप्ते ते द्वे स्तः । तयोर्द्वयोर्न रम्यं खादनम् , न पानम् , न परिधानम् , नाच्छादनम् , नान्यदपि किञ्चित् संसारसुखं विद्यते । पुनरपि श्रेष्ठिगृहं किञ्चिद् वर्ण्यते, यथा -
यद्गेहे मुशलीव मूषकवधूमूषीव मार्जारिका, मार्जारीव शुनी, शुनीव गृहिणी, वाच्यः किमन्यो जनः । क्षुत्क्षामक्लमपूर्णमाननयनैः स्वोन्निद्रमुर्वीगतैः,
कर्तुं वाग्व्ययमक्षमापि जननी डिम्भैः समालोक्यते ॥११६॥ एकदा श्रेष्ठी हापाको वित्तोपार्जनाय बलीवर्दावली गृहीत्वा विदेशं गतः ।
अत्रान्तरे कोऽपि धूर्त्तवतंसो भ्रमन् तस्य गृहान्तिके समेतः । स ऊर्ध्वमूखीभूय सर्व सदनं विलोक्य कमपि पुरुषं पप्रच्छ – कस्येदं सर्वजनकृतस्पृहं धवलगृहम् ? सोऽप्याह - " तस्येदं गृहं यस्य कृपणस्य प्रातर्नामापि न गृह्यते, 'तर्हि किमीदृशं सुन्दरतरं गृहं बहुद्रव्यव्ययेन कारयितुं श्रेष्ठी शशाक' इति चित्ते त्वया शङ्का न कार्या, यतः पूर्वजकारित
चैतत् , अस्मिन् वंशवज्राकरेऽसावेव कर्करोऽजनि, अत्र सत्कुलेञ्जवाटकेऽयमेव नीरसो नलतृणविशेषोऽभवत् "। ___ 1. [ यः ] धर्मे न व्ययति रूप्यकम् , मिष्टं ग्रास न खादति, [ तस्य ] राजकुले चौरे प्रदीपने = अग्नौ धन पश्यतो याति ॥
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जिनदत्तकथानकम्
ततो गृहद्वारे गत्वा धूर्तेन गृहमध्ये दृष्टिः सञ्चारिता । ततो जीर्णशीर्णवस्त्रावृतं गृहीणीद्वयं दृष्टं परं रतिरूपगर्वसर्वङ्कषम् । तद्गृहद्वारि द्वाः स्थादयो देहदौर्बल्यान्निर्गतस्नायुजाला वेताला इव दृष्टाः ।
ततस्तेनाऽचिन्ति
ही ! गृहसर्वस्वमिदं निरर्थकम्, भोगरहितत्वात् । ततस्तस्य दंष्ट्रा गलिता - यदहं गृहस्य स्वामी भवामि देवतादिसान्निध्यात्, सम्प्रत्यवसरोऽस्ति गृहधनिकाsभावात् ' ।
-
-
―
ततस्तेन धूर्तेन पुरबहिर्वर्त्ती सकलसप्रत्ययो यक्षस्त्रिभिर्लङ्घनैः प्रत्यक्षीकृतः स्माह किमिति लङ्घयसि ? धूर्तः स्माह मम हापाक श्रेष्ठिरूपं देहि । यक्षः स्माह- - नैवाहमीदृशमनुचितं करोमि, रेविट ! मम मन्दिरादुत्तिष्ट । इत्युक्त्वा यक्षो गतः । पुनरपि धूर्तेन चत्वारि लङ्घनानि कृतानि । ततः 'खल्वसौ मदुपेक्षितो मरिष्यति, मम स्थानं च निष्फलं भावी इति विचिन्त्य यक्षोऽपि भग्नः प्रोचे - भवदुक्तं रूपं भवतु, परं निर्गच्छ मम भवनात् ।
-
तथा
—
ततो यथेष्टे रूपे जाते कृतपारणो हापाकश्रेष्ठिगृहं गतः षिङ्गः । सर्वैर्द्वास्थैः कर्मकरैः प्रियाद्वयादिभिर्यथोचितं सम्मुखोत्थानादिप्रतिपत्तिस्तस्य कृता निर्विघ्नमस्खलितो गत्वा स गृहस्वामी भूत्वा निषण्णः । ततो वाणिपुत्राः कोशाध्यक्षादयस्तेन जल्पिताः - अहो ! श्रूयतां मया देशान्तरं गतेन मुनिमुखात् श्रुतमिदम्, यथा
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—
• भोः !
दानं भोगस्तथा नाशः स्याद् द्रव्यस्य गतित्रयम् । यो न दत्ते न भुङ्क्ते च, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥११७॥
धन' राउलि, जीवीय जमह, राधउं पाखेलाहं ।
हुंतउ जेहिं न माणिउं, छारबचक्कउ तेह ॥ ११८ ॥
-
अन्यच्च श्रीमन्तमेकं मृतं च दृष्ट्वा तथा समुद्रमध्ये यानपात्र ब्रुडने प्राणान्तसङ्कटं सर्वक्षयं च ज्ञात्वाऽहं परमं निर्वेदं गतो दध्यौ – यद्यस्मिन् वारे कुशलेन गृहं गमिष्यामि तदा स्वस्य परस्यापि वाञ्छितं पूरयिष्यामि " । इति कपोलकल्तिं भाषित्वा तेन सर्वजनाः प्रत्यायिताः ।
1. गृहस्वामेरभावादित्यर्थः, धनिक = ' धणी' इति भाषायाम् ॥ 2. धनं राजकुले, जीवितं यमस्य, रन्धित पार्श्वस्थानां [दत्तं ] विद्यमानं यैर्न मानितं = भुक्तं भस्ममुष्टिः तेषाम् ॥
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विमलमतीवक्तव्ये हापाकश्रेष्ठयुदाहरणम ततः प्रिययोर्द्वयोः सुवर्णभूषणानि दुकूलानि बहूनि दत्तानि स्वयं परिहितानि च । ततो वाणिपुत्राः द्वारपालाद्याः कर्मकराश्च विदेशविक्रेतव्यसूक्ष्मचीवरपुट्टलिकाश्छोटयित्वा परिधापिताः । ततो गोधूम-तन्दुल-घतादि जनैरानाय्य पक्वान्न-खण्डखाद्यादि संस्कृत्य संस्कृत्य स्वयं भुङ्क्ते, सर्व कुटुम्बादि भोजयते च ।
ततो गृहसमीपे स श्रेष्ठी दानशालां मण्डयित्वा दीनानाथेभ्यो भोजनं यच्छति, साधमिकवात्सल्यं विधत्ते, सर्वचैत्यालयेषु धनव्ययं कुर्वाणोऽस्ति, भूरिभट्ट-बन्दिजनादीनां च वाञ्छितं पूरयन्नस्ति । दोलाखट्वारूढः सर्वकालं गीतगानं कारयति, भार्याद्वयेन च सारिपाशकबूते रमते । इत्थं तं विलसन्तं दृष्ट्वा जनो वक्ति - अहो ! असम्भाव्यं दृश्यताम् , श्रेष्ठिनोऽपि प्रकृतिपरावर्तों जात इति । तेन धूर्तेन सत्योऽयमर्थः कृतः, यथा
धणु' संचई केई कृपण, विलसीजई छयल । रंगि तुरंगम जव चरई, हल वहिय मरई बइल्ल ॥११९॥
तथा -
कदर्योपाजिता लक्ष्मी गो भाग्यवतां भवेत् ।
दन्ता दलन्ति कष्टेन, जिह्वा गिलति लीलया ॥१२०॥ इतश्च कियत्यपि गते काले स कृपणश्रेष्ठी विदेशादाययौ, सर्वक्रयाणकं दानमण्डपिकायामुत्तार्य स्वगृहं रात्रौ समागतो भणति — भो भो द्वारपालाः ! द्वारमुद्घाटयत । तैरुक्तम् - कस्त्वम् ? । सोऽब्रवीत् -- अहं हापाकश्रेष्ठिनामा गृहस्वामी। तैरुक्तम् - रे ! को हापाकः ?, एकोऽस्माकमग्रेऽपि श्रेष्ठि हापाकोऽस्ति, त्वं नवीनः कोऽपि धूर्तः । स दध्यौ - सम्प्रति नेते मां लक्षयन्ति, प्रातर्वार्ता । इति ध्यात्वा तत्र श्रेष्ठी स्थितोऽचिन्तयत् - ननु द्वितीयः कोऽसौ हापाक ? । इति मनसि खिद्यमानो महाा निशां बहिनिर्गम्य प्रातमध्ये प्रविशन् स द्वाः स्थैर्गलहस्तितः । तदा स कृपणश्रेष्ठी कथञ्चिन्मध्ये निरीक्षमाणो दोलाखट्वारूढं कृत्रिम हापाकश्रेष्ठिनं दृष्ट्वोदरे दाहे पतितेऽचिन्तयत् - अहो ! केनापि धूर्तेन मम गृहसर्वस्वं भक्षितम्, अहं प्रवेशमपि न लभे, धनिकोऽप्यहं चौरो जातः, कस्याग्रे स्वदुःखमिदं वच्मि ? परं 'दुर्बलस्य बलं राजा' इति ध्यात्वा पूगीफल-मदनफल-निम्ब-बिल्व-बदरीफलादि ढौकनिकां लात्वा राजसभां गत्वा तां पुरो मुक्त्वा प्रणामं कृत्वा हापाकः स्थितः । -- 1. धन सञ्चयन्ति केऽपि कृपणाः, विलसन्ति छेकाः । रङ्गेन तुरङ्गमा यवान् चरन्ति, हलं उद्ध्वा म्रियन्ते बलीवः ॥
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जिनदत्तकथानकम्
___ राजोवाच – भो श्रेष्ठिन् ! आगच्छत निषीदत वदत केषु केषु देशेषु यूयं भ्रान्ता !, किं किं वस्तुपटलमानीतम् ?, पुनः क्वापि किमप्यपूर्वमाश्चर्य दृष्टम् ? ततः स्पष्टं सकष्टं श्रेष्ठयाचष्ट - राजन् ! एकत्र कच्छे मया वृतिश्चिर्भटकानि खादन्ती दृष्टा । राजाऽऽह - अघटमानमिदम्, इत्थं कथं स्यात् ? श्रेष्ठ्याह -कथमिदं न स्यात् ?, यन्मदीयां श्रियं राजाऽन्यस्मै विटाय दद्यात् , 'यतो रक्षा ततो भयम् ' इति त्वया प्रजापालेनापि सत्यापितम् । 'अहो! इदं स्वरूपमस्माकमज्ञातम्' इति वदति राज्ञि स धूर्तस्वरूपमुक्त्वा जगौ - देव ! तवाऽऽश्वासं विना कोऽपि कस्यापि किमपि ग्रहीतुं शक्नोति ? यमं विना किं शिशवो म्रियन्ते ?
ततो न्यायधर्मनिष्ठो राजा धूर्तावानाय तद्गृहे पुरारक्षान् प्राहिणोत् । ततस्ते श्रेष्ठिगृहे गत्वा द्वाःस्थानां राजादेशं जगुः । ते मध्ये गत्वा ‘देव ! द्वितीयनवीनागतहापाकष्ठिकृतरावीव्यतिकरे त्वां भूपतिराह्वयति' इति भाषन्ते स्म । ततस्तेन पुरारक्षाः क्षणं स्थापयित्वा गौरविताः । ततः सकलकोशसारै रत्नभारैविशालं सुवर्णस्थालं भूत्वा जात्यतुरंगममारुह्य सर्वमूषणभूषिताङ्गः कृत्रिमश्रेष्ठी सभां गतः । ततोऽपूर्वैरपूर्वस्तुभिरुपदा राज्ञः कृता, यतस्तस्य पितुः किमपि याति ? यदि याति तदा तस्य कृपणश्रेष्ठिनः सर्व याति । पुनस्तस्य हापाकस्य क्षेमक्षितिर्न ह्यासीत् । तथा तं कृतकं सत्यं च श्रेष्ठिनमालोक्य सर्वे राजादयो विस्मितमुखाः शिरो धूनयन्तश्चिन्तयन्ति – अहो ! आकृत्या सदशत्वं नेदृशं भूतं न भावि, तदेतयोर्मध्ये कः कूटः ? ।
ततो राज्ञा पृष्टे श्रेष्ठिभ्यां स्वस्वसम्बन्धे प्रोक्ते राज्ञा कारणिका आहूयाssदिष्टाः – निर्णयः क्रियतामिति । किमनेन दुर्दशालयेन ?, अहो ! लोभस्त्रिभुवनं परावर्त्तयति यदीदृशा न्यायकारिणः प्रधानपुरुषा अपि येन लोभेन मुह्यन्ति । अतः कान्तीपुर्या मकरध्वजराजराज्ये सरोमध्यस्थेन मस्तकेन सत्यमुक्तं यद् ‘एकेन बुडति' इति ।
लोभो' सव्वविणासी, लोभो परिवारचित्तभेयकरो ।
सव्वावइ-कुगईण लोभो संचाररायपहो ॥१२१॥ ततः सर्वैर्मन्त्रिभिविमृश्य प्रोक्तम् - राजन् ! उपदाकारी प्रमाणीक्रियताम् , सम्यग्ज्ञानाभावात् । ततो राज्ञोचे - नैवम्, किं कार्यमुपदया ?, सत्यं न्यायं कुरुत । ततस्तैरूचे-यद्येवं तर्हि न वयं परमार्थ वि : । ततः स्वबुद्धया राज्ञोचे - भोः प्रधानाः ! ___ 1. लोभः सर्वविनाशी, लोभः परिवारचित्तभेदकरः, सर्वापत्-कुगतीनां लोभः सञ्चारराजपथः ॥ . . .
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विमलमतीवक्तव्ये हापाकश्रेष्ठयुदाहरणम अस्य श्रेष्ठिनो गृहात् प्रियाद्वयमाकार्य यूयं कथयत 'एतयोर्द्वयोरेकः सत्यो भर्ता युवाभ्यामङ्गीक्रियताम्' इति । ____ अथ मन्त्रिप्रहितै राजपुरुषैपिाकस्य गृहं गत्वा राजादेशे प्रोक्ते ताभ्यां द्वाभ्यां स्त्रीभ्यां सर्वशृङ्गारं कृत्वा याप्ययानमारुह्य राजसभां गच्छन्तीभ्यां मार्गे मिथः प्रोक्तम् - " राजादेशे सति कः स्वीकरिष्यते ? यः सम्प्रति नवीनो विदेशागतोऽस्ति स एव स्वीयपतिः सम्भाव्यते, यतः कदर्यप्रकृतिरयम् , प्रकृतिश्च दुस्त्याज्या यदुक्तम् – 'या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता दुःखेन सा त्यज्यते । ततोऽयं स्वपतिः कदर्यधुर्यः स्वकीये शिरस्याऽऽजन्मभग्नोऽस्त्रि, अनेनात्मीयमुदरं सदा ज्वालितम् , असौ च द्वितीयश्रेष्ठी निजोदरं निर्वापयति, तदेतयोर्मध्ये कोऽङ्गीकरणीयः ?" इति परस्परेणोक्ते विमृश्य वृद्धया भणितम् – 'यो दत्ते स देवता' अमुमेव न्यायमादृत्यायमुदार एव स्वीकार्यः, पुनस्तस्य पापिनः कृपणमुख्यस्य नामापि न ग्राह्यम् । ततो द्वितीययोक्तम् - इदमेव सुन्दरं प्रोक्तम् , ममापि रुचितम् । इत्थं मिथः साम्मत्ये कृते सभायां ते द्वे समेते ।
राजोचे - भोः सुन्दयौं ! यो द्वयोर्मध्ये सत्यः श्रेष्ठी स बाहौ ध्रियताम् , पुण्यं पापं च युवयोर्मस्तके, अत्रार्थे वयं निष्कलङ्काः किमपि न विद्मः । इति राज्ञोक्ते ताभ्यां एकभविनीभ्यां विषयलोलाभ्यां कृत्रिमश्रेष्ठी स्वीकृतः । ततः सत्यश्रेष्ठी राजादेशाद् गलहस्तितः । ततोऽयं ग्लानिं गतः निराधारो जातः काष्ठवदचेतनोऽभूत् ।
_____ अत्रान्तरे राजजनैरान्दोल्यमानं ताड्यमानं च तं दृष्ट्वा सदयहृदयो धूर्तहापाको दध्यौ – हहा! अस्य हृदयं स्फुटिष्यति, अहं हत्याऽपवादी भविष्यामि, मया तु स्ववाञ्छितं पूरितम् , कस्या अपि वर्ताया अवसानं न गृह्यते, अस्य सर्वस्वमस्यैवार्यते । इति ध्यात्वा कृत्रिमश्रेष्ठी विडम्बनाकरान्' जनान् निवार्य राजानमूचे- हे कृपालुभूपाल । यदि मयि छलं न स्यात् तदा धर्मार्थ युक्तं किञ्चिद् वदामि । ततो राजोचे- हे श्रेष्ठिन् ! भवतो महापराधस्यापि सम्प्रति दण्डं न करोमि, यथेच्छं वदेति । ततो धूतोंऽवदत् - देव ! अयमेव श्रेष्ठी सत्यः, अहं तु कूटः । इति प्रोक्ते राज्ञा च साश्चर्येण 'कथम् ?' इति पृष्टे तेन सर्वो मूलवृत्तान्तः कथितः । ततो धूर्तः सर्व श्रेष्ठिनोऽर्पयित्वा ब्रूते -
दातव्यं भोक्तव्यं, सति विभवे सञ्चयो न कर्तव्यः ।
यदि सञ्चयं करिष्यसि, हापा ! पुनरागमिष्यामि ॥१२२॥ J-5
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जिनदत्तकथानकम्
इति प्रतिबोधदानेन सर्वेषां चमत्कारमुत्पाद्य धूर्तः शीघ्र स्वस्थानं गतः । ततः श्रेष्ठी लज्जितः प्रियाद्वययुतः स्वगृहं गत इति । तदा सर्वै राजादिभिः भार्याद्वयं निन्दितम् - आः ! एताभ्यां किमकृत्यं कृतम् ?, तन्महापापिन्यावेते इति ।
विमलमतिः सर्व' कथानकं प्रोच्य वदति स्म – अहो ! वामन ! हे श्रीमति ! विषयसुखलौल्येन ताभ्यां लोकद्वयं यथा हारितम् , इहावर्णवादो जातः परत्र दुर्गतिश्चेति तथा नाहं भवामि, न पुनरहं तद्वद् इहलोकसुखगा न केनापि परावत्यै ।
अत्रान्तरे सर्वपौरलोकैश्चिन्तितम् – अहो ! अस्या वचनचातुर्यम् , अहो ! शीलनिश्चलता च । श्रीमती विज्जाहरी च द्वे अपि किकर्तव्यतामूढे जाते । 'कथमेषा प्रत्याययिष्यते ?' इति । वामनस्तु स्वकान्तां शीलैकान्तदृढां ज्ञात्वा मनसि मुदितो जातोऽस्ति ।
[ जिनदत्तकृतं मदोन्मत्तहस्तिवशीकरणम् ] इतश्च राजकुञ्जर आलानस्तम्भं मोटयित्वा भारसहस्रशङ्खलां त्रोटयित्वा, प्रतोली पातयित्वा, शुण्डया बहुजनान् पीडयित्वा सर्वनगरं हतप्रायं करोति स्म । स व्यालः साक्षात्काल इव सर्वजनस्य जातः । ततो बुम्बाकरेण नरेण केनापि राज्ञे प्रोचे - देव ! तव पट्टहस्ती मदोन्मत्तो जातः, तद्भयेन सर्व' पुरं दिशि दिशि नष्टम् । तच्छ्रुत्वा सर्वमुत्थितम् । ततोऽरण्यमिव शून्य रणमुखं पुरं दृष्ट्वा लोकं निजप्राणरक्षार्थ वृक्ष-गिरि-चैत्यादिशिखरारूढं च ज्ञात्वा स्वयमपि राजा बहिर्वने गतो मूढबुद्धिर्दध्यौ – संसारे स एव श्लाघ्यावतारो योऽधुना किकर्तव्यतामूढस्य मम बुद्धि ददाति, किमपरैनरैः । यदुक्तम् -
आसन्ने रणरंगे, मूढे मंते तहेव दुब्भिक्खे ।
जस्स मुहं जोइज्जइ, सु च्चिय जाओ किमन्नेणं ? ॥१२३॥ ततो नृपो बभाषे – भो भो वीराः ! भवतां मध्ये स कोऽप्यस्ति य एनं पट्टहस्तिनं वशवर्तिनं करोति ? परं केनापि कृतान्तदुर्दान्तः कोपाक्रान्तः स गजो न नामितः ।
ततो राज्ञा पटहवादनपूर्वमित्याघोषयामासे – यः कोऽपि गजमेनं वशमानयति तस्य राजा राज्यार्द्ध मदनमञ्जरी च कन्यां दत्ते । इति पटहोद्घोषणा सर्वत्र कारिता, परं केनापि भयभीतेन जनेन न तत् क मशक्यत । परं 'किमत्र भावि ? सम्प्रत्येव किं कल्पान्तो भविष्यति ?' इति सर्वैर्व्याकुलीभूतम् ।
1. आसन्ने रणरङ्गे मूढे मन्त्रे तथैव दुर्भिक्षे यस्य मुखं दयते स खलु जातः, किमन्येन १ ॥
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जिनदत्तकृतं मदोन्मत्तहस्तिवशीकरणम् अत्रान्तरे वामनेन पटहः स्पृष्टः । ततो राज्ञोऽग्रे पाटहिकस्तत्र व्यतिकरे विज्ञप्ते राजादेशात् प्रधानैः स वामनो राज्ञोऽग्रे समानीतः । 'भो वामन ! त्वं हस्वरूपोऽपि महासुभटदुराकलनीयं गजं वशं कथं नेष्यसि ?, स्वात्मशक्ति विचारय' इति राज्ञोक्ते वामन आह -
“कां' किज्जइ लहुडई वडई ? पुरिसह फुरण प्रमाण ।
लहुड केसरि समरभरि मलइ गइंदह माण ॥१२४॥ अथवा बहुवाग्जालेन किम् ? फले व्यक्तिर्भविष्यति, यतो महान्तः कर्तव्यशूराः, न तु वाक्छूराः; ततो महाराज ! कदाचिदिदमपि स्यात् तदा किं दत्से"। ततो भूपतिः सर्वजनसमक्षमूचे-यद्येवं स्यात् तदा 'अर्द्धराज्यं कन्यां च ददामि' इति मम प्रतिज्ञा ।
ततो वामनो विनोदेन गजवशीकरणी विद्यां स्मृत्वा चचाल । राजादयस्तु लोकाः पृष्ठस्थिताः कौतुकं विलोकयन्ति । तदा गजान्तिकं गत्वा वामनस्तमाहवयते - रे पशो! किं वृथा वराकं लोक नटयसि ?, यदि तव काऽपि शक्तिरस्ति तदा मत्सम्मुखमागच्छ । इति श्रुते शुण्डामुत्पाट्य रोषारुणः स गजो धावितः । ततो वामनस्तनुलाघवेन पुरःस्थितो यथा चक्रवद् भ्राम्यति तथा स गजोऽपि पृष्ठलग्नो भ्रमति । इत्थं बहुवेलं भ्रमरकवत् तेन स गजो भ्रामितः । ततः श्रमेण सर्वमदोऽस्य गलितः, निर्वीर्यत्वं च जातम् । ततः करणं दत्वा वामनो गजशिरो वेगादारूढः, कुम्भस्थले मुष्टिप्रहारेण हत्वा गजो वशीकृतश्च । ततो जनो दध्यौ-नायं वामनमात्रः, किन्तु सुरो विद्याधरो विद्यासिद्धो नरो वा कोऽप्यस्ति । ___अथ सर्वलोकेषु कौतुकं पश्यत्सु राजानं तत्राऽऽगतमालोक्य स्वयं स वामनो विनीतत्वाद् गजादुत्तीर्णः । अहो ! कुलीनानां स्वभाव ईदृश एव स्यात् । यतः -
'को चित्तेइ मयूरे ?, गई च को कुणइ रायहंसाणं ? ।
को कुवलयाण गंधं, विणयं च कुलप्पसूयाणं ? ॥१२५॥ ततो वामनो वदति – हे राजराज ! त्वमेनं गजराजमारोह, मा भैषीः । इत्युक्तोऽपि नृपो विभ्यत् तं नाऽऽरुरोह, 'बृहस्पतिरविश्वस्यः' इति नीतिवाक्यप्रामाण्यात् । ततः स्वयं वामनेन विद्याबलेन कर्णे धृत्वा क्षणेन हस्ती हस्तिशालायां बद्धः ।
___1. किं क्रियते लघुना गुरुणा ?, पुरुषस्य स्फुरणं प्रमाणम् । लघुः केशरी समरभरे मर्दयति गजेन्द्रस्य मानम् ॥ 2. वडई? सत्तह फुरइ प्र° प्रत्यन्तरे ॥ 3. दलड प्रत्यन्तरे ।। 4. कः चित्रयति मयूरान् ? गतिं च क: करोति राजहंसानाम् ? कः कुवलयानां गन्धं विनयं च कुलप्रसूतानां [करोति ] १ ॥
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जिनदत्तकथानकम्
[ वामनरूपधारिणे जिनदत्ताय निजकन्यादाने प्रतिज्ञाबद्धचम्पानगरीनृपस्य चिन्ता ]
ततः सभाऽऽसीनस्य नृपस्य पुरो गत्वा वामनो भाषते - राजन् ! निजप्रतिज्ञां पूरय, स्ववाणी प्रमाणीक्रियताम् । इति श्रुत्वा नृपतिरित्थं खिद्यते स्म " यदयं चार्वाकः कुरूपो वामनः क्व ? क्व चासौ मत्पुत्री मदनमञ्जरी सुरसुन्दरीसमा ?, ततः सम्बन्धोऽयमत्यर्थमनुचितः, यथा काकस्य ग्रीवायां मुक्तावली न शोभते, इत्थं योजितः सम्बन्धो लोकापवादाय स्यात् । यदुक्तम् -
तथा च -
-
कनकभूषणसङ्ग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रपुणि प्रतिबध्यते ।
न स विरौति न चापि न शोभते, भत्रति योजयितुर्वचनीयता ॥ १२६॥
तथा -
अज्ञातप्रतिभूकर्ता, अज्ञातस्थानदो गृहे ।
अज्ञातकुलसम्बन्धः, अज्ञातफलभक्षकः ॥ १२७॥
ततः सम्प्रति कथमहं करोमि ?, एकतः प्रतिज्ञा, अन्यतः कुयोगः ; ' इतो व्याघ्रः, इतस्तटी ' इति न्यायो जातः " । इति विचिन्त्य राजोचे - भो वामन ! कन्यां विना देशं गजं तुरङ्गमं परमपि प्रकृष्टं वस्तु याचस्व ।
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अथ वामनो वदति
." राजन् ! श्रृणु
समुद्राः स्थितिमुज्झन्ति चलन्ति कुलपर्वताः । प्रलयेऽपि न मुञ्चन्ति महान्तोऽङ्गीकृतं व्रतम् ॥ १२८ ॥
अलसंतेहिं' विहु सज्जणेहिं जे अक्खरा समुल्लविया । ते पत्थरटंकुक्कीरिय व्व नहु अन्हा हुंति ॥१२९॥
इति जानन्नपि त्वं यदि प्रतिपन्नं न पालयसि तदा मम देशादिभिरप्यलम् " । ततो भूपति"अहो सङ्कटं जातम्, किमहं करोमि ? अनेनापि युक्तमुक्तम् । यदुक्तम् -
दध्यौ
राज्यं यातु, श्रियो यान्तु शरीरं यातु मे ध्रुवम् ।
या मया स्वयमेवोक्ता वाचा मा यातु शाश्वती ॥ १३० ॥
1. अलसायमानैरपि खलु सज्जनैः ये अक्षराः समुल्लपिताः ते प्रस्तरङ्कोत्कीर्णा इव न खलु अन्यथा
भवन्ति ॥ 2. • टंकक्कोरिय व्व' प्रत्यन्तरे ॥ 3. ' यान्तु यान्तु प्राणा विनश्वराः । या' प्रत्यन्तरे ॥
०
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प्रतिज्ञाबद्धस्य नृपस्य वामनाय निजपुत्रीदाने चिन्ता
परं पुत्री राज्ञी प्रधानाद्या अपीमं सम्बन्धं नेच्छन्ति, किमहमेकः करोमि विमृश्य राजा तद्दिने वामनं कार्यान्तरव्यपदेशेन विससर्ज । भूपतिर्यथातथाकल्पितैरेवोत्तरैर्दिनानि गालयति ।
यदुक्तम्
तथा
अशुभस्य कालहरणं, कालेन क्षीयतेऽशुभम् ।
चिन्तां मा कुरु हे तात ! कालः कालो भविष्यति ॥ १३१ ॥
" । इत्यादि
तथा प्रत्यहं वामनयाच्ञायां
कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १३२॥
क्षणेन लभ्यते यामो, यामेन लभ्यते दिनम् । दिनेन लभ्यते कालः, कालः कालो भविष्यति ॥१३३॥ दिवारात्रं तया चिन्तया दुःखातुरो दुर्बलोऽपि राजा जातः । यतः
चिता' डाइणिजिहां वसइ तीह अंग दृढ किमु थाइ ? | जउ धीरउ धीरिम करइ तउ अभितरि खाइ ॥ १३४ ॥
[ केवलिकथितं जिनदत्तस्य वामनस्वरूपम् ]
इत्थं कियत्स्वपि दिनेषु गतेषु केवली तत्र पुरे समवासार्षीत् । तदा वनपालो महिपालं वर्द्धापयामास देव ! तवोद्यानमद्य केवली स्वचरणन्या सैरलङ्करोति । इति श्रुत्वा राजा पारितोषिकं दत्त्वा नगर लोकसहितो वनं गत्वा विधिवद् गुरुं नत्वा यथोचितप्रदेशे / निषण्णो देशनां शृणोति, यथा “भो भव्याः ! भवे जीवानां ज्ञानमेव दुर्लभम् विज्ञानं
"
पशुष्वपि दृश्यते, यथा
_
-
विज्ञानं किमु नोर्णनाभ - सुगृही - को कासि-हंसादिषु, युद्धं किं न लुलाप-लावककुले मेषे तथा कुर्कुटे | नृत्तं गीतकला च केकि - पिकयोर्वाक् सारिका - कीरयोः, श्रीधर्माचरणे चिरं चतुरता यद्यस्ति मानुष्यके ॥१३५॥
आहार-निद्रा-भय-मैथुनानि तुल्यानि सार्द्धं पशुभिनराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिको विशेषो, ज्ञानेन हीनाः पशवो मनुष्याः ॥१३६॥
1. चिन्ता डाकिनी यत्र वसति तत्र अङ्ग दृढं कथं स्यात् । यदि धीरो धीरत्वं करोति तर्हि अभ्यन्तरे खादति ॥
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ચૂંટ
जिनदत्तकथानकम्
तुल्ले वि उयरभरणे मूढ - अमूढाण पिच्छसु विवागं । गाण नरयदुक्खं, अन्नेसिं सासयं सुक्खं ॥ १३७॥”
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इति श्रुत्वा देशनान्ते राजा पृच्छति – प्रभो ! मत्पुत्र्या को वरो भावी ? ततो ज्ञानी कथयति - वामन एवायमिति । राजोचे भगवन् ! कथमनुचितोऽयं सम्बन्धो घटते ? केवल्या ह 'राजन् ! उचित एवायं योगोऽस्ति । त्वमेनं वामनमात्रत्वेन माऽवज्ञासी:, यतो महासत्पुरुषोऽयम्, वसन्तपुरवास्तव्य कोटीध्वजव्यवहारिजीवदेवश्रेष्ठिपुत्रो जिनदत्तनामाऽयम्, तथा विद्याबलवानयं वामनो यदि चिन्तयति तर्हि त्वां सराज्यं सराष्ट्रमुन्मूलयति, किन्त्वेष विद्या - विनोदमात्रं करोति " । इति ज्ञानिमुखान्निशम्य भूपः प्रमोदभरनिर्भरो जातः ।
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ततः केवलिनं नत्वा स्वस्थानं गत्वा करौ योजयित्वा भूपतिर्वामनं प्रति जल्पति यथा - भो विद्यासिद्ध ! भो गुणवृद्ध ! भो जगत्प्रसिद्ध ! भो भाग्यसमृद्ध ! त्वं सर्व कौतुकं मुक्त्वाऽस्मदादिप्रीत्यर्थं स्वरूपं प्रकटीकुरु, मत्पुत्रीं च स्वीकुरु, विमलश्रेष्ठिपुत्रीरपि निजपत्नीत्वेऽङ्गीकुरु, मायारूपं च संहर तथाऽस्माकमुपरि प्रसादं कुरु । इति श्रुत्वाऽवसरं मत्वा निजं रूपं किञ्चित् कृष्णवर्णाच्छादितं कृत्वा राजादिप्रेरितः प्रथमं भार्यायान्तिकं स वामनो गतः ।
[ कृतस्वाभाविकस्वरूपस्य जिनदत्तस्य निजभार्यात्रयेण सह मेलापकः ]
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ततो राजा बभाषे - हे सुन्दर्यः ! सर्वे युष्मन्मनोरथाः सिद्धाः यदयं युष्मदीयो जिनदत्तो नाम पतिः समागतः, तदयं स्वस्वामी स्वीक्रियताम् । ततस्ता उत्फुल्ललोचनास्तमवलोक्य सप्रमोदा वदन्ति स्म वाक्यप्रामाण्यतः परं प्रसीद, निजं स्वाभाविकं रूपं प्रकटय, माऽस्मान् सत्त्वात् पातय, सत्त्वमध्ये सर्वमस्ति यतः - पूर्व श्रीविक्रमेण प्रहरचतुष्टयक्रमेण सर्वलक्ष्मी - गजाऽश्व-सत्त्वगमने ज्ञाते सत्त्वमेकं स्थापितम् । तद्वाक्यं यथा
" स्वामिन्! त्वं जिनदत्त एव, जनपरम्परा श्रुतकेवलि
"
――
जाउ लच्छि धणकणसहिय, अनई मयगल मयमत्त ।
तरल तुरंगम जाउ सवि, तुं म म जाइसि सत्त ! ॥१३८॥
ततो वयमपि सत्त्वं प्राणात्ययेऽपि न मोक्ष्यामः, तदद्यापि नाथ ! त्वं कियत् खेदयिष्यसि ? " । इति करौ योजयित्वा ताभिर्विज्ञप्ते वामनेन सुवर्णवर्णे स्मरतुल्ये निजे रूपेऽदभ्राश्रनिर्गत
1. तुल्येऽपि उदरभरणे मूढ अमूढानां पश्य विपाकम् । एकेषां नरकदुःखम्, अन्येषां शाश्वतं सुखम् ॥ 2. यातु लक्ष्मीः धनकणसहिता, अन्यच्च मद्गलाः मदमत्ताः, तरलाः तुरंगमा यान्तु सर्वे; त्वं मा मा याहि सत्त्व ! |
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जिनदत्त-मदनमञ्जर्यो: पाणिग्रहणम् शशिमण्डले इव प्रकटिते सर्वलोकानां प्रमोदो जातः । राजादयस्तु वदन्ति – “अहो! किं कुमारस्य जितदेव-भूपं रूपम् , जितेन्द्रसौभाग्यं भाग्यं वा वर्ण्यते ? अथ सदृशयोग- . धन्यानां कन्यानां वाऽगण्यं पुण्यं वर्ण्यते ?, यदुक्तम् -
सुकुलजन्म विभूतिरनेकधा, प्रियसमागमसौख्यपरम्परा ।
नृपकुले गुरुता विमलं यशो, भवति पुण्यतरोः फलमीप्सितम् ॥१३९॥ तथा पुरलोकोऽप्ययं धन्यः, येन सकलपुरुषकुलीनस्त्रीयोगोऽयमद्य दिष्ट्या दृष्टः, 'बहुजीवितपार्थाद्दर्शनं वरम्' इति जनश्रुतिरप्यस्ति ।” तदा सर्वैरपि निजदृष्टिसृष्टिः सफला मेने ।
[निजपुत्रीमदनमञ्जरी-जिनदत्तपरिणयनपूर्वकं चम्पानगरीनृपस्य
जिनदत्ताय निजराज्यसमर्पण दीक्षाग्रहणं च] अथ राजा तदैव पट्टहस्तिनमानाय्य जिनदत्तमारोप्य पञ्चशब्देषु वाद्यमानेषु, गान्धविकर्गीतेषु गायमानेषु, सधवाङ्गनाभिर्धवलमङ्गलेषु दीयमानेष, बन्दिजनैश्छन्दःसु पठत्सु, महामहेन राजभवनं नीत्वा तदानीमाहूतैः पृष्टैश्च ज्योतिषिकैस्तत्काललग्ने प्रोक्ते मदनमञ्जर्या समं ततः समेतः, सामन्तकृतनवनवातुच्छमहोत्सवपूर्व तं कुमारं पर्यणाययत् । करमोक्षावसरे तु दानोद्यतो राजा चिन्तयति – “असौ नररत्नं, अहं तु वृद्धो जातः वृद्धत्वे धर्म एवोचितः, यतः -
जउ' पूगी पंचास, पालि परतह बंधीइ ।
धन नई भोगविलास, आस न कीजइ आसनी ॥१४०॥ ममायमाश्रमोऽपि धर्मोचितो जातः, यदुक्तम् -
प्रथमे नार्जितं विद्या, द्वितीये नार्जितं धनम् ।
तृतीये नार्जितो धर्मश्चतुर्थे किं करिष्यति ? ॥१४१।। अथ च गतोदके कः खलु सेतुबन्धः ?, अथवा जन्तुर्नहि कदापि भोगैस्तृप्यति, यतः -
अम्बर पवणि न पूरीइ, नवि सायर सलिलेण ।
अग्गि न तिप्पइ इंधणिहिं, तिम जीय विसयसुहेण ॥१४२॥ 1. यतः परितानि पञ्चाशद [वर्षाणि ] [ततः ] पालिः परलोकस्य बनीयात् । धनस्य च भोगविलासानां आशां न क्रियात् आसन्नाम् ॥ 2. [ यथा ] अम्बरं पवनेन न पूर्यते, नापि सागरः सलिलेन; अग्निः न तृप्यते इन्धनः, तथा जीवः विषयसुखेन ॥
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जिनदत्तकथानकम्
अन्यच्च
धनेषु जीवितव्येषु, स्त्रीषु चाऽऽहारकर्मसु ।
___ अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे, याता यास्यन्ति यान्ति च ॥१४॥ तथा –
'भुत्ता दिव्वा भोगा सुरेसु असुरेसु तह य मणुएसु ।
न हु जीव ! तुज्झ तित्ती जलणस्स व कट्ठनियरेहिं ।।१४४॥ अपरं च - प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं !, दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ? । सम्प्रीणिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं ? कल्पं स्थितं तनुभतां तनुभिस्ततः किम् ? ॥१४५॥ इत्थं न किञ्चिदपि साधनसाध्यजातं स्वप्नेन्द्रजालसदृशं परमार्थशून्यम् ।।
अत्यन्तनिवृतिकरं यदपेतबाधं तद् ब्रह्म वाञ्छत जना यदि चेतनाऽस्ति ॥१४६॥ तथा मूढा एव विषयैर्मुह्यन्ति, न तु तत्त्वज्ञाः । यतः -
दधत तावदमी विषयाः सुखं स्फुरति यावदियं हृदि मूढता ।
मनसि तत्त्वविदां तु विचारके क्व विषयाः क्व सुखं क्व परिग्रहः ? ॥१४७॥ अन्यच्च मम पुत्रोऽपि राज्यधरो नास्ति, ततोऽमुष्मै पुरुषोत्तमाय मयाऽर्द्धराज्यमप्रेऽपि दत्तमस्ति, तस्मादस्यैव जामातुः सकलं राज्यं ददामि, अहं तु कृतकृत्यस्तपोवनं व्रजामि"। इति विचिन्त्य तस्मै जिनदत्ताय तस्मिन्नेव मुहत्त पट्टाभिषेकपूर्व सर्व राज्यं ददौ ।
स राजा सप्तक्षेत्राणि समाराध्य सर्वजनान् मुत्कलाप्य कृतकृत्यीभूय सद्गुरुश्रीगुणाकरसूरिपाश्व प्रवव्राज ।
[जिनदत्तराज्यर्द्धिमुद्दिश्य लोकानां वर्णवादः] ____ अथ जिनदत्तो राजा राजेव सद्वत्तः सौम्यः कलावान् सदाचारोऽपि चित्रं न दोषाकरो न क्षयभाक् च राज्यं करोति तदा सर्वेऽपि पौरा वर्धापनमुद्दिश्य मुक्ताभृतस्थालेस्त संभासीन वर्द्धयन्ति । सीमाला महीपाला अपि ढौकनिकां पुरो मुक्त्वा प्रत्यहं सेवमानाः सन्ति । तस्योपरि श्वेतातपत्रं ध्रियते, तस्योभयतश्चामरधारिणीभिश्चन्द्ररुचिचामराणि चाल्यन्ते । षटत्रिंशद्राजकुलैरहोरात्रं यः सेव्यते । प्रत्यहं पञ्चविधपात्राणि पुरतो नृत्यन्ति । एवं राज्यं कुर्वन्तं
__ 1. भुक्ता दिव्या भोगाः सुरेषु असुरेषु तथा च मनुष्येषु, न खलु जीव ! तव तृप्तिः ज्वलनस्य इव काष्ठनिकरः ॥
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जिनदत्तराज्यर्द्धवर्णवादः
तं दृष्ट्वा लोका इति वदन्ति - " अहो दृश्यतां धर्मलीलायितम्, यदि राज्यं क्रियते तदाऽमुना राज्ञेव क्रियते, अन्यथा सर्वसङ्गत्याग एवोचितः । यदुक्तम् -
-
तथा
अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः, पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् । यद्यप्येवं कुरु भव रसास्वादने लम्पटत्वं, नो चेच्चेतः ! प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ ॥ १४८॥
दु च्चिय' हुंति गईओ साहसवताण धीरपुरिसाणं । विल्लहलकमलहत्था रायसिरी अहव पव्वज्जा ॥१४९॥
तथा केचित् तत्त्वज्ञा वदन्ति अहो धर्म एव क्रियतां यत्प्रभावेण निरुपमं निष्कण्टकं निष्कलङ्कं निरातङ्कं राज्यमेतस्य जातम् । अथवा
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कि जंपिएण बहुणा ? जं जं दीसह समग्गजियलोए । इंदिय-मणाभिरामं तं तं धम्मप्फलं सव्वं ॥ १५० ॥ धर्माद् धनं धनत एव समस्तकामाः कामेभ्य एव सुखमिन्द्रियजं समग्रम् । कार्यार्थिना हि खलु कारणमेषणीयं, धर्मों विधेय इति तत्त्वविदो वदन्ति ॥ १५१ ॥ "
[ निजपत्नीभिः सह विरहदुःखानुभववार्तायां जिनदत्तस्य कर्मोदयफलनिवेदकं वक्तव्यम् ]
एकदा सर्वप्रियाभिः सह रममाणस्य राज्ञः समीपे विमलमती - श्रीमती - विज्जाहरीभिः प्राक्तनो विरहावसरसत्कः सम्बन्धः पप्रच्छे यस्या यावान् यावानज्ञातः सम्बन्धोऽभूत् । तेनापि राज्ञा स्वयमज्ञातो निजप्रियापूर्ववृत्तान्तोऽप्रच्छि । ततः परस्परं निजस्वरूपकथनेन किञ्चिच्चित्तसमाधिः कृतः । पुनस्ताभिः प्रियाभिरुक्तम्- स्वामिन्! एतावन्ति दिनानि बाढमस्मदीयं हृदयं दुःखभरप्रपूर्णमेवासीत्, यल्लोके तादृशः कोऽपि सज्जनो न दृश्यते यदग्रे तानि दुःखान्युक्त्वा स्तोकानि क्रियन्ते । यदुक्तम् -
८८
-
-
1. द्वौ खलु भवतः गती साहसवतां धीरपुरुषाणाम् - कोमलकमलहस्ता राज्यश्रीः अथवा प्रव्रज्या ॥ 2. किं जल्पितेन बहुना ? यद् यद् दृश्यते समग्रजीवलोके इन्द्रिय-मनोऽभिरामं तत् तद् धर्मफलं सर्वम् ॥
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जिनदत्तकथानकम्
'सो को वि नत्थि सुयणो जस्स कहिज्जंति हिययदुक्खाई ।
हिययाओ इंति कंठे, कंठाओ पुणो विलिज्जति ।।१५२।। तत् पुनर्हृदयं दुःखनिर्भरमपि यन्न स्फुटितं तन्निःश्वासस्य प्रमाणम् । यदुक्तम् -
"सव्वह दुक्खह उल्लीचj, जउ नीसास न हुँतु ।
हीउं रन्नतलाव जिम, फुट्टी दहदिसि जंतु ॥१५३॥ तथा बहु किमुच्यते ? नाथ ! अस्माभिर्युष्मद्विरहे बहुकालं वचनगोचरातीतं दुःखमनुभूतम् " । इति पुनः पुनस्ताभिरुक्ते शोकाश्रुजलार्द्रनयनो राजोवाच - हे प्रियाः ! कर्मणामियं वैचित्री, यदुक्तम् -
राम किं मत्थइ जड वहइ पहिरी वक्कलवत्थ ? ।
विहि लिहावइ विहि लिहई, को भंजिवा समत्थ ? ।।१५४॥ पुनः श्रयताम् – “हे बालाः ! युष्माभिरपि क्वापि जन्मनि पशु-पक्षि-मनुष्यादीनां मत्सरेण भोगान्तरायकर्म कृतं भावि, अथवा कोऽपि मुनिसन्तापादिकर्मविशेषः कृतो भविष्यति तेनेदं दुःखं समुपस्थितम् । यतः -
"सव्वो पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं ।
अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होइ ॥१५५॥ पुनर्पूयं पूर्वसतीकर्मविपाकं शृणुत, यथा -
"जिणि मुणिवइ संतावीया बार घडी इणि लोगि । दवदंती दुक्खइं सहिया वरसहं बार वियोगि ॥१५६॥
:
तथा -
जोउ जगविख्यात, सीत सती जगि जाणीइ ।
मुकी वनि विलवंत, कर्म करिउं इम माणीइ ॥१५७|| : 1. स कोऽपि नास्ति सुजनः यस्य कथ्यन्ते हृदयदुःखानि, हृदयाद् यान्ति कण्डे, कण्ठात् पुनर्विलीयन्ते ।। 2. सर्वेषां दुःखाना उद्रेचनं यदि निश्वासाः नाभूवन् [तर्हि ] हृदय रण्यतडाक इव स्फुटित्वा दशदिक्षु अगमिष्यत् ॥ 3. रामः किं मस्तके जटां वहति परिधाय वल्कलवस्त्रम् ? । विधिः लिखापयति, विधिः लिखति, कः भक्तुं समर्थः १ ।। 4 सर्वः पूर्वकृतानां कर्मणां प्रप्नोति फलविपाकम् , अपराधेषु गुणेषु च निमित्तमात्र परो भवति ॥ 5. यया मुनिपतिः सन्तापितः द्वादश घटयः अस्मिन् लोके [तया ] दवदन्त्या दुखानि सहितानि वर्षाणां द्वादश वियोगेन ॥ 6. पश्यथ, जगद्विख्याता सीता सती जगति = लोके ज्ञायते, मुक्ता वने विलपन्की कर्म कृतं एवं भुज्यते ॥
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कर्मविपाकनिरूपणम्
तथा - -कर्मप्राधान्येनैव महर्षीणामपि महदुःखं जातम् , यथा -
'सणंकुमारपामुक्खा, चक्किणो वि सुसाहुणो । वेयणाओ कहं पत्ता ? न हुतं जइ कम्मयं ॥१५८।। गयसुकुमालस्स सीसम्मि खायरंगारसंचयं ।। पक्खिवंतो कहं भट्टो ? न हुतं जइ कम्मयं ॥१५९॥ "सुसीसा खंदगस्सावि पीलिज्जता तहा कहं । जतेण पालएणं? न हुतं जइ कम्मयं ॥१६॥ *अंधत्तं बंभदत्तस्स सदेवस्सावि दुस्सहं । चक्किस्सावि कहं भूतं ? न हुँतं जइ कम्मयं ॥१६१॥ मियापुत्ताइजीवाणं कुलीणाण वि तारिसं ।
महादुक्खं कहं भूतं ? न हुँतं जइ कम्मयं ॥१६२॥ इति ज्ञात्वाऽपि हे भद्राः ! यूयं शास्त्रज्ञाः कथं मुह्यथ ?, यदुक्तं शास्त्रे -
सुखस्यानन्तरं दुःखं, दुःखस्यानन्तरं सुखम् । सुखदुःखं हि जीवानां चक्रवत् परिवर्त्तते ॥१६३॥ दुःखे दुःखाधिकं पश्येत् , सुखे पश्येत् सुखाधिकम् ।
आत्मानं सुख-दुःखाभ्यां शत्रुभ्यामिव नार्पयेत् ॥१६४॥ इति विचिन्त्य युष्माभिः शोक-हर्षर्योर्मनो नार्पणीयम्" । इत्युक्त्वा तासां सुखमुत्पाद्य भूपतिस्ताभिः समं सदा हृदानन्देन समयं गमयति । कदापि रूपाभिराभा रामा रमयति, कदापि राजपाट्यां विनोदेन सैन्यं भ्रमयति, कदापि रिपुवर्ग नमयति, कदापि धर्ममाश्रित्य निजं मनः शमयति, कदापि स वशी पञ्चेन्द्रियाश्वान् दमीव दमयति, एवं स राजा निष्कण्टकं राज्यं रचयति ।
1. सनत्कुमारप्रमुखाः चक्रिणोऽपि सुसाधवः वेदनाः कथं प्राप्ताः१ नाभवद् यदि कर्म ॥ 2 गजसुकुमालस्य शीर्षे खादिराङ्गारसञ्चयं प्रक्षिपन् कयं भट्टः ? नाभवद् यदि कर्म ।। 3. सुशिष्याः स्कन्दकस्यापि पील्यमानाः तथा कथं यन्त्रेण पालकेन ? नाभवद् यदि कर्म । 4. अन्धत्वं ब्रह्मदत्तस्य सदेवस्यापि दुःसहं चक्रिणोऽपि कथं भूतम् ? नाभवद् यदि कर्म ॥ 5. मृगापुत्रादिजीवानां कुलीनानामपि तादृशं महादुःखं कथं भूतम् ? नामवद् यदि कर्म ॥
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जिनदत्तकथानकम् [जननी-जनकस्मरणाद् जिनदत्तस्य वसन्तपुरं प्रति प्रस्थानम् ] अन्यदा गवाक्षस्थः स्वस्थः पृथ्वीशो निजां राज्यस्थितिं विलोक्य चिन्तयति-- यद् मम गजा-ऽश्व-कोश-कोष्ठागार-परिवार-जनपद-दास-कर्मकरादीनां पारो नास्ति, यदन्यदप्यश्ववारहस्त्यारोहपारो नास्ति, मन्त्रिसामन्तादिपारो नास्ति; रथ-पत्तीनामपि पारो नास्ति, सुखस्यापि पारो नास्ति, यदन्यदपि किमपि संसारे सारं स्यात् तन्मम सर्वमपारं विद्यते, संसारे यन्नास्ति तन्ममापि नास्ति । पुनः राजा विमृशति - ननु किञ्चिदद्यापि ममापि न्यूनमस्ति । इति पुनःपुनरूहापोहं कुर्वतो राज्ञो माता-पितरौ स्मृतिमागतौ । तदा शोकसागरमग्नो राजा चिन्तयति — " हहा ! हतदैवेन मुषितोऽस्मि यदनेन मम माता-पित्रोवियोगः कृतः, तदहो मम यदि पितरौ न स्तस्तर्हि किमस्ति ?, न किञ्चिदपीत्यर्थः, अहो यद्यद्य तौ पितरौ भवतस्तदा तयोः कियत् सुखमुत्पद्यते ?, तथा ममेदं प्राज्य राज्यं धिगस्तु यदिदं माता-पित्रादिस्वजना न पश्यन्ति न भुञ्जन्ति च । यदुक्तम् -
प्रभूतेनापि किं तेनोपाजितेन धनेन भो! ।
येनात्मीयमनुष्याणां संविभागो न विद्यते ॥१६५॥ तथा
पात्रे त्यागी, गुणे रागी, भोगी परिजनैः सह । शास्त्रे बोद्धा, रणे योद्धा, पुरुषः पञ्चलक्षणः ॥१६६॥
तथा
धम्म' न संचीय तव न तवीय, सयण न पूरी आस ।
ईमइ जणणिकिलेस किय गन्भट्ठिय नवमास ॥१६७॥ तथा पूर्व या मम मातेति विमृशति स्म 'यदहं मत्पुत्रं संसारसुखेन विलसन्तं कदा विलोकयिष्यामि ?' इति सा मद्वियोगे कथं कुर्वन्ती भविष्यति !, तथा मातुरुपकाराणां संसारे न कोऽप्यनृणः स्यात् , या गर्भवासादारभ्य क्लेशसहस्रं सहे । यदुक्तम् -
आस्तां तावदियं प्रसूतिसमये दुर्वारशूलव्यथा, नैरुज्येऽपि च लङ्घनं, मलमयी शय्या च संवत्सरम् । एकस्यापि न गर्भवास दिवसक्लेशस्य यस्याः क्षमो
दातुं निष्क्रयमुद्यतोऽपि तनयस्तस्यै जनन्यै नमः ॥१६८॥ - 1. [ येन ] धो न सञ्चितः, तपो न तप्तम् , स्वजनानां न पूरिता आशाः, [ तेन ] निरर्थकं जननीक्लेशः कृतो गर्भस्थितेन नवमासान् ॥
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जिनदत्तस्य जननी-जनकवियोगस्मरणदुःखम् अस्मिन् जगति महत्यपि न किमपि तद्वस्तु वेधसा विहितम् ।
अनिमित्तवत्सलाया भवति यतो मातुरुपकारः ॥१६९॥" इति विचिन्त्य मातापित्रादिस्वजनवर्गमिलनोत्कण्ठितो नृपो वसन्तपुरगमनेच्छया सेनानीमाकार्य सत्वरमादिशति स्म, यथा- भो दण्डाधिप ! सर्वदेशविजयाय सैन्यं सज्जयेति ।
.. अथ दलपतिना शस्त्रा-ऽम्बारी-प्रक्षरबन्धुराः सिन्धुराः कृताः, वेगजितकुरङ्गा अपि दृष्टिदत्तरङ्गास्तुरङ्गा हेमपर्याणवल्गादिभूषिताङ्गाः कृताः, रथा ध्वजपताकालङ्कृताः कृताः, मुखमागितं प्रासमर्पयित्वा दण्डायुधजरद-टोप-रंगाउलि-जीणसालप्रमुखं च दत्त्वा पदातयः संवाहिताः, निस्वाने च घातः चालितः तदा तदाकारिताः समस्तसामन्ता मेलापके मिलिताः ।
अथ कटकवन्धं विधाय दिग्विजयाय पट्टहस्तिनमारुह्य पौरस्त्रीकृतमङ्गलो भूपालश्चचाल । 'अस्मिन् पुरे राज्ञि सति किमिहानेन' इति खे तदा रजसाऽऽच्छादितः सूरः, तथा चतुरङ्गसैन्यस्य किल ब्रह्माण्डं स्फुटतीति शक्काकारी निर्घोषो जायमानोऽस्ति, तत्सैन्यभराक्रान्ता पृथ्वी चकम्पे, गिरयः खडहडिताः, जलधयश्छलछलिताः, 'कोऽयं साधनसमुद्रो याति ?' इति शेषोऽपि शशके । तथा -
हास्तिका-ऽश्वीय-माहिष्य-कौक्षकोष्टकसङ्कुलम् । जनस्तच्चक्रमालोक्य मेने मिलितवज्जगत् ॥१७०।। युद्धश्राद्धतया योधाः, पारवश्येन सेवकाः । रसिकाः प्रेक्षकत्वेन, लुण्टाका लुण्टनेच्छया ॥१७१॥ निर्धनाः कर्मकत्वेन, भट्टा द्रव्यादिलिप्सया ।
वाणिजा व्यवहारेण, भूपसैन्ये समैयरुः ॥१७२।। अथ राजा मार्गे सर्वलोकानां धीरां ददानोऽस्ति, वदति च – “यूयं निश्चिन्ताः सुखेन तिष्ठत, लघुलोकानां किमप्यहं न कथयामि, यो मदोन्मत्तो ममाज्ञां न मन्यते तदुपरि खड्गं वहामि । यदुक्तम् -
आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां, गुरूणां मानमर्दनम् ।
वृत्तिच्छेदो मनुष्याणां, अशस्त्रो वध उच्यते ॥१७३॥ यदहं रक्कप्रायः पाद्रिकैः सामान्यठक्कुरैश्च किञ्चिन्मदान्धैरपि समं न युध्ये, यतो वैरं स्नेहश्च समशीषिकया भवति । यदुक्तम् -
1. धैर्यमित्यर्थः॥
आज
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४६
तथा
तथा -
जिनदत्तकथानकम्
यद्यपि रटति सरोषं मृगपतिपुरतोऽपि मत्तगोमायुः ।
तदपि न कुप्यति सिंहो, विसदृशपुरुषेषु कः कोपः ? ।। १७४॥
सिंहः करोति विक्रममलिकुलझङ्कारसूचिते करिणि । न पुनर्नखमुखविलिखितभूतलविवरस्थिते नकुले ॥ १७५॥
तथा ग्रामग्रामाणामुपदाः समायान्ति, स्थाने स्थाने यमुनापूर इव तस्य सैन्यं वर्धते, देशे देशे राजानो राणका मण्डलिकाश्च सम्मुखमागत्य तस्य मिलन्ति । किं बहुना ? तत्पूर्वपुण्याकृष्टाः सर्वमहीमहीपालास्तच्चरणाम्बुजं पर्युपासमाना निरभिमाना राज्यश्रीराजमानाः शौर्या - समाना अपि तदाज्ञां नित्यं मन्यन्ते स्म । अहो ! पुण्येन सर्वत्र जयो वाच्छितसिद्धिश्च स्यात् । यदुक्तम् -
तथा
सर्वत्राऽऽज्ञा भवति जगति, भ्राजमाना गजाली, तुङ्गा भोगाः, पवनजयिनो वाजिनः स्यन्दनाश्च । दर्पाध्माताः सुभटनिकराः, कोशलक्ष्मीः समग्रा, सर्व' चैतद्भयति नियतं देहिनां धर्मयोगात् ॥ १७६॥
धर्मनरेसर' भेटीइ, चिंता नावइ अंगि ।
जं जोइइ तं संपजइ लीलामाहि जि रंगि ।। १७७॥
"
[ जिनदत्तसैन्यभीतवसन्तपुरनृपारिमर्दन प्रेषितढौकनादेर्जिनदत्तकृतो निषेधः जिनदत्तकृताया सपत्निकजीवदेवश्रेष्ठिसमर्पणाज्ञाया अरिमर्दननृपस्याननुपालनं च ]
इत्थं सर्वदेशान् साधयित्वा वसन्तपुरस्य सीनि राज्ञः कटकं समायातं तदा अरिमर्दनराजस्य केनापि प्रोक्तम् - देव ! परराष्ट्रीयराज्ञः सैन्यमसङ्ख्यं सर्वदेशसाधनपरमिहायातम् । ततो राज्ञा विमृष्टम् – “योधनाद् बोधनं वरम् । यतः
पुष्पैरपि न योद्धव्यं, किं पुनर्निशितैः शरैः ।
युद्धे विजयसन्देहः, पुधानपुरुषक्षयः ॥ १७८ ॥
"विण अवसरि जे मांडिइ झूझ, राजउलुं त्रोडइ ति अबूझ ।
माल पडिया घाऊ टीपणइ, धूंबड नाम सह कोइ भइ ॥ १७९ ॥ "
1. धर्मनरेश्वरे मिलिते चिन्ता नाऽऽयाति अङ्ग, यद् अपेक्ष्यते तत् संपत्स्यते लीलया एक रङ्गेन । 2. विना अवसरं यः आरभते युद्धं राजकुलं त्रोटयति स अबुधः । (१)
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अरिमर्दननृपस्य जिनदत्तनृपानुचिताऽऽदेशाननुपालनम्
इति विमृश्य राज्ञा प्रधाना आदिष्टाः – “भो महत्तमा ! यूयं गत्वा राज्ञः पुरो ढौकनिकां मुक्त्वा यथाकथञ्चित् सन्धि कुरुध्वम् , अनेन बलवता राज्ञा सह विरोधो न कार्यः, यतः -
अनुचितकर्मारम्भः, स्वजनविरोधो बलीयसा स्पर्द्धा ।
प्रमदाजनविश्वासो, मृत्योराणि चत्वारि ॥१८०॥ तथा भो प्रधानाः ! एते बहवो वयं तु स्तोकाः, मेलापकाभावात् ; बहुभिस्तु वैरं शास्त्रविरुद्धम् , यतः -
बहवो न विरोद्धव्याः, समवायो हि दुर्जयः ।
स्फुरन्तमपि नागेन्द्र, भक्षयन्ति पिपीलिकाः ॥१८१॥" ततस्ते प्रधाना दूतत्वे गता मणि-सुवर्णादि ढौकयित्वा राजानं विज्ञपयन्ति – हे महाराज ! त्वं दण्डं गृहाण, ततः पश्चाद् व्रज, अस्माकं राज्ञा तवाऽऽज्ञा शिरसि शेषावद् धृताऽस्ति । इति प्रोक्ते जिनदत्तो भूपतिर्वदति – भो प्रधानाः ! नास्माकं ढौकनिकया साकं दण्डेन कार्यम् , किन्तु नगरमुख्यं जीवदेवश्रेष्ठिनं सकलत्रं बद्ध्वाऽर्पयत यदि जीवितुमिच्छाऽस्ति; अन्यथा युद्धाय प्रगुणीभवत, इति स्वरूपं यूयं भवत्स्वामिनं विज्ञपयत । ततस्तैः प्रधानः पश्चादागत्य ढौकनिकां पुरो मुक्त्वा तथा विज्ञप्ते, राजा ब्रूते – भो प्रधानाः ! श्रेष्ठी कथमर्प्यते ? यतो भूभुजां कोशो द्विधा - स्थावरो जङ्गमश्च, तत्र स्थावरो हेमादि, जङ्गमो महाजनः; ततो व्यवहारिणोऽमी शाश्वतमुख्यकोशसमानाः, यतः -
पित्रा स्वपुत्रा इव पालनीयाः, प्रजा नरेन्द्रेण कृपापरेण । किञ्चित्क्षयः स्वर्णमयः सकोशः, प्रजामयस्त्वक्षय एव यस्मात् ॥१८२।।
अतो भो प्रधानाः ! यूयं गत्वा राजान विज्ञपयत – राजन् ! अपरं यथारुचि सर्व याचस्व, परं श्रेष्ठिनं प्राणान्तेऽपि नास्मन्नाथोऽर्पयति, एवं सति यदुचितं तत् कुरु" । इत्यादि शिक्षयित्वा प्रधानाः पुनः प्रेषिताः । तै राजान्तिके गत्वा निजस्वामिप्रोक्तसर्ववृत्तान्ते विज्ञप्ते किञ्चित्सरोषो भूपतिः प्रधानानवगणय्य पुरः प्रयाण कृत्वा दुर्ग रुरोध, तदा सर्वा नगरप्रतोल्यो दत्ताः । समुद्रवेष्टितद्वीपोपमपरचक्रव्याप्त स्वपुरं दृष्ट्वा सर्वो लोको व्याकुलो जातः, विशेषतो जीवदेवश्रेष्ठी ज्ञातवृत्तान्तः स्तोकजलपूतरखत् टलवलायते ।।
तस्मिन्नवसरे प्रधाना आहूय राज्ञा पृष्टाः - भो मन्त्रिणः ! नगरं तावद् वेष्टितम् , ततः कथयत सम्प्रति किं कर्तुमुचितम् ? तदा केनापि प्रोक्तम् , यथा -
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जिनदत्तकथानकम् " त्यजेदेकं कुलस्याथै, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥१८३॥ इति नीतिशास्त्रप्रामाण्याद् देव ! श्रेष्ठी दीयते, यथा सर्व कुल-ग्राम-जनपदादि सुस्थं स्याद् "। इति श्रुते राजाऽवोचत् – “भो प्रधान ! नैतद् वचो मह्यं रोचते, यतः पृथिव्यास्त एवालक्कारभूता ये शरणागतं रक्षन्ति । यदुक्तम् -
विहलं' जो अवलंबइ, आवइपडियं च जो समुद्धरइ ।
सरणागयं च रक्खइ, तिसु तेसु अलंकिया पुहवी ॥१८४॥ तथा भो प्रधान ! ते प्रजापाला अपि नृपास्तुणतुल्या भवन्ति, ये निजाश्रितं न पालयन्ति,
यतः -
* अवलंबिया तिणा न हु तुटुंति समुद्धरेज्ज ता विहलं ।
विहलुद्धरणे जे न हु य तिणसमा ते उ किं भणिमो ॥१८५।। पुनर्धर्मशास्त्रोक्तो दृष्टान्तो श्रूयताम् - : यथा षोडशजिनेन्द्रेण दशमे मेघरथभवे पक्षिमात्रकपोतार्थे स्वजीवितं कल्पितं स दक्षमुख्योऽपि स्वात्मनाशेऽपि धर्ममार्ग न लुलोप । अत एवोक्तम् -
श्रीशान्तिनाथादपरो न दानी, दशार्णभद्रादपरो न मानी ।
श्रीस्थूलभद्रादपरो न योगी, श्रीशालिभद्रादपरो न भोगी ॥१८६॥ अतो वणिग्मात्रत्वादेकजीवमात्रत्वादप्ययं श्रेष्ठी मया नोपेक्षितु शक्यते ! भो सकर्ण ! पुनराकर्णय – राजचिह्नविचारेणापि सत्तमोऽयं पाल्यो भवति, यदुक्तम् -
सदवनमसदनुशासनमाश्रितभरणं च राजचिह्नानि ।
अभिषेकपट्टबन्धौ वालव्यजनं व्रणस्यापि ॥१८७॥ भो प्राज्ञ ! पुनः श्रयताम् 'हे वत्स ! त्वया निजाः प्रजाः प्रजा इव प्रत्यहं पालनीयाः । इति पितुर्वचनं पट्टाभिषेकावसरे श्रुत्वा 'सर्व' युष्मदुक्तं करिष्यामि' इति मया यत् प्रतिज्ञातमासीत् तस्य प्रतिपन्नस्य नाशे सति भोः प्रधान ! वद ममकिमप्यवतिष्ठते ?, यदुक्तम् -
1. व्याकुलं यः अवलम्बते, आपत्पतितं च यः समुद्धरति, शरणागतं च रक्षति, त्रिभिः तैः अलङ्कृता पृथिवी । अत्र तृतीयार्थे सप्तमी ज्ञेया ॥ 2. अवलम्बितानि तृणानि न खलु ट्यन्ते, समुद्धरेत् तस्माद व्याकुलम् । व्याकुलोद्धरणे ये न खलु च तृणसमाः ते तु, किं भणामः ॥
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अरिमर्दननृपस्य प्रजापालनधर्मावलम्बनम् एतत् करोमीति कृतप्रतिज्ञो, यः स्वीकृतं नैव करोति सत्त्वः । यात्यस्य संस्पर्शजकश्मलानां, प्रक्षालनायेव रविः पयोधिम् ॥१८८॥
तथा
भस्मनाऽपि तृणेनापि काऽपि सञ्जायते क्रिया ।
प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहच्युतेन न तु जन्तुना ॥१८९॥ तथा -
किमिह कपाल-कमण्डलु-वल्कल-सित-रक्तपट-जटापटलैः ।
व्रतमिदमुज्ज्वलमुन्नतमनसां प्रतिपन्ननिर्वहणम् ॥१९॥ अन्यच्च - __कृशानुसेवा फल-कन्दवर्तनं, जटाधरत्वं वनवासिनां व्रतम् ।
महीपतिनामिदमेव तु व्रतं यदात्मसत्यात् प्रलयेऽपि न च्युतिः ॥१९१॥ अथ कश्चिद् वृद्धो मन्त्री ब्रूते – “हे राजन् ! एवमेकान्तत्वविधानेन जडनाम लभ्यते, स्वामिन् ! सर्वत्र सुन्दरभाव एव शोभते, तथा क्वापि स्कन्धे बद्ध्वा नाऽऽकृष्यते, अतिमथिते कालकूटमुत्पद्यते । अत एवोक्तम् -
अतिरूपेण वै सीता, अतिदर्पण रावणः ।।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो, अति सर्वत्र वर्जयेत् ॥१९२॥ हे देव ! यद्येवं स्वाग्रहं न मोक्ष्यसे तदा तव मरणं राज्यनाशश्च सम्भाव्यते, ततो हे दीर्घबुद्धे ! त्वं श्रेष्ठिनमर्पय" ।
अथ राजा प्राह – “ यदीत्थं मरणं स्यात् तदा किं विलोक्यते ?, मरणात् किं भयम् ?, परं महाजनपरिभवो दुःसहः, अस्माभिस्तु व्यापृतं जग्धं पीतं दत्तं विलसितम् , अथ यदा तदा यथा तथा मर्तव्यमेव । यदुक्तम् -
धीरेण कातरेणापि मर्तव्यं खलु देहिना ।
तन्नियेत तथा धीमान् न म्रियेत यथा पुनः ॥१९३॥ हे मन्त्रिन् ! राज्यतृष्णाऽपि साम्प्रतं नास्माकं विद्यते, चिरमपि राज्यं यतः कृतम्, ततोऽस्माकं कीर्तिरेव सम्प्रति सुस्थिरा विलोक्यते । ..J-7. .
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जिनदत्तकथानकम्
यदुक्तम् -
याता यान्ति महीभुजः क्षितिमिमां यास्यन्ति भुक्त्वाऽखिलां, नो याता न च याति यास्यति न वा केनापि सार्द्ध धरा । यत् किञ्चिद् भुवि तद् विनाशि सकलं कीर्तिः परं स्थायिनी,
मत्त्ववं वसुधाधिपैः सुकृतिनो रक्ष्याः क्षितौ कीर्तये ॥१९४॥" पुनः कोऽपि प्रधानः प्राह - हे असमसाहसनिधान ! त्वं विचारय, तव परलोकगमनात् पश्चादपि श्रेष्ठी वैरिणाऽनेन गृहीष्यते, तदुभयथाऽपि श्रेष्ठिनो मरणं समायतं तदाऽस्यार्थे त्वं वृथव कथं म्रियसे ? । ततो राजा प्राह – “भो हितबुद्धे मन्त्रिन् ! दृष्ट्या कथमेवं द्रष्टुं शक्यते ? लोकोक्तिरप्येवमस्ति यद् मृतस्योपरि यान्तु शकटानि परं जीवन्तो धीरपुरुषाः प्राणान्ते न्यायमार्गान्न चलन्ति । यदुक्तम् --
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥१९५॥ भो मन्त्रिन् ! अतः सर्वथा श्रेष्ठिनं नार्पयामि, यद् भाव्यं तद् भवतु, सर्वोऽपि धर्मध्यानं करोतु, केनापि मम चिन्ता न कार्या । यतः -
काकाः कृष्णाः शुका नीला हंसाश्च धवलीकृताः ।
मयूराश्चित्रिता येन, स मे चिन्तां करिष्यति ॥१९६॥ तथा
'मा वहउ को वि चितं, चिंतयरो को वि अस्थि अन्नयरो ।
चितारहिएणं पत्थरेण देवत्तणं पत्तं ॥१९७॥" इत्याद्युक्त्वा सर्व प्रधानाद्य विबोध्य निवार्य च स्वयं कर्मप्रामाण्यं कृत्वा राजा धर्मैकशरणस्तस्थौ । एवं सप्त दिनानि सञ्जितानि । [निजनृप-नगरादिसंरक्षणार्थ सपत्नीकस्य जीवदेवश्रेष्ठिनो
जिनदत्तसमक्षमात्मसमर्पणम् ] ततः कैश्चिन्महातैः पुररोधमग्नलोकः श्रेष्ठी भणितः – “भो श्रेष्ठिन् ! तवैकस्य कृते सम्प्रति सर्व नगरं भज्यते, पश्चाद्देशभङ्गोऽपि सम्भाव्यते, राजा तु पुण्यात्मा त्वां नार्पयति,
1. मा वहतु कोऽपि चिन्ताम् , चिन्ताकरः कोऽपि अस्ति अन्यतरः। चिन्तारहितेन प्रस्तरेण देवत्वं प्राप्तम् ॥
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जीवदेवश्रेष्ठिनो जिनदत्तनृपस्याग्रे आत्मसमर्पणम् त्वं स्वयमेव निःसृत्य गच्छ, अन्यथा बहुजीवक्षये तव किं जीवितं शाश्वतं भावि ?, यदुक्तम् -
'एकस्स कए नियजीवियस्स बहुयाओ जीवकोडीओ ।
दुक्खे ठवंति जे के, तेसिं किं सासयं जीयं ? ॥१९८॥" इत्यादि श्रुत्वा श्रेष्ठिनाऽचिन्ति – “ यदि मम शरीरेण बहूनां जीवितरक्षा स्यात् तदा किं न लब्धम् ? यदुक्तम् -
अस्मिन्नसारे संसारे विनाशेऽवश्यभाविनि ।
पुण्यभाजां भवत्येव परार्थे जीवितव्ययः । तथा -
परोपकाराय कृतघ्नमेतच्चलं शरीरं यदि याति यातु ।'
काचे न चेद् वज्रमणि लभेत, मूखोऽपि किं नेति पुनर्ब्रवीति ? ॥२०॥ तथा लोकाक्रोशा अपि कर्णाभ्यां श्रोतुं न शक्यन्ते, मदर्थे यदि पुरभङ्गापयशो जने जातं तदहं जीवन्नपि मृतोऽस्मि । यदुक्तम् -
जीवितव्यं यशः पुंसां, जीवितव्यं न जीवितम् ।
तदेव हि गतं यस्य, जीवन्नपि न जीवति ॥२०१॥” इति विचिन्त्य श्रेष्ठिन्या सहितः श्रेष्ठी सर्वजनान् क्षमयित्वा पाश्चात्यरात्रौ दुर्गमुलय बहिनिर्गतः । स श्रेष्ठी कटकमुखं गच्छन्नपि धीरत्वोचितमिति चिन्तयति, यथा -
" माता यदि विषं दद्यात् , पिता विक्रयते सुतम् । राजा हरांत सर्वस्वं, का तत्र प्रतिवेदना ? ॥२०२॥ तावद् भयस्य भेतव्यं यावद् भयमनागतम् ।
आगते तु भयं दृष्ट्वा, प्रसोढव्यमशकितैः ॥२०३॥" ___ ततः कटकमध्ये यत्र गुरूदरे जिनदत्तराजोऽस्ति तस्य द्वारे गत्वा 'राज्ञो ममाऽऽगमं विज्ञपय' इति श्रेष्ठी दौवारिकमभिहितवान् । तदा द्वाःस्थो दध्यो – “किमस्य जिनदत्तराजस्य सर्व राजानो राणका निष्ठिताः यदनेन दुर्दशालयेन श्रेष्ठिना सहास्य राज्ञः कार्यमस्ति, किमस्य पार्थाद् राजा गृहीष्यति ? मयैवं ज्ञातमभूत् – यदर्थेन नरपतिर्दीयमानं दण्डमपि न जग्राह -- 1. एकस्य कृते निजजीवितस्य बह्वयः जीवकोटयः दुःखे स्थापयन्ति ये केचित् तेषां किं शाश्वतं जीवितव्यम् ॥
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जिनदत्तकथानक
स श्रेष्ठी बहुसुवर्णरत्नकोटिपतिर्भावी, असौ तु यूकाकोटीश्वर एव, परमेकेन लक्षणेन षट्खण्डाधिपचक्रवर्तितोऽप्यधिकोऽयं दृश्यते - यदयं जीर्णवस्त्रमाश्रित्य शतखण्डाधिपतिरस्ति; अहो ! विचक्षणेनापि राज्ञा किमर्थमसौ प्रार्थितः, भूपतिः किमस्य पार्श्वे पश्यन्नस्ति ?, यदि वालुका - मध्ये तैलम्, यदि जलमध्ये धृतम्, यदि शुष्ककाष्ठमध्ये सरसत्वं स्यात्, तदाऽस्य पार्श्वे द्रव्यमस्ति; यस्माद्धनवान् पुमान् पृथगेव विलोक्यते । यदुक्तम् -
—
1
अगुणमवि गुणड्ढं रूवहीणं पि रम्मं,
जडमवि मइमंतं मंदसतं पि सूरं ।
अकुलमव कुलीणं तं पर्यपति लोया, वरकमलदलच्छी जं पलोएइ लच्छी ॥ २०४ ॥
तथापि स्वदोषापनोदाय राजानं विज्ञपयामि । " इति विचिन्त्य राजान्तिके गत्वा द्वाःस्थः श्रेष्ठया - गममुवाच । ततो राजा किञ्चिद् विमृश्य बभाषे भो द्वाःस्थ ! त्वं गत्वा पृच्छेति 'अहो श्रेष्ठिन् ! त्वं सपत्नीकः स्वयमागतः : राज्ञा वा प्रहितः ? ' । इति श्रुत्वा द्वाःस्थोऽपि द्वारे गत्वा श्रेष्ठिनं सम्यक् पृष्ट्वा तत्स्वरूपं च ज्ञात्वा पुनः पश्चादागत्याऽभिदघे - • राजन् ! श्रेष्ठी स्वयमेवागतः, न तु राज्ञा प्रहितः । इति श्रुत्वा हृष्टो राजाऽचिन्तयत् - ." अहो सज्जना ईदृशा भवन्ति । यदुक्तम् -
-
-
तथा -
--
अजातशत्रुर्जगदेकमित्रं, कुटुम्बबुद्धिर्नगरे समये । स्वभावतोऽत्युज्ज्वलचित्तवृत्तिः परं च धर्मे विहितप्रवृत्तिः ॥२०५॥ सहसिद्धमिदं महतां धनेष्वनास्था गुणेषु बहुमानः । परदुःखे कातरता, महच्च धैर्यं स्वदुःखेषु ॥ २०६॥
-
भारा दिग्भूधरसिन्धुरास्ते, घाता क्व वाताशन एष शेषः । विश्वम्भरां भूरिभरां बिभर्ति, परोपकारी पुनरेक एव ॥ २०७ ॥ " इति विचिन्त्य राज्ञा दूता भाषिताः - यूयं गत्वा श्रेष्ठिनमानयत । इति राजादेशेनाऽऽगत्य लैरुक्तम् – रे श्रेष्ठिन् ! भवन्तं भूपतिराकारयतीति । रेकारशब्दं श्रुत्वा श्रेष्ठी चित्ते चकम्पे चिन्तितवांश्च " अरे ! किमत्र भावि ?, राजा तु रौद्र एव स्यात्, न ज्ञायते किमपि करिष्यति, रुष्टो हि राजा किमपि न त्यजति यदुक्तम्
-
1. अगुणमपि गुणाढ्यम्, रूपहीनमपि रम्यम्, जडमपि मतिमन्तम्, मन्दसत्त्वमपि शूरम्, अकुलमपि कुलीनम् तं प्रजल्पन्ति लोकाः वरकमलदलाक्षी यं प्रलोकयति लक्ष्मीः ॥
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जिनदत्त-तज्जननीजनकमिलनस्य विस्तृतवर्णनम् न दशति मन्त्रज्ञमहिहीनकलं त्यजति राहुरपि चन्द्रम् ।
सरसं न दहति दहनो, नृपस्तु कुपितोऽखिलं हन्ति ॥२०८॥" ततः कम्पमानाङ्गो दीनास्यः शून्यचित्तस्तत्कालगतसर्ववित्त इव गतजीविताशः सपत्नीकः श्रेष्ठी दूतैर्जलमयीभूतकर-चरणोऽग्रे गृह्यमानोऽपि पश्चाद्गच्छन्निव शनैःशनैर्गतिर्बलादाकृष्य पार्थिवाग्रे दूरस्थित एवोर्वीकृतः । ततः श्रेष्ठी चक्राधिपसमां तत्सभां निरीक्ष्य चिन्तयति - " किमियमामरी सभा ?, योऽयं राजा दृश्यते स किं देवः ?, किं वा धर्मराजोऽयम् ? यदसौ राजा तुष्टस्तदा राज्यं दत्ते, यदि रुष्टस्तदा सर्वस्वं जीवितं च नियमेन गृह्णाति, यदेते राणका दृश्यन्ते ते दिक्पाला लोकपाला वा घटन्ते, यावदमी पश्चास्थितस्य ममान्तरे वर्तन्ते तावन्मयाऽपि किञ्चिज्जीविताशा कार्या, यतो ये मध्यस्थास्ते पालयन्त्येव, अथवा किमनया चिन्तया !, यद् भाव्यं तद् भविष्यति" । इति चिन्तयन्नयं स्थितोऽस्ति ।
__ [जिनदत्त-तज्जननी-जनकमेलापकस्य विस्तरतो वर्णनम् ]
तदा पुरन्दरसभातुल्यां निजसभामध्यासीनश्छत्र-चामरादिविभूतिमान् भूपतिर्दुःस्थावस्थापतितौ जराजीी जीर्णशीर्णवस्त्रौ गलिताङ्गौ गलन्नयनौ नि थाविव गतशरणौ निजमाता-पितरौ दृष्ट्वा खेदं गतश्चिन्तयति – “ही ! धिग् धिग् मम राज्यम् , मामपि धिगस्तु, किं तेन पुत्रेण ? यत्पितरावेवं रुलतः । यतः -
किं तेन जातु जातेन, पृथिवीभारकारिणा ! । आस्तामन्यस्य पित्रोरप्याा पूरयते न यः ॥२०९॥ स पुत्रो यः पितुर्मातुभूरिभक्तिसुधारसैः । निर्वापयति सन्तापं, शेषस्तु कृमिकीटकः ॥२१०॥ वरं वृक्षोऽपि सिक्तोऽसौ, यस्य विश्रम्यते तले ।
सचेतनोऽपि नो पुत्रो यः पित्रोः क्लेशकारकः ॥२११॥" तयोर्दुर्दशां दृष्ट्वाऽन्तर्महाशोकातुरो भूत्वा पुनर्बहिरात्मानं सन्धीर्य पृथ्वीपतिरप्रतः पितरौ पुनराकार्य पृच्छति - भो श्रेष्ठिन् ! यूयं महान्तो व्यवहारिणः पूर्व श्रुताः, सम्प्रति भवतां महावस्था दृश्यते, तत् किं राज्ञा यूयं दण्डिताः ?, तस्करैर्मुषिता वा ?, वह्निना दग्धसर्वस्वा वा ?, सम्प्रति यूयं किमीदृशाः ? कारणं वदत।
अथ श्रेष्ठी वेपमानः सगद्गदमिदं वदति – हे देव ! मम पार्थिवादिभिः किञ्चिन्न कृतम् , किन्तु प्रतिकूलदेवेन दण्डितोऽहम् । राज्ञोक्तम् – देवेन केन द्वारेण प्रातिकूल्यं
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जिनदत्तकथानकम् कृतम् ? श्रेष्ठ्याह – “श्रृणु स्वामिन् ! मम पुत्र एकः सविवेकः सद्भाग्यातिरेकः सत्कृत्यच्छेकोऽभूत् , स दुर्दैवेन हृतः, यस्मात् स पुत्रः केनाऽपि कारणेन निर्गत्य विदेशं गतः, सर्वत्र विलोकितोऽपि न लब्धः, ततो न जाने सम्प्रति जीवति मृतोऽस्ति वा, तस्मिन् गते सर्वा लक्ष्मीर्गता, दारिद्रयं समुपस्थितम् , तस्यैकस्य भाग्येन सर्व सुखभागभूत् , परं रकस्य गृहे रत्नं न तिष्ठति । ततो देव ! तदुःखेनाहमतीवदुःखी जातोऽस्मि"। ततो राज्ञोक्तम् - भो सत्तम ! यद्येवमस्ति पुत्रः क्वापि गतस्तर्हि मम सैन्यं विदेशायातं महत्तरं च विद्यते ततो भ्रान्त्वा त्वं सर्व सैन्यं विलोकय, कदाचिदिहैव काकतालीय-न्यायेन पुत्रः स्यात् । ततो हृप्टेन श्रेष्ठिना — स्वाम्यादेशः प्रमाणम् ' इत्युक्ते राज्ञा साथै निजजनाः समर्पिताः । ततो बहिनिर्गतस्य श्रेष्ठिनो जीविताशा किञ्चित् सञ्जाता । यदुक्तम् -
क्षणेन लभ्यते यामो, यामेन लभ्यते दिनम् ।
दिनेन लभ्यते कालः, कालः कालो भविष्यति ।।२१२।। तथैवमस्ति, “घांचटलितं योजनशतं याति"। इति तेन स्वस्थीभूय सप्तभिर्दिनैर्महाप्रमाणं सर्व कटकं विलोक्य पुनर्भूपतेरने समेत्य सपत्नीकः श्रेष्ठी स्थितः । ततः 'भो श्रेष्ठिन् ! अग्रतः समागच्छ, अग्रतः समागच्छ' इति राज्ञो बहुभिरादेशैः पुरः पुरो द्वित्राणि द्वित्राणि पदानि व्रजन्नात्मभयेन पश्चाद्गन्तुकामोऽपि श्रेष्ठी भूपतेरदूरासन्नां भूमिमाययौ । बहवः सभास्था राजराणका अग्रगमनेन तेनोल्लञ्चिताः । तथापि पुनः पुरस्समागमार्थ राजादेशे सति श्रेष्ठिमनः शकते - " यद्राज्ञो बहुतरं बहुमानं तदपमानतुल्यम् । यदुक्तम् -
हसन्नपि नृपो हन्ति, जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः ।
दुर्बलस्य गृहं हस्ती, घर्षयन्नपि पातयेत् ॥२१६॥" तथापि किञ्चिदने गतस्य श्रेष्ठिनः पुरो राजा वक्ति - भो श्रेष्ठिन् ! भवता कटकमध्ये बम्भ्रमता सता सुतः क्वापि प्रापि, न वा ? इति पृष्टे श्रेष्ठिना 'न' इति प्रोक्ते पुनर्नरपतिर्गदति – भो सुन्दरमते ! निजं पुत्रं दृष्टं लक्षयसि, न वा ? इति साभिप्रायं भाषमाणे नृपे किञ्चिदक्षोभतया श्रेष्ठी स्पष्टमाचप्ट – “ महाराज ! त्वया किमुच्यते ?, संसारे कोऽपि मूढोऽपि स्वकीयमङ्गजं नोपलक्षयति ?, परं वृद्धत्वान्मां किं दृष्टिबलहीनं सम्भावयसि ? न तथा त्वया सम्भाव्यम् , यस्मादहं पुत्रवदननिरीक्षणे सहस्राक्षोऽस्मि, तं दृष्टमात्र लक्षयाम्येव, परं तस्य कदापि कापि पदप्रतिष्ठा स्याद् अथवा रूपपरावर्तो वेषपरावत्तौ वा जातः स्यात् तदा स तनयो न लक्ष्यते ।"
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जिनदत्त-तज्जननीजनकमिलनस्य विस्तृतवर्णनम् अत्रान्तरे श्रेष्ठिन्या हृदयमुल्लसितम् , कपोलद्वयं विकसितम् , नयनयुगलं विमलं जातम् , स्तनयोः प्रस्रवो जातः । तथा सा श्रेष्ठिनी महानन्दमन्ना विकल्पानेवं विधत्ते यथा - "किमहं सुधाकुण्डे स्नामि ?, सुधां वा पिबामि ?, कल्याणकोटिं रत्नकोटि वा प्राप्ताऽस्मि ? स्वर्ग' वा गताऽस्मि ?, राज्य वा भुजानाऽस्मि ?, नात्मानं जानामि, परमेवं जाने ' अद्य अहो ! किमपि मम महाभाग्यं जागति, अद्य मम कोऽपि महोत्सवः पर्वदिवसो वा वर्तते' सम्प्रति यादृशं मम सुखं वर्त्तते तादृशं नात्रभवे मयाऽनुभूतम् , अतोऽयं राजाऽस्य परस्य वा भवस्य बन्धुरो बन्धुर्वा सुन्दरः सोदरो वा सदाशानिवासदिग्गजो ममाङ्गजो वा भवत्येव, किमन्यथा नयनादिविकाशः स्यात् ! । यदुक्तम् -
'आयह लोयह लोयणइं जाईसरई, न भंति ।
अप्पिय दिढे मउलीइं, पिय दिठे विहसति ॥२१४॥” . एवं सुचिरं विचिन्त्य श्रेष्ठिन्या कराङ्गलीसकेतं कृत्वा श्रेष्ठी बभणे – हे कान्त ! एष किल स्वकीयः पुत्रोऽस्ति । इति कथिते मन्दं मन्दं श्रेष्ठ्याचप्ट - " हा वैरिणि ! न्यम्मुखा तिष्ठ, मा ब्रूहि, रे अचेतने ! किं भाषमाणाऽसि ? त्वं मानुषमसि किं वा पशुरसि ? वचनं विचार्य वक्तव्यम् । यतः -
'काज परीछी जे करई, बोलई वयण विमासि ।
तेह नर ऋद्धि घरअंगणई, संकट नावई पासि ॥२१५॥ तथा क्वचिज्जल्पितादजल्पितं वरम् । यदुक्तम् -
जिहादोषेण बध्यन्ते, शुक-तित्तिरि-शारिकाः ।
बकास्ते न हि बध्यन्ते, मौनं सर्वार्थसाधकम् ॥२१६॥ तथा -
जिहवाग्रे वर्त्तते लक्ष्मीजिह्वाग्रे च सरस्वती ।
जिह्वाग्रे बन्धनं मृत्युजिह्वाग्रे परमं पदम् ॥२१७॥ तथा -
असम्भाव्यं न वक्तव्यं, दशहस्ता हरीतकी । 1. आत्मनः लोकानां लोचनानि जातिस्मरणानि, [अत्र विषये ] न भ्रान्तिः, अप्रिये दृष्टे मुकुलयन्ति, प्रिये दृष्टे विकसन्ति ॥ 2. कार्य परीक्ष्य ये कुर्वन्ति, वदन्ति वचनं विमृश्य तेषां नराणां ऋद्धिः गृहाङ्गने, सङ्कटं नायाति पावे ॥
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जिनदत्तकथानकम्
,
तथा न्यायेनेति लोकोक्तिः यत् 'स्त्रीणां पार्ष्णिबुद्धि: । अत एव सत्यं शास्त्रेऽप्युक्तम् - ' धित्तेसि गाम-नयराणं जेसि इत्थी पणायगा ।
ते यावि धिक्कया पुरिसा जे इत्थीण वसंगया ॥२१८॥
-
रेमुग्धे ! मम किञ्चिज्जातां जीविताशां मा स्फेटय, यत् त्वयाऽनुचितमुक्तं तदुक्तम्, पुनरतः परं मा स्म भाषिष्ठा:, माऽस्मान् शिरसि करं दत्वा मज्जय, यतस्त्वं स्त्री भूत्वा गमिप्यसि, सर्व विरूपमस्माकं मस्तके पतिष्यति " । इति श्रुत्वा श्रेष्ठिनी प्राह - हे आर्यपुत्राः ! यूयं यथारुचि भाषध्वम्, परं स्वपुत्रोऽयं भवति - इति मम मतिरित्थं सम्भावयति, प्राणनाथ ! यदा यदा भूमिनाथमेनं पश्यामि तदा तदा निजेङ्गिताकारलक्षणैर्मच्चित्ते पुत्रोऽयमिति कल्पना जायते, स्वामिन् ! कथय किमहं करोमि ? । इति श्रुत्वा श्रेष्ठी निरुत्तरस्तूष्णीं स्थितः । अस्मिन्नन्तरे माता- पित्रोमिथो वाक्यं किञ्चित् कर्णाभ्यां सन्निहितो भूत्वा श्रुत्वा भूनाथश्चिन्तयति ' यन्मम माता मां पुत्रं स्थापयति, भयातुरः पिता तु न मन्यते, अहो !
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मातुर्मन ईदृशमेव स्नेहार्द्र स्यात् यदुक्तम्
,
-
-
सुधा-मधु-विधुज्योत्स्ना - मृद्वीका - शर्करादितः ।
वेधसा सारमुद्धृत्य जनितं जननीमनः ॥ २१९ ॥
तथा धिगस्तु मां यदद्यापि स्नेहलां मातरमेवं खेदयन्नस्मि परं सर्वत्र क्रम एवौचितीमञ्चति,
न तु सहसाकारः, यदुक्तम्
क्रमेण भूमिः सलिलेन भिद्यते, क्रमेण कार्य विनयेन सिध्यति ।
क्रमेण शत्रुः कपटेन हन्यते क्रमेण मोक्षः सुकृतेन लभ्यते ॥ २२० ॥ ततः क्रमेणैव स्वं प्रकटं करिष्यामि " । इति विचिन्त्य जनकं पृच्छति - हे श्रेष्ठिन् ! सम्यक् कथय, कथं चिरसङ्गतं स्वसुतं त्वं ज्ञास्यसि ? श्रेष्ठी साभिप्रायमिति श्रुत्वा ब्रूते - यदि सुतो यथावस्थितो भवति तदा दृष्टमात्रं तं वेद्मि, अन्यथा सङ्केतवचोभिर्लक्षयामि । इत्युक्ते राजा ब्रूते - भो श्रेष्ठिन् ! स तव पुत्रो न भवति यः पूर्वं परिणीतोऽपि साधुसेवां न मुमोच यः सर्वकुटुम्बादिशिक्षया संसारसुखप्रवृत्ति न चकार तथा येनैकदा द्यूतक्रीडायां रमित्यैकादश कोट्यो हारिताः स तव पुत्रो न भवति ? इति श्रुत्वा श्रेष्ठी चिन्तयति - " कथमयं राजराजेश्वरो मम पुत्रसत्कानि सङ्केतवचनानि वेत्ति ?, तस्य तु गृहान्निर्गतस्य दिनान्यपि विस्मृतानि, तथाऽमीभिः वचोभिरयं पुत्रो भवति, श्रेष्ठिन्यपि स्वेङ्गितैरेव पुत्रमेनं
1. धिक् तेभ्यो ग्राम-नगरेभ्यो येषां स्त्री प्रणायिका, ते चापि धिक्कृताः पुरुषाः ये स्त्रीणां वशङ्गताः ॥
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जिनदत्त-तज्जननीजनकमिलनस्य विस्तृतवर्णनम् मन्यते, मयापि स्वचित्तं 'सदृशमानुषाणि बहून्यपि भवन्ति ' इति विचिन्त्य पुत्राशकां कुर्वाणां सन्निनिवारितम् , तदयं पुत्रो भवति इति ममापि मतिवर्तते, परमासमुद्रान्तपृथ्वीपतिं प्रति : सम्प्रति · त्वं मम पुत्रः' इति केन सहसा वक्तुं शक्यते ?, अविमृश्यकारित्वे दुःखमेव स्यात् । यतः
सहस च्चिय सम्ममचितिऊण कीरति जाई कज्जाइं ।
अप्पत्थभोयणं पिव ताई विरामे दुहावंति ॥२२१॥ तथा
अपरिक्खिऊण कज्जं सिद्धं पि न सज्जणा पसंसंति ।
सुपरिक्खियं पुणो विहडियं पि न जणेइ वयणिज्जं ॥२२२॥ ततोऽहमपि सहसा वदन् पश्चात्तापभाजनं भविष्यामि"। इति विचिन्त्य श्रेष्ठी मुनिरिव मौनावलम्बी तिष्ठति । ततः ‘नन्वहो श्रेष्ठिन् ! अस्या मत्सभाया मध्ये कोऽपि तव पुत्राकृतिरस्ति ?' इति भूपतिपृष्टः श्रेष्ठी कष्टनिर्गच्छज्जिह्वाक्षरं त्रुटिताक्षरं सगद्दं जगाद - राजेन्द्र ! वक्तुं न शक्यते, परं स मत्पुत्रस्त्वदाकृतिरेवाऽऽसीत्, त्वं न दृष्टः, किल स एव दृष्टः, यत्तव तस्य चाऽऽकृत्या प्रकृत्या च नान्तरं दृश्यते । इति श्रेष्ठिनि वदति - हे तात ! हे मातः ! युष्मत्पुत्रोऽहम् , युष्माभिः सत्यमेव ज्ञातम् - इति श्रुते तयोर्यत्सुखमभूत् तत् तौ पितरौ जानीतः, केवली वा, नान्यः कोऽपि ।
- [जननी-जनक-जिनदत्तानां परस्परवृत्तान्तनिवेदको वार्तालापः] .. .अथ भूपः सानन्दं सभक्तिकं पितरौ विज्ञपयति - "हे पूज्याः ! शास्त्रे - सुपुत्राः कुलदीपकाः कथ्यन्ते, मया तु पित्रोर्दुःखान्धकारमेव कृतम् ; तथा स्ववंशे मुक्तासमा एके पुत्राः स्युः, अहं पुनर्गुण इवाऽभवम् ; किंबहुना ? अद्य यावदहं पित्रोः क्लेशकार्येव जातः तत्सर्व पूज्यैः क्षम्यताम् ; इदं चम्पाराज्यमियं लक्ष्मीरयं परिच्छदादिपदार्थश्च सर्वमपि पूज्यसत्कमेव, न मे किञ्चन, युष्मत्पदप्रसादप्राप्तत्वात् ; तथैताश्चतस्रोऽपि कुलवध्व इतः पक्षे पूज्यपादान् नमस्यन्ति, अथाऽऽसां यथोचितमादेशो दीयताम् " । इति वदन्तं पुत्रं सम्यगुपलक्ष्य पितृभ्यां गाढमालिङ्गयोचे- “हे वत्स ! यत् त्वमस्मान् स्वदोषग्रहणपूर्वकं क्षमयसि तत्तव विनीतस्य
1. सहसा खलु सम्यग् अचिन्त्य = अविचार्य क्रियन्ते यानि कार्याणि अपथ्यभोजनमिव तानि विरामे दुःखायन्ते । 2. अपरीक्ष्य [कृतं] कार्य सिद्धं अपि न सज्जनाः प्रशंसन्ति, सुपरीक्षितं पुनर्विघटितं अपि न जनयति वचनीयताम् ।। ..J-8
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जिनदलकथानकम्
युक्तम् परं त्वयि न कोऽपि दोषोऽस्ति, यथा सुवर्णे श्यामता न स्यात्; परमस्माकमेव
"
दोषोऽयम्, यत् त्वं पुण्यं कुर्वन् निवारितः, हे बत्स ! यद्यस्माकं वृद्धभावेन मतिविपर्यासो जातो घृतकारैः सह तव सङ्गतिविधापनात् तर्हि सहसैकदोषेण किमस्मान् त्वं मुञ्चखि परं द्यतकार बुद्धया तवाऽऽयतिसुखं वाञ्छद्भिरस्माभिस्तत् कृतं लोके यदुच्यते
"
स्म ?
यथा -
६८
पितृभिस्ताडितः पुत्रः शिष्यस्तु गुरुशिक्षितः ।
घनाहतं सुवर्ण च जायते जनमण्डनम् ॥२२३॥
,
तथा हे वत्स ! महते राज्यलाभाय तव देशान्तरोऽप्यभूत् त्वद्वियोगेनास्माकमेवमवस्था जाता । अथवाऽलमुपालम्भैः, शुभायाखिलमप्यभूत् ।
ईदृक् स्वपुत्रमाहात्म्यं पश्यामः कथमन्यथा ॥ २२४॥
हे जिनदत्तराज ! तदद्यापि मम भाग्यानि जाप्रति यदद्यानभ्रवृष्टिवदकुसुमफलवत् त्वं दृप्टोऽसि । अथ वत्स ! त्वं विधिना चिरं राज्यं पालय, त्वं राजलक्ष्म्या युतो वर्षकोटिमस्मदाशीर्भिर्जीव, चिरं नन्द, अजातशत्रुर्भव, सुखी भव
ܐܙ
1
ततो भूपतिः सर्वेषां शुद्धि पृच्छति - " हे तात! पुरेऽत्र स्वजनैः सह सर्वोऽपि श्रीसङ्घः कुशली वर्त्तते ?, तथा सर्वाणि चैत्यानि पूज्यमानानि सन्ति ? अज्ञानतिमिरान्धस्व मम ज्ञानाञ्जनशलाकया यैर्नेत्रमुन्मीलितं ते श्रीगुखोऽत्र विजयिनः सन्ति ?, तथा मम धर्मसुहृदः सर्वेऽपि सुखिनः सन्ति, तथा यानि पुस्तकानि नित्यमहं वाचयामास तानि सर्वाणि निरुपद्रवाणि सन्ति ? " इति पृष्टे श्रेष्ठिना ' सर्व निराबाधमस्ति ' इत्युक्ते हृष्टो राजा दध्यौ मम महद् भाग्यं यदहं जिनेन्द्रानचित्वा, बन्धु मित्राणां सङ्गमं कृत्वा स्वगुरून् वन्दित्वा, पुस्तकान् गृहीत्वा पश्चाच्चम्पां गमिष्यामि ।
पुना राजोचे - हे पितरौ ! युवाभ्यां मम विरहे कथं कालः क्षपितः ? ताभ्यां भणितम् – “ शृणु वत्स ! त्वयि श्वशुरालयात् परिच्छदमुखेन गते ज्ञाते सति पूर्व गणका : सर्वेऽलीकवादिनः कृताः, नैमित्तिका अपि मुग्धलोकवञ्चनबुद्धयः कृताः, निर्णीतदिने तवाना - गमनाद् गौडदेशीया अपि स्वोदरपूरणवृत्तयो विहिताः, देवतादीनामुपयाचितपूजादिमाननरूपेण वाङ्मात्रेण चिन्तामणितुल्यं सम्यक्त्वमपि मलिनीकृतम्, ततः सर्वत्र प्रतिपुरं प्रतिग्रामं प्रतिवनं प्रतिपर्वतं स्वच्छोधनाय जनाः प्रेषिताः, चम्पापुरीपुरमिदं च सर्वमामूलं शोधितम् परं क्वापि कदापि तव शुद्धिरपि नाऽऽप्ता, ततो बाढशोकातुराभ्यामावाभ्यां मुक्तण्ठं तथा रुदितं
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जननी - जनक- जिमदत्तानां परस्परं वृत्तान्तकथनम्
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बोद्धततरु शिखरवर्तिनः पक्षिप्रकरा अपि रुरुदुः किं पुनर्मानवाः १, वत्स ! त्वद्विरहे यदि दिनं गतं तथा रात्रिर्न याता, क्षणेन दिनामितम्, दिनेन वर्षायितम् वर्षेण युगान्तायितम्, बस ! तब वियोगे यदावयोर्दुः खमभूत्, तद् वैरिणोऽपि मा भूत्, बहु किमुच्यते अद्य ! मावद मब् दुःखं जातं तन्नैकया जिह्वया वक्तुं शक्यते " । इति श्रुत्वा नरपतिराह " हे तात! हे मातः ! नहि भक्तिव्यता केनापि लङ्घयितुं शक्यते, यतः
सासा सम्पद्यते बुद्धिः सा मतिः सा च भावना | सहायास्तादृशा ज्ञेया यादृशी भवितव्यता ॥२२५॥ मिस बिण माथा मांहि अक्षरडा जे विहि लिखिया । तेहह भांजणहार कोइ न देखउं साचिला ॥२२६॥
मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रुं जयत्वाहवे,
वाणिज्यं कृषिसेवनादि सकला विद्याः कलाः शिक्षतु ।
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आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत् कृत्वा प्रयत्नं परं, नाभाव्यं भवतीह कर्मवशतो, भाव्यस्य नाशः कुतः ? ॥ २२७॥
न स प्रकार ः कोऽप्यस्ति येन सा भवितव्यता | छायेव निजदेहस्य लध्यते जातु जन्तुभिः ॥२२८॥ अवश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो भवेद् यदि । न ते दुःखेन बाध्यते नल - राम - युधिष्ठिराः ॥ २२९॥ दाता बलिर्याचयिता च विष्णुर्दानं मही वाजिमखस्य कालः । दातुः फलं बन्धनमेव जातं, नमोऽस्तु तस्यै भवितव्यतायै ॥ २३० ॥
गगनं विपुलं तुरङ्गमाः सततं गन्धवहातिशायिनः । रविरेति तथाप्यरेर्मुखं, नहि नाशोऽस्ति कृतस्य कर्मणः ॥२३१॥
इति ज्ञात्वा हे पितरौ युवाभ्यां पूर्वानुभूतस्य दुःखस्य जलान्जलिर्देमा
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ततो मातापितृभ्यां पुनः प्रोक्तम् - " हे क्त्स ! अस्माकं दुःखं तदैव गतं यदा तव दर्शनं जातम्, परं ' सकृदिष्टसङ्गमः पूर्वदुःखतालको द्घाटन कुञ्चिका' इति तानि दुःखानि सम्प्रति स्मृतिमायान्ति तथा हे वत्स ! त्वमेतावन्तं कालं क्व स्थितः ?, केमु केषु देशेषु भ्रान्तः, कथं च त्वया राज्यं लब्धम् ?, इत्यादि सर्व वृत्तान्तं कथय
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1. मष विना मस्तके अक्षरा ये विधिना लिखिताः तेषां भञ्जयितारं कमपि न पश्यामि सत्यकम् ॥
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जिनदत्तकथानकम्
ततो यथा द्यतरूपकुकर्माचरणेन त्रपा जाता, यथा श्वसुरकुलं गतः, यथा तत्र प्रियां हित्वा दशपुरं गतः, तत्र यथाऽशीतिकोट्यधिपो भूतः, यथा सिंहलद्वीपं गतः, तत्र यथा स निगृह्य श्रीमती परिणीता, यथा ओदत्तव्यवहारिणा समुद्रमध्ये क्षिप्तः, यथा रत्नपुर्यां विज्जाहरी परिणीता, यथा षोडशविद्यादिलाभो जातः, यथा चम्पायामागत्य वामनत्वं कृतम्, यथा शिला हासिता, यथा तिस्रः प्रिया आलापिताः, यथा हस्ती वशीकृतः, यथा मदनमञ्जरी लब्धा, यथा चम्पाराज्यं प्राप्तम्, यथा मातृ-पितृमिलनोत्कण्ठया वसन्तपुरागमनं जातम्, तथा जिनदत्तराजः सर्वं पित्रोः पुरोऽचीकथत् ।
पुनः पितरावुचतुः " अहो ! लोकोक्तिरेषा न मृषा कदाचित् यत् पुरुषस्य भाग्यानामन्तो नास्ति, तथा केनाऽप्येवं सत्यमुक्तम् यथा
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गन्तव्यं नगरशतं विज्ञानशतानि शिक्षितव्यानि ।
भूपतिशतं च सेव्यं, स्थानान्तरितानि भाग्यानि ॥ २३२॥”
अथ श्रेष्ठी श्रेष्ठिनीं प्रति जल्पति “हे भद्रे ! त्वं पूर्वमकथयेः यदावयोरेकः पुत्रो विद्यमानोऽप्यविद्यमान एव यथैकं लोचनमिति तदयुक्तम्, यत् तवैकस्यापि पुत्रस्य जगज्जनचित्तहरं सर्वलोकचित्रकरं भाग्यं विलोकय, भाग्यवानेकोऽपि भवतु, पुण्यहीनैर्बहुभिः किम् ?, यतः - एकोऽपि यः सकलकार्यविधौ समर्थः पुण्याधिको भवति किं बहुभिः प्रहीणैः ? । चन्द्रः प्रकाशयति दिङ्मुखमण्डलानि, तारागणः समुदितोऽप्यसमर्थ एव ॥२३३॥
एकेनाऽपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् । सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी || २३४॥
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तदा लोकाः सर्वे विस्मिता एवं वदन्ति - अहो ! अपूर्वमिदमाश्चर्यम्, यदेतौ दुस्थावप्यस्य राजराजस्य पितरौ जातौ, अहो ! विधिविलसितेन यन्न चिन्त्यते तद् भवति, अहो ! धन्योऽयं श्रेष्ठी यस्य पुत्रोऽयं नभसीव रविर्महीतले तपति, अहो ! पुत्र एव सकलं कुलं दीपयति, यदुक्तम् -
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शर्वरीदीपकश्चन्द्रः प्रभाते रविदीपकः ।
त्रैलोक्ये दीपका धर्मः, सुपुत्रः कुलदीपकः ॥ २३५॥
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जिनदत्त-जननीजनकानां परस्परं वृत्तान्तकथनम् तथाऽहो! अद्यास्य श्रेष्ठिनो वंशो गर्जतीव, कुलं कलां कलयतीव, पुण्यश्रीनृत्यतीव, पूर्वजाः सर्वेऽपि जीवन्तीव अमुना सुपुत्रेण"। तथा चैके स्त्रीजना स्वजात्यभिमानात् श्रेष्ठिनी वर्णयन्ति, यथा - " अहो! अस्याः स्त्रियाः कुक्षिर्धन्या यया निर्मलमीदृशं पुत्ररत्नं जनितम् , यदुक्तम् -
येन केनचन धर्मकर्मणा, भूतलेऽत्र सुलभा विभूतयः ।
दुर्लभानि सुकृतानि तानि यैः प्राप्यते पुरुषरत्नमीदृशम् ॥२३६॥ तथा जगत्येषैव स्त्री धन्या मान्या, न चान्या, यदुक्तम् -
धन्यैव सा जगति सज्जननी प्रकृष्टा दृष्टा यया सविनयं तनयस्य भक्तिः ।
श्लाघ्यः स सूनुरपि मातृपदे प्रणम्य यः सर्वतीर्थफलमेकपदे प्रपेदे ॥२३७॥ . अस्या अपि तीर्थस्येव सेवा स्वपुत्रेण क्रियते, अन्या मातरः पुत्रस्य दुर्वचनाक्रोशं सहमाना दृश्यन्ते, ततः स्वजातावुत्कृष्टा श्रेष्ठिनी वर्ण्यते " ।
अथापादमस्तकं नर-नारीयोग्यानि यान्याभरणानि स्युः तानि सर्वाण्यपि जनान् प्रेष्य कोशाधिकारिपार्थात् समानाय्य तैरलकारै राज्ञा माता-पितरावलङ्कृतौ, दुकूलानि परिधापितौ च । ततो नृप उवाच - " हे पूज्याः ! राज्यमिदमङ्गीक्रियतां यदिदं युष्माकं ढौकनीये करोमि, यत् पुत्रार्जिता लक्ष्मीः पित्रोर्युज्यते, विपरीतमिदं तु न घटते, यद् वृद्धत्वे धनमुपायं पितरौ पुत्र एव पालयति नान्यः, अत एवोक्तम् -
बालस्स मायमरणं, भज्जामरणं च जुव्वणत्थस्स ।
वुड्ढस्स पुत्तमरणं, तिन्नि वि गुरुयाई दुक्खाइं ॥२३८॥ सुपुत्राः सर्वमुपाजितं तातस्यैव करेऽर्पयन्ति, अतो युक्तमिदम्, राज्यं तातपादा गृहन्तु"। ततः पितरावूचतुः - वत्स ! आवां वृद्धौ जातो, वृद्धत्वे धर्म एवोचितः धर्मश्च सर्वसनपरित्यागादेवोत्कृष्टः, ततो वयं संयमं ग्रहीष्यामः, नास्माकं राज्यमुचितम् , यतो 'गौरी मरिष्यति किं वा दुग्धं करिष्यति ? ' ततोऽस्माकं सम्प्रति संयमावसरोऽस्ति, हे वत्स ! त्वं विधिसृष्टानुसारेण निजाः प्रजाः पालय ।
ततः श्रीजिनदत्तराजोऽपि पित्रोविरहसूचकं वचः श्रुत्वा सदैन्यं जगाद - " हे तात ! मया गतभवे किं दुष्कृतम् कृतम् , __ 1. बालस्य मातृमरणम् , भार्यामरणं च यौवनस्थस्य, वृद्धस्य पुत्रमरणम् , त्रीक्यपि गुरुकाणि दुःखानि ॥
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जिनदत्तकथानकम् यदेतावन्ति मे तावद् दिनानि विफलान्यगुः । दूरेण गुरुपादानां तदद्य यदि कर्मणा ॥२३९॥ दत्तेऽन्तरे मया तातो दृष्टस्तत् तेन किं पुनः । वर्षारविरिवाऽभ्रेण ममादृष्टीकरिष्यति ? ॥२४॥ पुनर्नैव समादेश्यमश्रोतव्यमिदं वचः । कस्यापि दिवसो मा गात् सतः पूज्यानपश्यतः ॥२४१॥ तात ! किं तेन राज्येन ? जीवितेन दिनोदये । प्रसन्न नेक्ष्यते यत्र पितुः पादाम्बुजद्वयम् ॥२४२॥ पितुः पुरो निषण्णस्य या शोभा जायते भुवि । उच्चैः सिंहासनस्थस्य, तच्छतांशेऽपि सा कुतः ? ॥२४३।। यः कोऽपि परमास्वादो गुरुभक्त्युत्थिते भवेत् ।। दिव्यपाकेऽपि मिष्टान्नरसवत्या न तं लभे ॥२४४॥ या प्रीतिर्लभमानस्य गुरोरादेशमुज्ज्वलम् । भुवनत्रयलाभेऽपि न सा भवति निश्चितम् ॥२४५।। ताताऽऽदेशय यत् कृत्यं सेवाहेवाकिनो मम । चिरान्नेत्रपथायातः सम्पूरय मनोरथान् ॥२४६॥ इति पुत्रवचोनीरसिक्तमोह तरुः क्षणम् ।
श्रेष्ठी सश्रष्ठिनीकोऽप्यमानयत् तद्वचस्तदा ॥२४७॥ [ज्ञातवृत्तान्तस्यारिमर्दननृपस्य जिनदत्तेन सह मिलनं परस्परं वार्तालयच ]
अत्रान्तरे वर्द्धापका अरिमर्दनभूपतिं प्रति चलिताः सन्ति, तदा स राजा मनसीति शोचन्नस्ति, यथा – हहा ! सपत्नीकः श्रेष्ठी स्वयं निर्गत्य वैरिकटके कथं प्रयातः !, महदपयशोऽस्माकं कुलेऽद्य नवीनमुत्पन्नम् , लाच्छनरूपा अवश्यमनेन कृष्णकम्बली मम शिरसि समारूढा, न ज्ञायते तत्र कटके किं जायते ?, अद्य तत्रगतस्य श्रेष्ठिनोऽष्टौ दिवसाः सञ्जाताः, इतः कोऽपि तत्र न याति, ततः कोऽपि न प्रत्यायाति, मिथो वैरित्वात् किञ्चिदपि श्रेष्ठासमाचारो न ज्ञायते, किं करोमि ?, कस्येदं दुःखं कथयामि ?, मृतस्योपरि यान्तु शकटानि, परं परमेश्वर ! त्वं कस्यापि जीवतः पुंसः स्वकीयमनुष्यान्तं मा स्म दर्शय, हा पापिष्ठ !
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अरिमर्दननृप-जिनदत्तबोधार्तालाप निकृष्ट ! निर्लज्ज ! निर्लक्षण ! रे दुष्टात्मन् ! त्वं शतशः खण्डानि द्वत्तं भव, यदेचं निजामितजनान्तं पश्यन्नपि त्वं राज्यादिवाञ्छा विधत्से ? । इत्यादिध्यायन्तं नृपं प्रति बर्दापनिकाग्राहका नरास्त्वरितमागत्य जगदुः – हे देव ! महत्कल्याणमद्य वर्तते, मा विपीद, सर्वेषा कुशलं जातम् । राजाप्यूचे - कथम् ? इति । तेऽप्यूचुः -- यः श्रेष्ठी परकटके गतः स पिता, श्रेष्ठिनी माता सजाता, यो राजा जिनदत्तः स पुत्रः, इत्थं कुटुम्बं मिलितम् । राजा वक्ति - असम्भाव्यम् , नैव घटते, युप्माकं कश्चिदिह विपर्यासो जातो भावी । तेऽप्याहुः – “देव ! विपर्यासस्तेषां भवति, येऽत्र नेत्र-श्रोत्रविकलाः स्युः सर्वथा हृदयशून्या वा भवन्ति । अथ परमुखश्रुतग्राहिणो भवन्ति, ते विपर्यस्यन्ति । हे देव ! न तु वयं तादृशाः स्म यदस्माभिः प्रत्यक्षमेव दृष्टम् , दृष्टेः कोऽपि साक्षी न भवति, एतावदलीकं सामान्यजनाग्रतोऽपि वक्तुं न शक्यते, किं पुनर्देवस्य पुरतः ? तथा राजन् ! अस्माभियुद्धवचनं श्रुतमस्ति, यथा -
1मा होह सुयग्गाही, मा जंपह जं न दिट्ठ पच्चक्खं ।
पच्चक्खे वि य दिठे जुत्ताजुत्तं वियाणाह ॥२४८॥" पुनः पुनः कटकायातैर्वर्द्धापकैस्तथैव स्वरूपं जगदे। ततो हृष्टेन राज्ञा तत् सत्यं मानितम् । ततो राजा दध्यौ - "अहो ! ते पातकिनो मूर्खा एव ये न्यायमार्ग' त्यजन्ति, ये च न्यायं पुरस्कृत्य व्यवहरन्ति ते धन्या एव, यदुक्तम् -
यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहायताम् । अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति ॥२४९॥ श्रियो नाशं यान्तु व्रजतु निधनं गोत्रमखिलं, शिरश्छेदो वाऽस्तु प्रभवतु समन्ताद् विपदपि । विवेकार्कज्योतिविघटितमहामोह तमसः,
प्रतिज्ञातादर्थात् तदपि न चलन्त्येव सुधियः ॥२५०॥ यदि च नाहं धर्माचारं लुलोप तदा ममापयशोऽपि नाऽभूत् , श्रेष्ठयपि जिजीव"।
अथ राजा सर्वाः प्रतोलीरुद्घाटयामास । पुरे उत्सवा उत्सवोपरि जायन्ते । ततो भूपतिर्जिनदत्तमिलनोत्कण्ठाप्रेरितश्चचाल सैन्यविशालः । अथाऽऽबालगोपालं सर्व लोका .. 1. मा भवथ श्रुतग्राहिणः = आकर्णितग्राहिणः, मा जल्पथ यद् न दृष्टं प्रत्यक्षम् , प्रत्यक्षेऽपि च दृष्टे युक्तायुक्तं विदानीत
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जिनदत्तकथानकम् -
अप्यनुजम्मुः । ततो जिनदत्तोऽपि समागच्छन्तं भूपतिं पूर्व' श्रुत्वा पश्चात् सन्निहितं दृष्ट्वा स्वयमपि सम्मुखो गतः । हषोत्कर्षेण द्वावपि मिलितो, परस्परं चरणाम्भोजौ यावद् विनयनम्रौ च तौ द्वावपि भूपौ दृष्ट्वा केचिज्जना एवं वदन्ति, यथा -
नमन्ति फलिता वृक्षा, नमन्ति विबुधा जनाः । शुष्ककाष्ठानि मूर्खाश्च, भज्यन्ते न नमन्ति च ॥२५१॥ केनाजितानि नयनानि मृगाङ्गनानां ?, को वा करोति रुचिरागरुहान् मयूरान् ? । कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति ?,
को वा करोति विनयं कुलजेषु पुंसु ? ॥२५२॥ ___तदा केनापि कर्मकरेण सिंहासनं समानीतम् , ततो द्वावपि नृपौ तत्रैवैकासनमासीनौ । ततोऽरिमर्दनो जिनदत्तराजसमीपे प्राक्तनं विदेशगमनादिराज्यप्राप्त्यन्तं सर्व' स्वरूपं पृष्ट्वा सम्यक् श्रुत्वा च वदति – “अहो ! जिनदत्तराज ! तव भाग्यवतो विदेशेऽपि गतस्य राज्यादिप्राप्तिर्जाता, श्रेष्ठिनः पुनरिह दौस्थ्यं समजनि, तदिदं सत्यम् -
'हंसा जिहिं गय तिहिं गया महिमंडणा हवंति ।
छेह उ ताहं सरोवरहं जे हंसे मुच्चंति ॥२५३॥ किं बहुना ?, हे धन्यमूर्द्धन्य ! तव भाग्य-सौभाग्यप्रमुखा गुणाः सहस्रजिहवेनाऽपि वक्तुं न शक्यन्ते"। इत्थं निजगुणसहस्रवर्णनां निशम्योत्तमत्वात् क्षणं नीचैविलोक्य जिनदत्तो जरपति – “हे परगुणग्रहणतत्पर ! मम मध्ये गुणवत्त्वं क्वास्ति ? यदर्थे मया सर्वधर्मकर्म मुक्तं तद् राज्यादि सर्वमिहैव स्थास्यति, सार्थे किमपि नाऽऽयास्यति । तदान्तरणवैराग्यरजसतो नरपतिरात्मनिन्दा काव्यानि पठति, यथा ---
उदपद्यन्त हृद्येव, हृद्येव च विलिलियरे ।
अहो ! मे मन्दभाग्यस्य रोरस्येव मनोरथाः ॥२५४॥ अस्माभिः किं न जने ? किमिह न बुभुजे ? पस्पृशे नैव किं वा ?, संसारे बम्भ्रमद्भिः किमिह न ददृशे ? शुश्रूवे नैव किं वा ? । कि नोचे? किं न चक्रे ? किमु न परिदधे? किं न चेषे न चापे ?,
हा हा ! तादृग् न लेभे किमपि हि सुकृतं प्राप्यते येन मोक्षः ॥२५५॥ " 1. हंसा यत्र गताः तत्र गता महीमण्डना भवन्ति, हानिः तेषां सरोवराणां यानि हंसः मुच्यन्ते ।।
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अरिमर्दननृप - जिनदत्तयोर्वार्तालापः
ततोऽरिमर्दनो दध्यौ “ अहोऽस्य स्वदोषदर्शित्वम्, यत् सर्वोऽपि प्राणी प्रायः पर्वतोपरि प्रज्वलत् पश्यति, न पुनः स्वपदोरधः, यतः
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राई - सरिसवमित्ताणि परच्छिद्दाणि पासए ।
अपणो बलमिचाणि पासंतो वि न पासए ॥ २५७॥ 'इक्कं पिनत्थि लोयस्स लोयणं जेण नियइ नियदोसे । परदोसपिच्छणे पुण लोयणलक्खा इं जायंति ॥ २५८॥
तदयं लोकोत्तरस्वभावो महाभाग्यवान्, किमप्यस्मै संसारसारभूतं ददामि यस्मै दीयते " । इति नरपतिश्चिन्तयन्नस्ति ।
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品
परं मम तन्नास्ति
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अत्रान्तरे कमपि पूर्वसम्बन्धं स्मृत्वा अरिमर्दननृपः पुनरुवाच ." हे सौम्यमूर्ते ! ममैकः सन्देहो दवदहन इव देहं दहति तं च शमयितुं त्वमेव समर्थः यतस्ते मुखे सरस्वती - प्रवाहोऽस्ति तव दक्षिणभुजः समुद्रः तव हृदये धनागमः, तवाधरः शोणः, तव पार्श्वतो वाहिन्यस्तिष्ठन्ति तव मानसं स्वच्छत्वे मानसमेवास्ति त्वं ननु सर्वरसमय इव वेधस्रा विहितोऽसि ततस्त्वत्तः शीतीभवितुमिच्छामि " 1
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अथ ‘यथोत्पन्नं संशयं शीघ्रं पृच्छ ' इति जिनदत्तेनोक्तेऽरिमर्दनराजो ब्रूते – भो चित्रचरित्र ! मया दीयमानं ग्रामदेशादिदण्डं मुक्त्वा त्वया निजौ माता - पितरौ यन्महाकोपाटोपेन याचितौ तत् किं कारणम् ? ततो जिनदत्त उवाच " हे राजेन्द्र ! यदा तवोपदा महत्तरा मत्सम्मुखाः समायाताः तदा तव प्रजापालनपरीक्षाकरणे मम कौतुकं जातम् - ' यदयं शरणागतां निजां प्रजां कथं रक्षति ? कीदृशं चास्य मध्ये सत्त्वमस्ति ? ' अन्यच्च तदा सर्वथाऽप्यचिन्त्यो ममेदृशः कुविकल्पोऽप्यजनि ' यद्येष राजा मदीयौ माता- पितरौ बद्ध्वा समर्पयिष्यति तदाऽहमेनं सबलं सकोशं सदेशं राज्यादुन्मूलयिष्यामि ' इति, पुनस्त्वया • श्रेष्ठिनं मत्तातमजानता किन्तु लोकमात्रं जानताऽपि स्वसाहसं न मुक्तं तत् त्वं निश्चितं सात्त्विकशिरोमणिः, यदुक्तम् -
चलति कुलाचलचक्रं, मर्यादामतिपतन्ति जलनिधयः ।
उचितादुदारसत्त्वात् सन्तः प्रलयेऽपि न चलन्ति ॥ २५९ ॥
1. राजिका - सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति, आत्मनो विल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥ 2. एकमपि नास्ति लोकस्य लोचनं येन पश्यति निजदोषान्, परदोषप्रेक्षणे पुनले चनलक्षाणि जायन्ते ||
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... जिनदत्तकथानकम् ............ प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥२६॥ तथा हे नरनाथ ! मदारब्धेऽत्र सकटे तव सम्यक सत्त्वपरीक्षा जाता, यदुक्तम् -
उपाया बहवः प्राज्ञैः, कृताः स्वर्णपरीक्षणे ।
सत्त्वतत्त्वपरीक्षायां विपदेव कषोपलः ॥२६१॥ तथा हे धीरधुरन्धर ! त्वया प्राणसन्देहेऽपि मत्पितरावददानेन सत्यं सुभटत्वं दर्शितम् , यदुक्तम् -
शरणागता भटानां, सिंहानां केसरा उरः सत्याः ।।
चूडामणयः फणिनां, गृह्यन्ते जीवतां नैव ॥२६२॥" इत्थं बहुधा प्रशस्य जिनदत्तो विरराम । .... अथ गतसन्देहशल्योऽरिमर्दनो दध्यौ - अहो ! अस्य गुणलुब्धता यदयं बहुगुणनिलयोऽपि ममैव सतोऽप्यसतोऽपि गुणान् गृह्णाति । अत्रापि राज्ञो वैराग्यवृद्धिर्जाता । तदा कोऽप्याह – पित्रोनिविडभक्तिविषये संसारे जिनदत्त एव वर्ण्यताम् । परः प्राह - किमसौ वर्ण्यते ?, किन्त्वरिमर्दन एव प्रजावात्सल्ये वर्ण्यताम् । कश्चिदाह – नेषोऽपि वर्ण्यः, किन्तु जिनदत्तपितरावेव चिरागतसुपुत्रसङ्गमात् पुण्यवन्तौ भणित्वा वय॒ताम् । केऽपि वदन्ति - वयमेव धन्याः यदीदृशो मेलापको दृष्टः स्वदृष्टयेति ।
[जिनदत्तकृतङ्तकाररक्षादिवर्णनम् ] - अथ बहुपरिचितधर्ममित्रादिदर्शनोत्कण्ठया सर्वतो जिनदत्तेन सभां निभालयता ते द्यतकारा दृष्टा उपलक्षिताः, वण्ठैराकारिता जल्पिताश्च – भो भो सत्पुरुषाः ! मामुपलक्षयथ ! ततो बहुमानहृष्टास्तेऽप्यूचुः -- देव ! त्वां को नोपलक्षयति ?, त्वं राजराजेश्वरः पञ्चमलोकपालः । राजा प्राह – एवं सर्वः कोऽपि मां जानाति, पुनर्युष्माभिर्विशेषतः काऽपि व्यक्तिआयते ? ततस्ते चकिताः स्वयकृतराजापमानं स्मरन्तो गतरङ्गाः कम्पमानाङ्गा मौनव्रतमिवाऽऽलम्ब्य स्थिताः । ततो राज्ञा ते दीना दृष्ट्वाचिरे - भो भो भद्राः ! मा भैष्ट, भवतां न्यायनिष्ठोऽहं किमपि न कथयामि, पुनरेको वार्ता यथातथा वदत - स कञ्चुकः क्वास्ते यो मया द्यूते हारितः ? ततस्तैः किञ्चिन्निर्भयैरुक्तम् – हे देव ! स कञ्चुकस्तत्रैव हट्टेऽस्ति यत्र तदाऽस्माभिरड्डाणको मुक्तः । ततो राज्ञा तावन्मानं द्रव्यं प्रेष्य तदापणादानाय्य स कञ्चकः प्रियायै विमलमत्यै दत्तः ।
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जिनदत्तकृतद्यूतकाररक्षादिवर्णनम् ततो जिनदत्ततो ज्ञातवृत्तान्तेन राज्ञा ते चतकारा बाढं हकिताः -रे रे धूर्ताः ! युष्माभिरित्थमेव सर्व नगरं मुष्यते, यद्येषोऽपि पुण्यात्मा वञ्चितः तर्हि युष्मदग्रे न कोऽपि छुटिष्यति, ततो यूयं दण्डयोग्याः स्थ । ततो नृपो यावता तेषां गुप्त्यादिविडम्बनामादिशति तावता श्रेष्ठिना 'ह हा ! खरक्षये रजको म्रियते' इति विमृश्योचे - हे राजन् ! ध्रुवमेते निरपराधा एव, किन्त्वमी 'मत्पुत्रो द्यतव्यसनी कार्यः' इति मयैव प्रेरिताः, तदस्मिन् व्यतिकरे यावदमी पीडयिष्यन्ते तावन्ममैव पापं भावीति ममोपरि प्रसादं विधायाऽमून् मुञ्च । इत्युक्तोऽपि नृपो जिनदत्तरोषज्ञानार्थ किञ्चिद् विलम्बते । अत्रान्तरे सम्मुखनिरीक्षणाद्याकारेण भूपभावं विज्ञाय जिनदतोऽपि तद्गुणानेव जग्राह – राजन् ! यद्यमी द्रव्यं नाहारयिष्यन् तर्हि ममैतावन्मानं राज्यपदं कथं स्यात् !, तदमी महोपकारिणः परिधाप्याः । इति जिनदतवचनात् सम्मान्य ते मुक्ताश्चिन्तयन्ति स्म – “अहो ! सन्तो द्रोहकारिष्वपि सुन्दरविधायिन एव । यदुक्तम् -
दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्ण', घृष्टं घष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धम् । छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वाददं चेक्षुदण्डं,
प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम् ॥२६३।।" ततो राज्ञोचे - हे श्रेष्ठिन् ! त्वया स्वपुत्रस्यापि कथमित्थं तिरस्कारः कारितः ? श्रेष्ठी प्रोचे - " राजन् ! आयतौ विहलोकसुखमिच्छता मया सत्यमपमानानुकारः सत्कारः कृतः, पुनरनेन भाग्यवता तदपि न संसोढम्, देशान्तरगमनादस्य राजहंसवदुज्ज्वलोभयपक्षस्येदमपि युक्तम् , यदुक्तम् -
'बग ऊडाड्या बापडा के पालि के तीरि ।
हंस पराभव किम सहइ ? अमरस जाहं सरीरि ॥२६४॥" -[निजपुत्रीसौभाग्यलता-जिनदत्तयोः पाणिग्रहणानन्तरमरिमर्दननृपस्य ....
जिनदत्ताय निजराज्यदानम् ] तदा कश्चिदवसरज्ञो विज्ञो ब्रूते - " हे श्रेष्ठिवतंस ! बहुदेशेषु जडनिवेशेषु प्रान्त्वा त्वां निर्मलमानसं स्मृत्वा यदसौ समागतस्तदसौ सत्यं राजहंस एव । यदुक्तम् -
1. बकाः उड्डायिताः वराकाः कदाचित् पालौ कदाचित् तीरे [ तिष्ठन्ति ] । हंसाः पराभवं कथं सहन्ते अमर्षः = असहिष्णुता येषां शरीरे ॥
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जिनदत्तकथानकम्
नद्यो नीचतरा दुरापपयसः कूपाः पयोराशयः क्षारा दुष्टबकोटसङ्कटतटोद्देशास्तटाकादयः ।। भ्रान्त्वा भूतलमाकलय्य सकलानम्भोनिवेशानिति,
त्वां भो मानस ! संस्मरन् पुनरसौ हसः समभ्यागतः ।।२६५॥॥" तदा सर्वेऽपि लोकास्तं स्वस्वबुद्धया 'चिरं जय, जीव नन्द ' इत्याशासमानाः सन्ति । तदा तद्दानप्रीतः कश्चिद् भटो रसालोपमया जिनदत्तमाशीर्वादयति स्म, यथा -
'कन्दे सुन्दरता दले सरलता वर्णेऽपि सम्पूर्णता, गन्धे बन्धुरता फले सरसता कस्याऽपरस्येदृशी ! । एकस्त्वं सहकार ! विश्वजनताधारः समानः सतां,
दीर्घायुभव साधु साधु विधिना मेधाविना निर्मितः ॥२६६॥' इत्यादि सर्वलोकप्रशंसायां सत्यां लज्जया नीचैविलोकमानं महाभाग्याधीशसीमानं विश्वविख्यातमहिमानं श्रीजिनदत्तनामानं राजानं दृष्ट्वा श्रीअरिमर्दनो दध्यौ - अहो ! परे निजश्लाघयाऽखर्वगर्वपर्वता इव जायन्ते, अस्य निरभिमानचूडामणेस्तु महाराज्येऽपि निर्मलचित्तमलग्नमेव दृश्यते, असौ लघुरपि निःस्पृहो निःसङ्ग इव दृश्यते, अहं तु वयोवृद्धोऽपि राज्यातृप्तोऽस्मि सारम्भचक्रवर्तीव वत्त । इति भावयन् कर्मविवरेण तदा पुनः परमवैराग्यं प्राप्तः श्रीअरिमर्दनो विमृशति, यथा -
" तपो न तप्तं वयमेव तप्ता भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥२६७।। अहो ! मादृशाश्चिक्कणकर्माणो जीवाः कियताऽपि कालेन संसारभोगैर्न तृप्यन्ति, यदुक्तम् -
1 पत्ता य कामभोगा कालमणंतं इहं सउवभोगा ।
अप्पुव्वं पिव मन्नइ तहवि य जीवो मणे सुक्ख ॥२६८।। अतस्तस्य मूढजीवस्य बहुभिरपि मानवभोगैः कीदृशी तृप्तिर्भविष्यति, यदुक्तम् -
असुर-सुरपतीनां यो न भोगेषु तृप्तः, कथमिह मनुजानां तस्य भोगेषु तृप्तिः ? । जलनिधिजलपानाद् यो न जातो वितृष्ण
स्तृणशिखरकणाम्भःपानतः किं स तृप्येत् ? ॥२६९॥ 1. प्राप्ताश्च कामभोगाः कालमनन्तं इह सोपभोगाः अपूर्व इव मन्यते तथापि च जीवो मनसि सुखम् ।
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अरिमर्दननृपस्य वैराग्यभावनादि तथा स्वयं मुक्तं राज्यमिदं मुक्तिराज्यं दत्ते, पुनरत्यक्तं गच्छच्च दुर्गतिमेव ददाति । यतो राज्यं नरकान्तं भण्यते, ततो मया राज्यं सर्वथा परित्याज्यम् । तथा बहुभिः कारणजिनदत्त एव मम राज्योचितोऽस्ति, यथा – एकं तावदेतस्मादुत्कृष्टो भाग्यवान् पुमान् संसारे नास्ति, द्वितीयं चाहं जराजीर्णाङ्गोऽप्यनपत्योऽस्मि, तृतीयमिदमपि राज्यप्रदानकारणम् यथा – यद्यहं तदा बद्ध्वा श्रेष्ठिनमार्पयिष्यं तदाऽपीदं राज्यं यशसा सहानेन गृहीतमभविष्यत् , चतुर्थ पुनरपरिणीतायाः स्वसुतायाः सौभाग्यलतायाः पृथिव्यां जिनदत्तात् परो वरो नास्ति तथापि पुत्राभावे जामातैव राज्यमर्हति, इत्यादि जिनदत्तस्य राज्यदानकारणानि सन्ति, परं मुनिरिव निर्ममोऽसौ दृश्यते ततः कदाचिदयं राज्यं पुत्री च न स्वीकरिष्यति तदा मम मनसो मनोरथा मनस्येव विलयं यास्यन्ति, तस्मात् कमपि बुद्धिप्रपञ्चं कृत्वाऽनेन सर्वमङ्गीकारयामि"।
इति विचिन्त्य श्रीअरिमर्दन उवाच - "हे पुण्यश्लोक ! हे मानितसर्वलोक ! यदि मदीयमद्वितीयमेकं सविवेकं वाक्यं मानसि, 'नहि' इति न जल्पसि, तदा हृदयमुदा तद् वदामि; यदि मद्वचोऽपि भूमौ पतति तर्हि किं वृथा प्रयासेन ? लोकेऽपि राजवचनमेकवारोक्तं राजते । यदुक्तम् -
सकृज्जल्पन्ति राजानः, सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः ।
सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥२७०॥ एकतो याच्याऽपि क्रियते, पुनरन्यतो मार्गितं न लभ्यते तदा याचकोऽतीवलघुर्भवति । यदुक्तम् -
तृणं लघु तृणात् तूलं, तूलादपि हि याचकः ।
वायुना किं न नीतोऽसौ ? मामपि प्रार्थयिष्यति ।।२७१॥ ततो जिनदत्तो दध्यौ – अहमेवं सम्भावयामि 'एष नरपतिरेवं वक्ष्यति, यत् - त्वं स्वकुटुम्बमादाय स्वपुरी गच्छ, मद्देशाय कुशलं यच्छ, अथ ममोपरि प्रसादं विधेहि, देशं ग्रामं च देहि ' इत्यादि यत् किञ्चिदसौ वृद्धो राजा वक्ष्यति तन्मया निश्चयेन कर्त्तव्यम् । इति विचिन्त्यायमुवाच -- " हे साधर्मिकशिरोरत्न ! किमेतदयुक्तं त्वयोक्तम् ?, त्वमेवं मा स्म जानीयाः 'यदसौ महाराजो मदुक्तं न करिष्यति,' सत्यमहमन्यत्र महानेवाऽस्मि न पुनस्तवाग्रे, यदहं तव पुरे प्रजारूपो वसामि स्म, तथा यद्यहं पित्रोरदानेन परीक्षितसत्त्वस्य ज्ञाततत्त्वस्य तवाऽपि वचनं न करोमि तदा किं कृतघ्नोऽस्मि ?, ततो निर्विकल्पमनल्पं निजसङ्कल्पं जल्प, न पुनः स्तोकम् । इत्युक्तेऽपि तस्मिन् मौनमुद्रामभिन्दाने
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जिनदत्तकथानकम् सति तदप्रतीति ज्ञात्वा पुनः श्रीजिनदत्तो वदति – “ हे अविश्वासनीतिज्ञ ! यदद्याऽपि तव चित्ते प्रत्ययो नास्ति तदाऽहं सर्वथाऽप्यकृत्यान् शपथानपि कुर्वे, यथा - राजन् ! यद्यहं तव वचनं न मानयामि तर्हि निशिभोजनकारिणां मद्य-मांसाद्यभक्ष्याहारिणां वा पापेन गृह्ये, तथा श्रीसंघाद्यवर्णवादिनां कन्यालीकादिपञ्चमहाकूटवादिनां वा पापेन गृह्ये, तथाऽपूतजलपायिनां सुबुद्धिप्रच्छकेषु कुबुद्धिदायिनां वा पापेन गृह्ये, तथा शिष्यता-सेवकतामिषेण गुरु-स्वामिद्रोहकारिणां पञ्चेन्द्रियजन्तुमारिणां वा पापपङ्केन लिप्ये, तथा देवद्रव्य-ज्ञानद्रव्यभक्षिणां साध्वीशीलभङ्गकारिणां वा पापेन लिप्ये, गुणपश्चाद्दोषपोषिणां दीर्घरोषिणां वा पापेन लिप्ये"। इत्येवंविधान् विविधान् शपथान् कुर्वन्तं निवार्य प्रीतः श्रीअरिमर्दन उवाच -- “हे धराधरणधौरेय ! यद्येवं तर्हि कन्याकरग्रहणपूर्वकं मम स्कन्धतो राज्यव्यापारभारमुत्तारय, यदहं जरद्व इव चिरोद्धतं भूभार वोढुं साम्प्रतमसमर्थोऽस्मि, ततस्तत्र त्वां धवलगुणं मोक्तुमिच्छामि, एतावता त्वं जामाता लोकत्राता च भव, यथाऽहं तव सान्निध्येन गगनादुच्चतरे त्रैलोक्यसुन्दरे तत्त्वश्रद्धानपीठबन्धवरे बाल्य-यौवन-वृद्धत्वभूमित्रयाधारे प्रतिभूमिसञ्जातद्वादशव्रतसोपाननिकरे दान-शील-तयो-भावचतुःशालरुचिरे मनुष्यजन्ममन्दिरे संयमसुवर्णकलशमारोपयामि, एतावता तव साहय्यान्मम भागवती भवभयभङ्गदक्षा दीक्षा भवतु' । इति श्रुतिभ्यां श्रुत्वा हृदयोदयाचलसमुदितविवेकादित्यज्योतिर्विघटितमहामोहान्धकारः प्रास्तसमस्तचित्तविकारः पुनर्दीप्तमहावैराग्येण विस्मृतशपथोच्चारः श्रीजिनदत्तो व्याजहार – हे विचारचतुर ! त्वया किमिदमनुचितमूचे ?, खलु अहं तप्तायोगोलकल्पं सजाताशुभबहुसङ्कल्पविकल्पं कृतदुर्गतिदुःखजल्प स्वल्पमनल्पं वा तव राज्यं न गृह्णाम्येव, यदहं निजभुजाजितं स्वराज्यमपि त्यक्तुकामोऽस्मि तत् त्वदीयं कथमाददे ? । ततो हसित्वा अरिमर्दन उवाच - " हे स्मृतिज्ञाननिधान ! हे सत्यवादिप्रधान ! त्वं निजां वाचं संस्मर, कथं विपर्यस्यसि ?, यदि मनुष्यस्य वाचा गता तदा किं स्थितम् , अलीकं तु निःशेषदोषमूलं श्रूयते, यदुक्तम् -
असत्यमप्रत्ययमूलकारणं कुवासनासद्म समृद्धिवारणम् ।
विपन्निदानं परवञ्चनोर्जितं कृतापराधं कृतिभिर्विवर्जितम् ॥२७२॥" ततो जिनदत्तोऽधोभुवं विलोकमानो दध्यौ - "हहा ! यद्यहं वचनछलसङ्कटे स्वयमेव पतितः तर्हि कस्य कथयामि ?, स्ववाचैव बद्धोऽस्मि, यथा कोलिको निजलालयैव वेष्टयते, यथा कश्चिन्निजतैलेन खरण्ट्यते, यथा कश्चिन्निजशस्त्रेण छिद्यते, अथ अनेन बुद्धिमता राज्ञा पूर्वमेवाहं वचनस्थैर्य तथा जटितः यथाऽधुना त्यजन्नपि न छुटामि, अथ विमृश्य निषेध-स्वीकारयोरेकः कश्चिन्निविलम्बं कथितो विलोक्यते तावन्निषेधे कृते मम धर्ममूलं वाग याति, स्वीकारे तु मूर्छापरिग्रहो भवति, स तु शास्त्रे महारम्भादिदोषैस्त्याज्य एवोक्तोऽस्ति, यदुक्तम् -
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... असन्तो
जिनदत्तं प्रत्यरिमर्दनस्य निजपुत्री-राज्यस्वीकारप्रार्थना - ५
संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादलपमल्पं परिग्रहम् ।।२७३॥ त्रसरेणुसमोऽप्यत्र न गुणः कोऽपि विद्यते । दोषास्तु पर्वतस्थूलाः, प्रादुप्षन्ति परिग्रहे ॥२७४॥ परिग्रहमहत्त्वाद्धि मज्जत्येव भवाम्बुधौ । महापोत इव प्राणी, त्यजेत् तस्मात् परिग्रहम् ॥२७५॥ असन्तोषवतः सौख्यं न शक्रस्य न चक्रिणः । जन्तोः सन्तोषभाजो यदभयस्येव जायते ॥२७६।। स्वाधीन राज्यमुत्सृज्य, सन्तोषामृततृप्णया । निःसङ्गत्वं प्रपद्यन्ते, तत्क्षणाच्चक्रवर्तिनः ॥२७७॥ जीवन्तोऽपि विमुक्तास्ते ये मुक्तिसुखशालिनः ।
किं वा विमुक्तेः शिरसि, शृङ्ग किमपि वर्तते ? ॥२७८॥ असन्तोषे हि लोभपिशाचो हृदये सङ्क्रम्य विविधां व्यथां विदधाति, यदुक्तम् -
सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यसनैकराजमार्गस्य । लोभस्य को मुखगतः क्षणमपि दुःखान्तरमुपेयात् ? ॥२७९।। महताऽप्यर्थलाभेन, न लोभः परिभूयते ।
मात्राधिको हि किं क्वापि, मात्राहीनेन जीयते ॥२८०॥ 'सुवन्नरुपस्स य पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतया ॥२८१॥
(उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन ९, गाथा ४८) एवम् 'असंतोषमुख्यदोषलक्षपोषकरोऽयं परिग्रहः' इति जानन् पुनस्तमहं कथं करोमि ?" ।
इति ध्यायन् श्री जिनदत्तश्चटिकागृहीतबदरन्यायगतस्तदा नीचेरेव विलोक्य स्थितः । .. ततो निरीहतया सत्यसीमतया चाङ्गीकार-नकारवाक्ययोरेकतरमपि वक्तुमक्षम क्षमापति 'वीक्ष्य श्रीअरिमर्दनेन भूसंज्ञया प्रेरितो जीवदेवश्रेष्ठी हृष्टः स्पष्टमेवाचष्ट – “हे शिष्टमते! सामान्यस्यापि वचो मान्यम् , किं पुनरस्य मुक्तिकामनृपस्य ? तथा हे वत्स ! सत्पुरुषाः ____ 1. सुवर्ण-रूप्यस्य च पर्वताः भवेयुः, स्यात् - कदाचित् , हु - अवधारणे, कैलाससमाः असंख्यकाः, नरस्य लुब्धस्य न तैः किञ्चित् , इच्छा हु- यस्माद् आकाशसमा अनन्तिका।
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जिनदत्तकथानकम्
पराशाभङ्गपराङ्मुखा भवन्ति, असौ नृपस्तु निष्कामः प्रव्रजितुकामोऽस्ति, स च प्रवज्या मनोरथो यदि तव सान्निध्येन सिध्यति, तदा तवापि पुण्यं भवति, यदुक्तम्
७२
कर्तुः स्वयं कारयितुः परेण, शुद्धेन चित्तेन तथाऽनुमन्तुः । साहाय्यकर्तुश्च शुभाशुभेषु, तुल्यं फलं तत्त्वविदो वदन्ति ॥ २८२ ॥
तथा तत्त्वज्ञ ! तव पुरापि राज्यं प्रौढमस्ति तन्मध्ये स्तोकमिदमपि मिलतु, यथा ' मणशतं तथा शुण्ठीग्रन्थिकोऽपि ' इति न्यायोऽप्यस्ति, हे वत्स ! यथा त्वं निजमहाराज्यस्य चिन्तां करोषि तथाऽस्यापि चिन्ता कार्या, स्तोककृते त्वं मा भज्यस्व; ' यदि शकटे भूते भारो न भावी तत् किं पिञ्जन्या भविष्यति ?' इति विमृश्य सर्वमिदं गृहाण, उच्चनीचघनं मा पश्य, राजादेशोऽन्यथा न भवति" ।
ततो जिनदत्तोऽपि स्वस्य भोगफलं कर्म मत्वा भवितव्यतामिव पितुर्वाचं च दुरतिक्रमां ज्ञात्वा संयम साहाय्यस्य सारं सुकृतं चित्ते चिन्तयित्वा निजजिह्वोक्तां शपथवाणीं प्रमाणीकर्तुं राज्यादिस्वीकारं मेने ।
-
ततः सुपात्रप्रदत्तराज्यत्वात् प्रमुदितः श्रीअरिमर्दनस्तदैव प्रेषितप्रधानपुरुषपार्श्वादाकार्य ज्योतिषिकानवादीत् - भो विशारदाः ! भवतां शारदा प्रसन्नाऽस्ति तदुच्यतां किमप्यासन्नं लग्नं विद्यते। ततस्ते सर्वे सम्भूय चैकमतीभूय प्रोचुः - हे राजन् ! अद्यतने दिने यादृशं सुन्दरं लग्नद्वयं विद्यते तादशं वर्षमध्येऽपि नास्ति, तच्च सर्वग्रहबलोपेतं सर्वदोषविवजितं अहो ! दिष्ट्याद्य विवाहलग्नं पट्टाभिषेकलग्नं चेति द्वयं ज्ञेयम् । तदा राज्ञा चिन्तितम् - सद्यः सर्वभाग्यैर्जागरितम्, यदेकतोऽमुना पुरुषोत्तमेन वाक्यं मानितम्, अन्यतोऽद्यैव वाञ्छितं लग्नद्वयं स्वयं समायातम् ।
—
ततः श्रीअरिमर्दनस्तान् ज्योतिर्विदः पारितोषिकदानपूर्व विसृज्य सर्वसैन्यभाजं श्रीजिनदत्तराजं नगरमध्ये स्वसौधे समानीय निजैश्वर्यानुमानेन महोत्सवविधानपूर्व स्वपुत्र्या समं पर्यणाययत् । ततश्चतुरिकाया एवाऽऽनीय सदसि सिंहासने निवेशितस्य तस्य भृशमनिच्छतोऽपि द्वितीय लग्ने पट्टाभिषेकोऽकारि । तदा सर्वे राजप्रमुखैः पञ्चाङ्गस्पृष्टभूपीठं स नमोऽकारि, . तदा तदाज्ञा सेवकैर्विश्वे व्यस्तारि, वैरिभिर्दूरं व्यचारि, मुक्ताफलभृतस्थालैः सोऽवर्धि तद्भाग्येन समं केनापि नास्पर्द्धि, तदा निःस्वानप्रभृतिवादित्राणि गम्भीरस्वरेण वादितानि, गिरिकन्दराणि तन्नादेन प्रतिनादितानि । एवमुत्सवं विदधतोऽरिमर्दनस्य दिवसो गतः ततः किञ्चिद्योगनिद्रया राज्ञा रात्रिनता, ब्राह्मे मुहूर्त्ते चोत्थाय तेन चिन्तितम्, यथा
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अरिमर्दननृपस्य वैराग्यभावनादि " 1निसाविरामे परिभावयामि – गेहे पलित्ते किमहं सुयामि ? । डझंतमप्पाणमुविक्खयामि जं धम्मरहि ओ दियहे गमामि ॥२८३।। माणुस्सजम्मे तडिलद्धएणं० ॥२८४।। "कह आयं ? कह चलिय ?, तुम पि कह आगओ ? कहं गमिहि ।
अन्नन्नं पि न याणह, जीव ! कुडुंब कओ तुज्झ ? ।।२८५।। श्वः कार्यमद्य कुर्वीत, पूर्वाह्न चापरालिकम् । मृत्युनहि प्रतीक्षेत, कृतं चास्य कृताकृतम् ।।२८६॥ आयुयौवन-वित्तेषु स्मृतिशेषेषु या मतिः । सैव चेज्जायते पूर्व' न दूरे परमं पदम् ।।२८७।। विलम्बो नैव कर्तव्यः आयुर्याति दिने दिने ।
न करोति यमः क्षान्ति, धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥२८८।।" इति चिन्तयतो राज्ञो द्विधाऽपि प्रभातं जातम् । यथा -
निद्रा मोहमयी जगाम विलयं सच्चक्षुरुन्मीलितं, नप्टा दुष्टकषायकौशिकगणा माया ययौ यामिनी । पूर्वाद्रिप्रतिमे नरेन्द्रहृदये सज्ज्ञानसूर्योदयात् , कल्याणाम्बुजकोटयो विकसिता जातं प्रभातं ततः ॥२८९।। [धर्मघोषमुनिदेशनाश्रवणानन्तरमरिमर्दननृप जीवदेवश्रेष्ठि
जिनश्रीश्रेष्ठिनीनां दीक्षाग्रहणम् ] . ततः प्रातर्मङ्गलतूर्याणि नदन्ति । अथ 'गुरुवो यदि मम भाग्येनात्र समायान्ति तदाऽहं परलोकं साधयामि' इति चिन्ता यावता राज्ञः सजाता तावदारामिकेणाऽऽगत्य निजारामे गुर्वागमेन राजा वद्धितः । घनगर्जितमिव केकी गुर्वागमन श्रुत्वा हर्षनृत्यं तन्वानो राजा दध्यौ -
"अहो ! भाग्यमहो भाग्य, अहो ! मेऽद्य महोत्सवः ।
अरि रे धर्मसामग्री, कटरे कर्मलाघवम् ॥२९०॥ ___-1. निशाविरामे परिभावयामि - गृहे प्रदीप्ते किमहं स्वपीमि ? दह्यमानमात्मानं उपेक्ष्ये यद् धर्मरहितो दिवसान् गमयामि || 2. कथमायातम् ? कथं चलितम् ? त्वमपि कथं आगतः ? कथं गमिष्यसि ? अन्यान्यमपि न जानीषे जीव ! कुटुम्बं कुतस्तव ? ।।
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जिनदत्तकथानकम्
अहो ! भाग्यवतां स्पृहा प्राप्ती युग्मजाते इव स्याताम्, यथा
भवन्ति भूरिभिर्भाग्यैर्धर्मकर्ममनोरथाः ।
फलन्ति यत् पुनस्तेऽपि, तत् सुवर्णस्य सौरभम् ॥ २९१॥”
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ततः श्री अरिमर्दनस्तस्मै वनपालायाऽऽजन्मनिर्वाहयोग्यं प्रीतिदानं दत्त्वा प्रचुरपौरपरिवृतो नवीननृपतिसहितो गुरुपादपद्मपवित्रितं पुरपरिसरं प्राप । तत्र छत्रचामरादि मुक्त्वा पञ्चाभिगमपूर्व प्रदक्षिणां दत्त्वा गुरुस्तुतिमकरोत् यथा
"
-
( 1
अज्जं चिय सुपभायं, अज्जं चिय सव्वमिच्छियं जायं । मुक्ख पुरसत्थवाहो जं सुगुरु ! तुमं मए दिट्ठो ॥२९२॥
2
" धन्न ते गामाssगर-नगर जहिं सहगुरु विहरति । देसण किरणिहिं भवियणह मिच्छातिमिर हरंति ॥ २९३॥
अज्ज कयत्थो जम्मो, अज्ज कयत्थं च जीवियं मज्झ । जेण तुह दंसणामयरसेण सित्ताई गत्ताई ॥२९४॥ इत्यादि भणित्वा राजा प्रजायुक्तो मति श्रुतज्ञानभूरीणां श्रीधर्मघोषसूरीणां चरणारविन्दं वन्दित्वा यथोचितप्रदेशे निषीदति स्म ।
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अथ श्रीगुरवस्तत्कृपया धर्मदेशनां ददते स्म, यथा - - अहो ! प्रबलप्रमादपूरपतितः प्रायः प्राणी सर्वोऽप्येवं कल्पनां करोति यद् अहं केनाप्यसाध्यं साधयिध्ये, केनाप्यकृतं करिष्ये, वर्षान्तरे प्रौढं गृहं भव्यहट्टं वा मण्डयिष्ये, दीपाली प्रभाते सुतस्य सुताया वा विवाहं विधास्ये, अमुकामुक कार्याण्यद्य कल्ये पक्षाद्यन्तरे वा निष्पादयिष्ये इत्याद्यनेक सङ्कल्पविकल्पान् विवेकविकलः कल्पयति, देह - गेह - कुटुम्बादि सुख-दुःखतप्ति च रचयति । पुनरेवं वराको जीवः कदापि भावनां न भावयति, यथा
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संज्झ भरागसुरचावविब्भमे घडण - विहडणसरूवे । विवाइवत्थुनिवहे कि मुज्झसि जीव ! जाणतो ॥ २९५॥
1. अद्य खलु सुप्रभातम् अद्य खलु सर्वमिष्टं जातम्, मोक्षपुरसार्थत्राहो यद् सुगुरो ! खं मया दृष्टः ॥ 2. धन्यानि तानि ग्रामाss कर - नगराणि यत्र सद्गुरवः विहरन्ति, देशनाकिरणैः भव्यजनानां मिथ्यातिमिरं हरन्ति ॥ 3. अद्य कृतार्थं जन्म, अद्य कृतार्थं च जीवितं मम येन तत्र दर्शनामृतरसेन सिक्तानि गात्राणि ॥ 4. सन्ध्याभ्रराग - सुरचापविभ्रमे घटन विघटनस्वरूपे विभवादिवस्तुनिवहे किं मुह्यसि जीव ! जानन् ॥
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धर्मघोषसरेधर्मदेशना धण-सयण-बजुम्मत्तो निरत्थयं अप्पगव्विओ भमसि । जं पंचदिणाणुवरिं न तुमं न धणं न ते सयणा ॥२९६॥ "कालेण अणंतेणं अणंत बल-चक्कि-वासुदेवा वि । पुहईए अइक्कता, को सि तुमं ? को य तुह विहवो ? ॥२९७॥
॥ अनित्यता १॥ "रोग-जरा-मच्चुमुहाऽऽगयाण बल-चक्कि-केसवाणं पि । भुवणे वि नत्थि सरणं इक्कं जिणसासणं मुत्तुं ॥२९८॥ *सयलतियलोयपहुणो उवायविहिजाणगा अणंतबला । तित्थयरा वि हु कीरति कित्तिसेसा कयंतेण ॥२९९।। बहुसत्तिजुओ सुरकोडिपरिवुडो पविपयंडभुयदंडो । हरिणो व्व हीरइ हरी कयंतहरिणा हरियसत्तो ॥३०॥ "छक्खंडवसुहसामी नीसेसनरिंदपणयपयकमलो ।
चक्कहरो वि गसिज्जइ ससि व्व जमराइमा विवसो ॥३०१।। 'जे कोडिसिलं वामिक्करयलेणुक्खिवंति तूलं व । विज्झवइ जमसमीरो, ते वि पइवु बऽसुररिउणो ॥३०२।। "जइ मच्चुमुहगयाण एआण वि होइ किं पि न हु सरणं । ता कीडयमित्तेसुं का गणणा इयरलोएसु ? ।।३०३॥
॥ अशरम् २॥ इक्को कम्माइं समज्जिणेइ, भुंजइ फलं पि तस्सिक्को ।
इक्कस्स जम्म-मरणे, परभवगमणं च इक्कस्स ॥३०४॥ 1. धन-स्वजन-बलोन्मत्तो निरर्थक आत्मगर्वितो भ्रमसि यत् पञ्चदिनानामुपरि न त्वम् , न धनम् , न ते स्वजनाः ॥ 2. काले अनन्ते अनन्ताः बल चक्रि-वासुदेवा अपि पृथिव्यां अतिक्रान्ताः, कोऽसि त्वम् ? कश्च तव विभवः ॥ 3. रोग-जरा-मृत्युमुखाऽऽगतानां बल-चक्रि-केशवानामपि भुवनेऽपि नास्ति शरणं एकं जिनशासनं मुक्त्वा ॥ 4. सकलत्रिलोकप्रभवः उपायविधिज्ञायका अनन्तबलाः तीर्थकरा अपि क्रियन्ते कीर्तिशेषाः कृतान्तेन । 5. बहुशक्तियुतः सुरकोटिपरिवृतः पविप्रचण्डभुजादण्डः हरिण इव हर्यते हरिः कृतान्तहरिणा हृतसत्त्वः ।। 6. षट्खण्डवसुधास्वामी निःशेषनरेन्द्रप्रणतपदकमल: चक्रधरोऽपि ग्रस्यते शशी इव यमराहुणा विवशः ।। 7. ये कोटिशिलां वामैककरतलेन उत्क्षिपन्ति तूलमित्र विध्मापयति यमसमीरः तानपि प्रदीप इव असुररिपून् । 8. यदि मृत्युमुखगतानां एतेषामपि भवति किमपि न खलु शरणं तर्हि कीटकमात्रेषु का गणना इतरलोकेषु ।। 9. एकः कर्माणि समर्जयति, भुनक्ति फलमपि तस्य एकः, एकस्य जन्म-मरणे, परभवगमनं च एकस्य ।।
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जिनदत्तकथानकम्
'सयणाईविच्छड्डो मह इयमित्तो ति हरिसियमणेण ।
तस्स निमित्तं पावाई जेण विहियाई विविहाई ॥३०५।। "नरय-तिरियाइएसु तस्स य दुक्खाइं अणुहवंतस्स । दीसइ न कोइ बीओ जो अंस गिण्हइ दुहस्स ।।३०६॥ भुत्तण चक्किरिद्धिं, वसिउं छक्खंडवसुहमज्झम्मि । इक्को वच्चइ जीवो मुत्तु विहवं च देह च ।।३०७।।
॥ एकत्वम् ३॥ *अन्न कुटुंबमेयं, अन्ना लच्छी, सरीरमवि अन्नं । मुत्तुं जिणिंदधम्म न भवंतरगामिओ अन्नो ।।३०८।। वैदेशकुटयां पुरुषा द्रुमे छदा गावो वने शाखिनि पक्षिणो यथा । तथैव संयोगवियोगभाजिनः स्वकर्मभाजः स्वजना जना इह ॥३०९।।
इय कम्मपासबद्धा विविहट्ठाणेसु आगया जीवा । वसिउं एगकुटुंबे अन्नन्नगईसु वच्चंति ॥३१०॥
॥ अन्यत्वम् ४॥ श्वभ्रे शूल-कुठार-यन्त्र-दहन-क्षार-क्षुरव्याहतैस्तिर्यक्षु श्रमदुःख-पावकशिखासम्भारभस्मीकृतैः । मानुष्येऽप्यतुलप्रयासवशगैर्देवेषु रागोद्धतैः, संसारेऽत्र दुरन्तदुर्गतिमये बम्भ्रम्यते प्राणिभिः ।।३११।। "नरएसु जाइ अइकक्खडाई दुक्खाई परमतिक्खाई । को वन्नेही ताई जीवंतो वासकोडी वि ? ॥३१२॥ 'जइ अमरगिरिसमाणे हिमपिंड कोइ उसिणनरएसु ।
खिवइ सुरो तो खिप्पं वच्चइ विलयं, अपत्तो वि ॥३१३।। 1. स्वजनादिविच्छर्द: मम इयन्मात्र इति हृष्टमनसा तस्य निमित्तं पापानि येन विहितानि विविधानि ॥ 2. नरक तिर्यञ्चादिकेषु तस्य च दुःखानि अनुभवतः दृश्यते न कोऽपि द्वितीयो यः अंशं गृहणाति दुःखस्य ।। 3. भुक्त्वा चक्रियर्द्धिम् , उषित्वा षटखण्डवसुधामध्ये एकः गच्छति जीवः मुक्त्वा विभवं च देहं च ।। 4. अन्यत् कुटुम्बमेतत् , अन्या लक्ष्मीः, शरीरमपि अन्यत्, मुक्त्या जिनेन्द्रधर्म न भवान्तरगामी अन्यः ।। 5. एवं कर्मपाशबद्धाः विविधस्थानेभ्यः आगताः जीवाः उषित्वा एककुटुम्बे अन्यान्यगतिषु गच्छन्ति ।। 6. नरकेषु यानि अतिकर्कशानि दुःखानि परमतीक्ष्णानिक वर्णयिष्यति तानि जीवन् वर्षकोटिमपि ॥ 7. यदि अमरगिरिसमान हिमपिण्ड कश्चिद् उप्णनरकेषु क्षिपति सुरः तर्हि क्षिप्रं गच्छति विलयम् , अप्राप्तोऽपि ।।
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धर्मघोषस रेर्धर्मदेशना
धमियकय अग्गिवन्नो मेरुसमो जइ पडिज्ज अयगोलो । परिणामिज्जइ सीएस सो वि हिमपिंडरूवेण ॥३१४॥
किंबहुना ?
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" तह फालिया वि ऊक्कत्तिया वि तलिया विछन्निभिन्ना वि । दड्ढा भुज्जा मुडिया य तोडिया तह विलीणा य ॥३१५॥ " पावोदएण पुणरवि मिलति तह चेव पारयरसु व्व । इच्छंता विहु न मरंति कहवि ते नारया वरया ।। ३१६ ।। 'पभणति तओ दीणा ' मा मा मारेह सामि ! पहु ! नाह ! | अइदुसहं दुक्खमिणं, पसियह, मा कुवह इत्ता हे ' एवं परमाहम्मियपासु पुणो पुणो विलग्गति । दंतेहिं अगुलीओ गिव्हंति, भणति दीणाई ||३१८॥
॥३१७॥
ततः परमाधार्मिका मद्यमांसकन्दमूलादिभक्षण-मृगयादिहिंसा - कूट- क्रयादिवञ्चन- पैशुन्य-विश्वासघातखात्रपात-देशग्रामभज्ञ्जन-लुण्टनप्रमुखं पूर्वकृतं दुष्कृतं स्मारयन्ति, वदन्ति च
" भरिउ पिवीलियाईहि सीवियं जइ मुहं तुहऽ म्हेहिं ।
तो होसि पराहुतो, भुंजिसि रयणीइ पुण मिट्ठ ॥३१९॥
"आरंभ - परिग्गहवज्जियाण निव्वहइ अम्ह न कुडुंब ' । इय भणिय जस्स कए तं आणसु दुहविभागत्थं ॥ ३२० ॥
८
अच्छिनिमीलणमित्तं नत्थि सुहं, दुक्खमेव अणुबद्धं । नए नेरइयाणं अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥ ३२१॥
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॥ नरकगतिः ४ ॥
1. ध्मातकृताद्मिवर्णो मेरुसमो यदि पतेत् अयोगोल: परिणम्यते शीतेषु | नरेकेषु ] सोऽपि हिमपिण्डरूपेण || 2. तथा स्फाटिताः अपि उत्कर्तिताः अपि तलिताः अपि छिन्नभिन्नाः अपि दग्धाः भूर्जिताः मोटिताश्च चोटिताः तथा विलीनाश्च ॥ 3. पापोदयेन पुनर्राप मिलन्ति तथैव पारदरस इव, इच्छन्तः अपि खलु न म्रियन्ते कथमपि ते नारकाः वराकाः ॥ 4 प्रभणन्ति ततः दीना: ' मा मा मारयत स्वामिन्! प्रभो ! नाथ !, अतिदुःसहं दुखमेतत् प्रसीदध्वम् मा कुप्यथ इदानीम् ॥ 5 एवं परमधार्मिकपादेषु पुनः पुनः विलगन्ति दन्तैः अङ्गुल्यः गृह्णन्ति भणन्ति दीनानि ।। 6. भृत्वा पिपोलिकादिभिः सीवितं यदि मुखं तव अस्माभिः ततः भवसि पराभूतः, भुजिष्यसि रजन्यां पुनः मिष्टम् ॥ 7. ' आरम्भ परिग्रहवर्जितानां निर्वहति अस्माकं न कुटुम्बम् ' एवं भणितं यस्य कृते तं आनय दुःखविभागार्थम् ॥ 8. अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखम्, दुःखमेव अनुबद्धं नरके नारकाणां अहर्निशं पच्यमानानाम् ॥
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जिनदत्तकथानकम्
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अथ शेषं गतित्रयं दुःखमयं वाच्यम् ।
|| भवभावना ५॥
अशौचा-ऽऽश्रव-संवर-कर्मनिर्जरा - धर्मस्वाख्यातता एता पञ्चापि भावनाः कदापि भव्य -
जन्तुर्भावयति १० ॥
कटिस्थकरवैशाखस्थानकस्थनराकृतिम् ।
द्रव्यैः पूर्णं स्मरेल्लोकं स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकैः ॥३२२॥ अहवा लोग सहावं भाविज्ज " भवंतरम्मि मरिऊणं । जणी व हवइ धूया, धूया वि हु गेहिणी होइ ॥ ३२२ ॥
तो जणओ, जणओ विनियसुओ, बंधुणो वि हुंति रिऊ अरिणो व बंधुभावं पावंति अनंतसो लोए ॥ ३२४॥
पियपुत्तस्स वि जणणी खायइ मंसाई परभवावते । जह तस्स सुकोसलमुणिवरस्स लोयम्मि कट्ठमहो ! " ॥ ३२५॥ ।। लोकः ११॥
अकामनिर्जरारूपात्पुण्याज्जन्तोः प्रजायते ।
स्थावरत्वात् सत्वं वा तिर्यक्त्वं वा कथञ्चन ॥ ३२६ ॥ मानुष्यमार्यदेशश्च जातिः सर्वाक्षपाटवम् । आयुश्च प्राप्यते तत्र कथञ्चित् कर्मलाघवम् ॥ ३२७॥ प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा कथकश्रवणेष्वपि । तत्त्वनिश्चयरूपं तद् बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥३२८॥
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'अन्नन्न सुहसमागमचितासयदुत्थिओ सयं कीस ? |
कुण धम्मं जेण सुहं, सो च्चिय चितेइ तुह सव्वं ॥३२९॥
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'जह कागिणीए हेउं सहस्सं हारए नरो ।
अपत्थं अंबगं राया रज्जं तु हारए ||३३०॥
1. अथवा लोकस्वभावं भावयेत् - " भवान्तरे मृत्वा जनन्यपि भवति पुत्री, पुत्र्यपि गेहिनी भवति, पुत्रो जनकः, जनकोऽपि निजसुतः, बान्धवा अपि भवन्ति रिपवः, अरिणोऽपि बन्धुभावं प्राप्नुवन्ति अनन्तशो लोके, प्रियपुत्रस्यापि जननी खादति मांसानि परभवावर्ते, यथा तस्य सुकोशलमुनिवरस्य, लोके कष्टमहो १ ।। 2. अन्यान्यसुखसमागमचिन्ताशतदुः स्थितः स्वयं कस्मात् ? कुरु धर्मं येन सुखम् स खलु चिन्तयति तव सर्वम् ॥ 3. यथा काकिन्याः हेतुं सहस्रं हारयते नरः, अपथ्यं आम्रकं प्राय राजा राज्यं तु हारयेत् ॥
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अरिमर्दननृप-जिनदेव श्रेष्ठ्यादीनां दीक्षाग्रहणम् गहियं जेहिं चरित्तं जलं व तिसिएहि गिम्हपहिएहिं । कयसुगईपत्थयणा ते मरणंते न सोयति ।।३३१॥ 'को जाणइ 'पुणरुत्तं होही कइया वि धम्मसामग्गी?'। रंकधवं कुणसु महव्वयाण इण्हि पि पत्ताणं ॥३३२।। एगदिवसं पि जीवो पव्वज्जमुवागओ अणन्नमणो । जइ वि न पावइ मुक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ ।।३३३॥
॥ बोधिः १२॥ इति देशनां श्रुत्वा सञ्जातपरमवैराग्यः श्रीअरिमर्दनः करौ योजयित्वा भणति - भगवन् ! भवसमुद्रात् संयमयानपात्रेण मां तारयति ।
अत्रान्तरे सप्रियो जिवदेवश्रेष्ठी जिनदत्तमुवाच - " हे वत्स ! संयमार्थमस्माननुमन्यस्व, सुपुत्रो भूत्वाऽस्मांस्तारय, पुनरेवंविधा सामग्री क्व भवे मिलिप्यति ?, यदुक्तम् -
लद्धिल्लियं च बोहिं० ॥३३४॥ ततो वत्स ! वृथा धर्मान्तरायं मा कृथाः, त्वादृशे पुत्रे सति वयं यदि दुर्गतिं पतिष्यामः तत् कस्य पितरः स्वर्ग गन्तारः !, तन्मोहं विमुच्यानुमति देहि "। ततो जिनदत्तो दध्यौ - " एकमग्रेऽपि पितरौ संयमाथिनावभूताम् , द्वितीयं गृहोस्थितोऽयं सार्थों जातः, यद्यवादिते नृत्यति तर्हि वादेिते किमुच्यते ?, अथ वारितावपि पितरौ न स्थास्यतः, केवलं खेदं धरिष्यतः, यद्यहमेवं वक्ष्यामि ‘तातपादा राज्यं कुर्वन्तु, अह तु प्रव्रजिष्यामि' तदप्यनुचितं प्रतिभासते, यतः पितुश्चतुर्थाश्रमो वर्तते, ततः शैशवे यथा पित्रोः प्रसादान्निश्चितेन मया धर्मध्यानमेव कृतं तथा सम्प्रति मत्सान्निध्येन परलोकमाराधयताम्" । इति विचिन्त्य दीक्षानुमतिं दत्त्वा सर्वेषां प्रव्रज्यामहोत्सवं जिनदत्तश्चक्रे । तदा वैराग्यसनतास्तदनुगताः पञ्चशताः व्यवहारि युता राजराजसुताः प्रव्रजिताः । अथ गुरुरनुशास्ति ददाति, यथा -
अहो ! पवित्रीकृतमद्य गात्रं, कुलं च चक्रे सकलं समुज्ज्वलम् । नाम स्वकीयं लिखितं च चन्द्रे, प्रव्रज्यया स्वीकृतया त्वया च ।।३३५।।
1. गृहीतं यः चारित्रं जलं इव तृषितै ग्रीष्मपान्थैः कृतसुगतिपाथेयाः ते मरणान्ते न शोचन्ते ।। 2. को जानाति ' वारं वारं भविष्यति कदापि धर्मसामग्री ? ' रङ्कतृप्तिं कुरु महाव्रतानां इदानीमपि प्राप्तानाम् ॥ 3. एकदिवसमपि जीवः प्रव्रज्यामुपागतः अनन्यमना: यद्यपि न प्राप्नोति मोक्षम् , अवश्यं वैमानिको भवति ॥
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जिनदत्तकथानकम् 1 धन्नाण निवेसिज्जइ, धन्ना गच्छंति पारमेईए ।
पारं इमीइ गंतुं पारं दुक्खाण वच्चंति ॥३३६।। ततो जिनदत्तो राजा सम्यक्त्वमूलं गृहिधर्म प्रतिपद्य धन्यम्मन्यो नगरं गतः । गुरवोऽन्यत्र सपरिच्छदा विजहः ।
[जिनमन्दिरनिर्मापणानन्तरं जिनदत्तस्य धर्मप्रवृत्तिवर्णनम् ] अन्यदा राजा जिनराजभक्तिप्रेरितो वसन्तपुरे उत्तुङ्गतोरणं हिमगिरिशिखराणुकारिणं जननयनमनोहारिणं परितो द्वासप्ततिदेवकुलिकाविराजमानं स्वर्गविमानसमान महीमहिलालङ्कारहारं महान्तमेक राजविहारं कारयामास, प्रासादफलं महदस्ति । यदुक्तम् -
जैन मन्दिरमादरेण कुरुते द्रव्यानुसारेण यस्तार्ण दारवमिष्टकादिरचितं हर्षोल्लसन्मानसः । चञ्चत्काञ्चनभित्तिसन्मणिमयस्तम्भाभिराम मह
दिव्यश्रीकुलसङ्कुलं स लभते कल्पे विमानोत्तमम् ॥३३७॥ तत्र चैत्ये त्रिसन्ध्यवाद्यमानपटुपटहध्वनिधौकारो झल्लरीझात्कारो बहुतरप्रौढतरघण्टारणत्कारोऽपि नित्य जायते, तथा प्रत्यहं राजादेशान्नटीनाट्यविधानं गान्धर्वगीतगान च प्रवर्त्तते,
"सयं पमज्जणे पुण्णं, सहस्सं च विलेवणे ।
सयसाहस्सिआ माला, अणंतं गीअवाइए ।।३३८।। तथा सुवर्णादिमयानि विशालस्थाल-सारभृङ्गारकलश-मङ्गलप्रदीपा-ऽऽरात्रिक-चन्दनकच्चोलिकावासकुम्पिका-स्नात्रजलकुण्डिका-धूपधाना-ऽवधर्षादीनि पूजोपकरणानि नरनारीयोग्यधौतिकाशतं च दुकूलचन्द्रोद्योतशतं चाक्षतपट्टमष्टमङ्गलपट्टमन्यदपि चैत्योपकरण कोशापवरिकां भूषणमञ्जूषां च वसुधापतिविधिज्ञो विधापयति स्म । तथा रत्नजटितसुवर्णजातिमुकुट-कुण्डल-धिकृतार्कमण्डलमामण्डल-हार-पर्यस्तिका-बाहुरक्षक-तिलक-चक्षुः-श्रीवत्सप्रमुखानार्हतानलङ्करान् कारितवानात्मालङ्कारकृते कृती क्षितीश्वरः । तथा भूपतिस्त्रिभुवनपतिजिनपतिचैत्ये चतुर्दा रे विचित्ररचनायुतं मण्डपानामष्टोत्तरशतं सूर्यकान्त-स्फटिकादिमणिप्रभाकृतदिनारम्भान् सहस्रस्तम्भान् , मणिसुवर्णमयानि सोपानानि, सुवर्णमयं भूपीठ, सुवर्णमयान् कलशाऽऽमलसारकान्, लहलहायमानपञ्चवर्णमयीध्वजपताकाश्च निर्मापयामास, निर्मायमनाः । तथा मणि-रत्न-स्वर्ण-रूप्य-पित्तल-प्रवाला
. 1. धन्येषु [ प्रव्रज्या ] निवेश्यते, धन्याः गच्छन्ति पारमेतल्याः, पारमेतस्या गत्वा पारं दुःखानां गच्छन्ति 2 शत प्रमार्जने पुण्यम् , सहस्रं च विलेपने, शतसाहसिका माला, अनन्तं गीतवाद्ये ॥
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जिनदत्तनृपस्य धर्मप्रवृत्तिः
ऽऽरासपाषाण-ज्योतीरस-चन्दनलेप-प्रभृतिसारपदार्थमयी - ज्योतिर्मयीद्वर्यादिधातुमिश्राः पराः सहस्रा अप्रतिमाश्चतुर्विंशतिजिनप्रतिमा निर्माप्य सोत्सवं प्रतिष्ठाप्य च स्वचैत्यमध्ये सर्वत्र मण्डयति स्म महीमण्डलाखण्डलः । एवम प्रतिबिम्बजिनबिम्बकदम्बं कारयतां महत्फलं भवति, यदुक्तम्
प्रत्यासीदति तस्य निर्वृतिपदं स्वर्गस्य किं ब्रूमहे,
साम्राज्यं स्वकरस्थमेव विषयाभिख्यं तु सौख्यं ध्रुवम् । येनानन्यसमान पुण्यविभुना निर्मापिता धीमता,
रम्याङ्गी त्रिजगत्पतेः प्रतिकृतिः सर्वार्थसंसाधिनी ॥ ३३९ ॥
अथ राजा तल्लीनचित्तश्च त्यालये नियमपूर्व त्रिसन्ध्यमवन्ध्यसमग्र सामग्र्या जिनपतिपूजां निर्माति, यदुक्तम् –
चित्रं जगत्त्रयीनाथे संलग्ना कुसुमावली । स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिफलं भव्येषु सम्भवि ॥३४०॥ चान्दनी चर्चना येन तनौ तेने जिनेशितुः । चित्रं तस्य भवग्रीष्माभीष्मतापः क्षयं ययौ || ३४१॥
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तथा राजा स्वयं सेवकीभूय भूयसीभक्तिर्भगवदङ्गे विविधामङ्गिकां रचयति, यदुक्तम् - पञ्चभिर्वर्णकैर्योऽर्हदङ्गके कुरुतेऽङ्गिकां ।
स पञ्चविषयान् भुक्त्वा पञ्चमीं गतिमश्नते ॥ ३४२ ॥
तथा शेषामिव जिनाज्ञां शिरसि रसानाथो वहन्नस्ति, यदुक्तम्
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जो न कुणइ तुह आणं सो आणं कुणइ तिहुयणस्सावि । जो पुण कुणइ जिणाणं, तस्साऽऽणा तिहुयणे देव ! ।। ३४३ ।।
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तथा ज्ञानभक्तिभाग् भूपतिः सर्व सरस्वतीकोशं लेखयामास, यदुक्तम् - तीर्थनाथागमपुस्तकानि, न्यायार्जितार्थैरिह लेखयन्ते ।
ते तत्त्वतो मुक्ति पुरीनिवासस्वीकारपत्रं किल लेखयन्ति ॥ ३४४॥
शास्त्रं हि तृतीयं लोचनम्, यदुक्तम् -
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ये बाह्ये लोचने ताभ्यां बाह्य वस्तु निरीक्ष्यते ।
अन्तस्तत्त्वेक्षणे किन्तु शास्त्रमान्तरनेत्रति ॥ ३४५॥
1. यो न करोति तवाज्ञां स आज्ञां करोति वहति त्रिभुवनस्यापि यः पुनः करोति जिनाज्ञां तस्याज्ञा त्रिभुवने देव ! ॥ J-11
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जिनदत्तकथानकम्
- उड्ढमहो तिरिएसुं० ॥ ३४५ ॥ ततश्चतुर्विधश्रीसङ्घस्य चतुर्विधाहार-वन्दनादिप्रकारतो भक्ति चकार सविचारः पृथ्वीपतिः, यदुक्तम् -
यद्भक्तेः फलमर्हदादिपदवी मुख्यं कृषः सस्यवत् , चक्रित्व-त्रिदशेन्द्रतादिपदवी प्रासङ्गिक गीयते । शक्ति यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः,
सङ्घः सोऽघहरः पुनाति चरणन्यासैः सतां मन्दिरम् ।।३४६॥ य एवं सप्तक्षेत्र्यां धनं व्ययति स धन्यो महाश्रावको भण्यते, यदुक्तम् -
आढ्याः सन्ति भुवस्तले प्रतिपुरग्राम कियन्तोऽपि ते, येषां चित्तमलङ्करोति धरणी वृद्धया च नाशेन च । बिम्बे बिम्बनिकेतने जिनपतेः सङ्घ च भट्टारके, ज्ञाने त्यागमुपैति यस्य सततं, धन्यस्ततो नापरः ॥३४७।। एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेव्यां धनं वपन् । दयया चातिदीनेषु महाश्रावक उच्यते ।।३४८।। यः सद् बाह्यमनित्यं च क्षेत्रेषु न धनं वपेत् ।
कथं वराकश्चारित्रं दुश्चरं स समाचरेत् ? ।।३४९॥ पुनरयं भूपतिरवश्यमावश्यकमुभयकालं कर्मक्षयकृते करोति स्म, यदुक्तम् –
प्रणिहन्ति क्षणार्द्धन साम्यमालम्ब्य कर्म तत् । यन्न हन्यान्नरस्तीव्रतपसा जन्मकोटिभिः ॥३५०॥ आरंभस्स निवारण सुहमणोवित्तीइ जं कारणं, अक्खारीण निरोहणं दिण-निसापच्छित्तसंसोहणं । कम्माणं मुसुमूरणं तवसिरीभंडारसंपूरणं,
तं धन्ना भवनासणं अणुदिणं सेवंति आवस्सयं ॥३५१॥ तथैतत् प्रतिक्रमणं वैद्यस्य तृतीयौषधवत् सकलदोषव्याधिमपनीय पुण्याङ्गपुष्टि करोति, यदुक्तम् -
11. भारम्भस्य निवारणम् , शुभमनोवृत्तः यत् कारणम् , अक्षारीणां निरोधनम् , दिन-निशाप्रायश्चित्तसंशोधनम् , कर्मणां भञ्जनम् , तपःश्रीभाण्डागारसम्पूरणम् , तद् धन्याः भवनाशनं अनुदिनं सेवन्ते आवश्यकम् ॥
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जिनदत्तनृपस्य धर्मप्रवृत्तिः
वाहिमवणे भावे कुणइ अभावे तयं तु पढमम्मि । मवणे न कुणइ तइयं तु रसायणं होई || ३५२ ।। भाग्येन विदधे तस्य लक्ष्मीरक्षीणकोशताम् । अतोऽसौ सर्वलोकानां मुमुचे सकलान् करान् ॥ ३५३ ॥ प्रजास्तस्मिन् नृपेऽभूवन् निरातङ्का निरामयाः । चिरायुषो महासौख्याः शुद्धसन्ततिशालिनः ॥ ३५४॥ लक्ष्मीः सरस्वती चापि विरोधं स्वस्वभावजम् । विमुच्य भूपं भेजाते रेजाते ते ततोऽधिकम् ॥ ३५५॥
ये भूपा भरतार्द्धेऽस्मिन् विक्रमाक्रान्तशत्रवः । तैरप्यसेवि तत्पादद्वयी पुण्यानुभावतः ।। ३५६॥ तस्य विद्याबलेनाथ नाथा विद्याभूतामपि । वशीभूताः पदाम्भोजसेवा हेवा किनोऽभवन् ॥ ३५७॥ विमलमती - श्रीमती मुख्यप्रणयिनीभवाः । कुमारा भूरयोऽभूवंस्तस्य शस्यगुणालयाः ॥ ३५८ ॥ प्रतिदेशं प्रतिद्रङ्गं प्रतिग्रामं प्रतिनजम् । भूपतिः कारयामास जिनचैत्यधरां धराम् || ३५९ ॥ विमानं नित्यमारुह्य, मनश्चिन्तितसंज्ञकम् । शत्रुञ्जयादितीर्थेषु यो देवान् सप्रियोऽनमत् ॥३६०॥ अक्षुद्ररूप-सौम्यादिगुणा ये एकविंशतिः । श्रावकत्वोचिताः सन्ति भूपतिस्तानशिश्रियत् ॥३६१॥ सम्यक्त्वमूलद्वादशव्रतानि च निरन्तरम् ।
सप्रियः ससुतो भूपः स्वप्रजावदपालयत् ॥ ३६२॥
"
[ अरिमर्दनमुन्यादीनां वसन्तपुरागमनं ततो विहरणं च ]
एकदा विहरन्तोऽत्र श्री अरिमर्दनादयः ।
महर्षयो महापूज्या वसन्तपुरमागमन् ॥ ३६३॥
1. व्याधिं अपनयति, भावान् करोति अभावान् तत् तु प्रथमे । द्वितीयं अपनयति, न करोति तृतीयं तु रसायनं भवति ॥
દરે
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जिनदत्तकथानकम्
ततो राजविहारादिचैत्यदेवान् नमस्यतः । तान् ज्ञात्वा जिनदत्तोऽपि तत्र सत्वरमागतः ॥३६४॥ राजर्षि-जनकादीन् यतीन् सर्वानवन्दत । धर्म श्रुत्वा च तद्वक्त्रात् स्वं कृतार्थममन्यत ॥३६५॥ युग्मम् ॥ ततो मुनिवतंसास्ते व्यहरन्नवनीतले । नैकत्र स्थायिनो येन श्रमणाः स्युः समीरवत् ॥३६६॥ कदाचित् तीर्थयात्रायां तानचिन्तितसङ्गतान् । श्रीसङ्घसहितो राजा हृष्टचित्तो ननाम च ॥३६७।। कदाचिद् वायुवेगेन विमानेन नभस्तले ।
गच्छता नरनाथेन ते नीरीक्ष्य नमस्कृताः ॥३६८।। तथा सर्वत्र कारिताभिः पौषधशालाभिरवारितदानशालाभिश्च जीणोद्धारैश्च प्रतिवर्ष' सम्मेतादितीर्थेषु सङ्घपतीभूय यात्रया रथयात्रया च परैरप्यायुर्धर्मकार्यैः प्रत्यहं प्राज्ञः पार्थिवोऽगण्यपुण्यलाभाय बहुधनव्ययं व्यधात् । यदुक्तम् -
कोटि काणवराटकेन दुषदः खण्डेन चिन्तामणि, स्नुह्या कल्पमहीरुहं विषमता मुक्ताफलानां स्रजम् । स क्रीणात्यमृतं विषेण जरता मेषेण चैरावणं,
धर्म कर्मनिबन्धनैरपि धनगृह्णाति यो बुद्धिमान् ॥३६९॥ [अरिमर्दन-जीवदेवादिमुनिदेहावसानश्रवणानन्तरं विस्तरेण
जिनदत्तस्य दीक्षाग्रहणनिरूपणम् ] अन्यदा देहकार्याणि कृत्वा सर्वालङ्कारभूषितो भूपतिर्भद्रासनं भेजे । इतश्च राजयुवराज-मन्त्रि-महामन्त्रि-श्रष्ठि-सार्थवाह-सेनापतिप्रभति-सेवकशतसहस्रसम्पूर्णायां सभायां जायमाने चामरे नाट्यादिरने, प्रवृत्तासु पौराणिकानां पूर्वपुरुषसङ्कथासु, निष्पद्यमाने विदुषां शास्त्रसंवादे, विधीयमानेषु कारणिकै राज्यसारेषु व्यवहारे , सत्याप्यमानासु नियोगिभिर्लेख्यकादिचिन्तासु, केनाऽपि वैदेशिकपुरुषेण सहसा राज्ञोऽग्रे प्रोक्तम् - हे देव ! श्रीअरिमर्दनराजर्षिजीवदेवर्षिप्रमतयो यतयो महातीर्थेऽनशनेन दिवं गता इति । ततोऽश्रुविमिश्रलोचनो राजैवं शोचति स्म - " हहा ! पापिना देवेन भगवन्तो महर्षयोऽप्यमी संहृताः, अहो ! विधेविपरीतचेष्टां पश्यत, यदुक्तम् -
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दिक्षाग्रहणविषये जिनदत्त-तदमात्ययोः संवादः
सृजति तावदशेषगुणालयं पुरुषरत्नमलङ्करणं भुवः । तदनु तत् क्षणभनि करोति चेदहह ! कष्टमपण्डितता विधेः ॥ ३७० ॥"
ततो गीतार्थः कश्चिन्मन्त्री जगाद
—
" शोचनीयः स एवायं यः स्यात् सत्कृत्यवर्जितः । धर्मपाथेयहीनत्वात् संसाराध्वनि दुःस्थितः ॥ ३७१॥ तव - नियमसुट्ठियाणं कल्लाणं जीवियं पि मरणं पि । जीवंतऽज्जति गुणे, मुआ वि पुण सुग्गई जंति ॥३७२॥ त्यक्त्वा जीर्णमिदं देहं लभते च पुनर्नवम् । कृतपुण्यस्य जीवस्य मृत्युरेव रसायनम् ||३७३॥
अत एव श्रीवीरस्य दर्दुराङ्कदेवेन भक्त्या ' म्रियस्व ' इत्युक्तम् ततो राजा सवैराग्यमिति दध्यौ
—
"
1
द
“धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतां, आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमक्ङ्केशयाः । अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतटक्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ॥ ३७४॥ त्यक्त्वा सङ्गमपारपर्वतगुहागर्भे रहः स्थीयतां, रे रे चित्त ! कुटुम्बपालनविधौ कोऽवाधिकारस्तव ? | यस्यैते पुरतः प्रसारितदृशः प्राणप्रियाः पश्यतो, नीयन्ते यमकिङ्करैः करतलादाकृष्य पुत्रादयः ॥३७५॥ यैस्त्यक्ता किल शाकिनीवदसमप्रमाञ्चिता प्रेयसी, लक्ष्मीः प्राणसमाऽपि पन्नगवधूवत् प्रोज्झिता दूरतः । मुक्तं चित्रगवाक्षराजिरुचिरं वल्मीकवन्मन्दिरं, निःसङ्गत्वविराजिताः क्षितितले नन्दन्तु ते साधवः ||३७६॥
तथा प्रियस्वजनमरणं श्रुत्वा स्वस्यापि तद्ववदवश्यम्भावि तद् ज्ञात्वाऽपि वराको मूढजीवः स्वहितं न करोति, यदुक्तम् -
1. तपो-नियमसुस्थितानां कल्याणं जीवितमपि मरणमपि, जीवन्तः अर्जयन्ति गुणान् मृता अपि पुनः सुगतिं यान्ति ॥
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८६
एवमुत्तरोत्तर विशुद्ध परिणामेन राज्ञः संयमेच्छाऽजनि । ततः सकलमन्त्रिमुख्यं विमलबोधाख्यं महामात्यमिति भूपतिर्बभाषे - हे मन्त्रिराज ! ते मुनिराजहंसा धन्याः ये तपश्वणि चूणयित्वा शम-संवेगपक्षौ कृत्वा समुड्रडीय सुगतिं गताः, अहं पुनरधन्योऽस्मि पापपङ्कलिप्तोऽस्मि च, यन्ममाऽऽत्मा महीममतासम्बन्धेन कर्ममलमलीमसोभ वन्नस्ति, ' राज्ञि राष्ट्रकृतं पापम्' इति वचनात् । ततः पक्वबुद्धिर्मन्त्री राजाशयं ज्ञात्वा तन्निषेधार्थं जगाद हे नाथ ! पृथ्वी सम्बन्धेन तव सदाचारस्य पुण्यं घटते, न तु पाथम्, यदुक्तम्
66
एतत् कथम् ?, यतः
जिनदत्तकथानकम्
न य निज्जइ सो दियहो ० ।। ३७७ ।। मरियव्वं चिय० ।। ३७८ ॥ जाणिज्ज चितिज्जइ ॥। ३७९ ।। "
यथैव पापस्य कुकर्मभाजां षष्ठांशभागी नृपतिः कुवृत्तः । तथैव पुण्यस्य सुकर्मभाजां षष्ठांशभागी नृपतिः सुवृत्तः ॥ ३८० ॥
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः । राजानमनुवर्त्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ॥ ३८९ ॥
66
ततो राजा प्राह “ मादृशां सदाचारत्वं क्वाऽस्ति यज्जिनवचनादित्ये समुदितेऽप्यहं मोहनिद्राघूर्णितोऽस्मि, यतः
—
एतन्निद्रालक्षणं यदमृतोपरि विषं पीतम् " ।
!
1. 2. • धर्मिणां जागर्वा, [ वीरः ] जयन्त्याः ॥
'धिद्धी ! अलद्धपुव्वं जिणवयणरसायणं पि घंटेउं । विसयमहाहालाहलहल्लोहलिएहिं उग्गलियं ॥ ३८२॥
ततो मन्ध्याह
जागरो ? विवेकी ० ॥ ३८३ ॥
तथा
-
ܕܪ
" तव विवेकशिरोमणे मोहनिद्राऽपि न घटते, यदुक्तम् -
को
-
2
" धम्मीण जागरिया, आहम्मीणं तु सुतया होई |
वच्छाहिव भइणीए अकहंसु जिणो जयंतीए ॥ ३८४॥
"
लब्धपूर्व जिनवचनरसायनं अपि पिबित्वा विषयमहाहालाहलाऽऽकुलैः उद्गीरितम् ॥ अधर्मिणां तु सुप्तता भवति ' [ इति ] वच्छाधिपभगिन्याः [ प्रश्नोत्तरे ] अकथयद् जिनः
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दीक्षाग्रहणविषये जिनदत्त-तदमात्ययो संवादः
८० ततो राजाऽऽह – मादशां विवेको धर्मश्च क्वास्ति ?, यदहं महारम्भ-परिग्रहजम्बाले ग शूकर इव मग्नोऽस्मि, संसारव्यापारलग्नोऽस्मि, तथा यदि देश-राज्यादिकार्याणि स्वयं कुर्वन्नस्मि परैरपि कारयन्नस्मि तदित्थं कर्मबन्धे मम मोक्षः क्वाऽपि नास्ति ।
अथ मन्त्र्यवोचत् – “हे भूप ! तव चितं तावदतीव शुद्धमस्ति, निमलचित्तस्य तु वाक्कायाभ्यां कर्म कुर्वतोऽपि पद्मिनीपत्रस्येव लेपो न स्यात् , अथ स्तोक एव कर्मबन्धो भवति, यदुक्तम् -
उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मट्टियामया । दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोऽत्थ लग्गई ॥३८५॥ .. एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा ।
विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥३८६॥ तथा -
वावाराणं गुरुओ मणवावारो जिणेहिं पन्नत्तो ।
जो णेइ सत्तमीए, अहवा मुक्खं पि जो णेइ ॥३८७॥ अत्र प्रसन्नचन्द्रराजर्षिदृष्टान्तो यथावसरं वाच्यः । तथा ' मम नगरे सर्वलोको धार्मिकः' इति वदतः श्रेणिकस्याऽग्रेऽभयकुमारेण नवीनकारितश्वेत-कृष्णप्रासादबुद्धया पञ्चशतहलशकटाद्यारम्भं कुर्वतामप्यानन्द-कामदेवादीनामेव पुण्यवत्त्वं स्थापितम् , अतो मनःशुद्धिरेव सर्वत्र विलोक्यते, यतः
मनःशुद्धिमविभ्राणा ये तपस्यन्ति मुक्तये ।
त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते तितीर्षन्ति महार्णवम् ॥३८८॥ किं बहुना ?, 'मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः' । ___अथ राजा ब्रते – “अस्मादृशां कषाय-विषयाक्रान्तानां मनःशुद्धिः क्वाऽस्ति ! साऽपि केवलां क्रियां विना मोक्षफलदा न भवति, यदुक्तम् -
क्रियैव फलदा पुसां, न ज्ञानं फलदं मतम् ।
यथा स्त्री-भक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥३८९।। 1. आर्द्रः शुष्कश्च द्वौ क्षिप्तौ गोलको मृत्तिकामयौ द्वावपि आपतितौ कुड्ये, यः आर्द्रः सोऽत्र लगति ॥ 2. एवं लगन्ति दुर्मेधसः ये नराः कामलालसाः, विरक्तास्तु न लगन्ति, यथा स शुष्कगोलकः ॥ 3. व्यापाराणां गुरुकः मनोव्यापारः जिनः प्रज्ञप्तः; यः नयति सप्तम्याम् , अथवा मोक्षमपि यो नयति ॥
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८८
तथा
जिनदत्तकथानकम्
1
आउज्ज - नट्टकुसला वि नट्टिया तं जणं न तोसेइ । जोगं अजुंजाणी निंद खिसं च पावेइ || ३९०॥
तथा क्षायिकसम्यक्त्वमपि मनः शुद्धेरेव, तेनापि चारित्रं विना मोक्षो न भवति, यदुक्तम् - दसारसीहस्स य सेणियस्स, पेढालपुत्तस्स य सच्चइस्स ।
अणुत्तरा दंसण संपया तया, विणा चरित्रेण अहोगइं गया ॥ ३९२ ॥ इत्यहं जानन्नपि संसारं दुःखभाण्डागारं पश्यन्नपि पुत्र- कलत्रादिपरिहारं कृत्वा संयमाङ्गीकार - मद्यापि भुक्तभोगोऽपि जातजरायोगोऽपि यन्न करोमि तेनाऽऽत्मानं शोचामि " ।
ततो मन्त्र्यूचे -- “ प्रभो ! गार्हस्थ्येऽपि संयमफलं लभ्यते, यदुक्तम् -
" जाणंतो वि य तरिउं काइयजोगं न जुंजइ नईए । सो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो ।। ३९१॥
"
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्त्तते, निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनं ॥ ३९३॥
इत्याहोरात्रिकीं चर्यामप्रमत्तः समाचरन् ।
यथावदुक्तवृत्तस्थो गृहस्थोऽपि विशुध्यति ॥ ३९४ ॥
सामायिकव्रतस्थस्य गृहिणोऽपि स्थिरात्मनः ।
चन्द्रावतंसकस्येव क्षीयते कर्मसञ्चितम् || ३९५ |
पुनरन्तः पुरस्थस्यापि भरतचक्रधरस्य केवलज्ञानं जज्ञे, तथा वंशाग्रे नृत्यन्निलापुत्रः केवली जातः, तथा प्राणिग्रहणं कुर्वतोऽप्टभिः प्रियाभिः सह गुणसागरनाम्नो व्यवहारिसुतस्य चतुरिकामध्ये केवलज्ञानमुदपद्यत, तथा
किंबहुना ?,
-
श्रावको बहुकर्मापि, पूजाद्यः शुभभावतः । दलयित्वाऽखिलं कर्म, शिवमाप्नोति सत्वरम् ॥ ३९६॥
* गिहासमसमो धम्मो को अण्णो एत्थ विज्जइ ? |
दिज्जति जत्थ दाणाई दीणाऽणाहाइपाणिणं ॥ ३९७॥
1. आतोय - नाट्यकुशलाsपि नर्तिका यद् जनं न तोषयति योगं अयुञ्जाना, निंदां खिसां च प्राप्नोति ॥ 2. जनन्नपि तरितुं काययोगं न योजयति नद्यां स उद्यते श्रोतसा, एवं ज्ञानी चरणहीनः ॥ 3. दशारसिंहस्य च श्रेणिकस्य पेढालपुत्रस्य च सत्यकिनः अनुत्तरा दर्शनसम्पदा तदा, विना चरित्रेण अधोगतिं गताः ॥ 4. गृहाश्रमसमः धर्मः कः अन्यः अत्र विद्यते ?, दीयन्ते यत्र दानानि दीनानाथादिप्राणिभ्यः ||
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दीक्षाग्रहणविषये जिनदत्त - तदमात्ययोः संवादः
""
ततो देव ! त्वमपि गृहस्थ एव धर्मध्यानं मोक्षहेतवे कुरु
।
विशिष्टः श्रावकस्तप्तायोगोलकल्प एव यदुक्तम् -
---
ततो राजा प्राह " भो मन्त्रिन् ! एतान् भरतादीन् गृहिकेवलिनः प्रत्येकं पश्य, यदेषां सर्वेषां भावचारित्रेणैव केवलज्ञानमजनि, एषां भवितव्यताऽपि तादृशी बभूव, पुनरीदृशा गृहिकेवलिनो गणिता एव जाताः, तत् तदालम्बनं न ग्राह्यम्, यदुक्तम्जाणिज्ज मिच्छदिट्ठी जे पडणालंबणाई धिप्पंति ।
पुण सम्मट्ठी जेसि मणो चडणपयडीए ॥ ३९८॥
-
" जीवधायरओ धम्मं जं कत्थइ कुणई गिही ।
साधुधम्मगिरिंदस्स राइभित्तो वि नो इमो || ३९९॥
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तथा गर्भयोगिनो जितेन्द्रिया अपि तीर्थकरा यदि संयमं गृहीत्वा तपः कुर्वन्ति ततः परेषां किमुच्यते ? यतः
" तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियव्वयधुवम | अणिमूहियबलविरओ सव्वत्थामेण उज्जमइ ॥४०० ॥ * किं पुण अवसेसेहि दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमियव्वं सपच्चवायम्मि माणुस्से : ॥ ४०१ ॥ "
[ प्रव्रजितुकामस्य जिनभवनस्थितस्य जिनदत्तस्य केवलज्ञानावाप्तिः, जिनदत्तकेवलिनो देशना च ]
इत्युक्त्वा वैराग्यरङ्गितो राजा संयमग्रहणायेोदतिष्ठत् । तेन प्रधानेन बहूक्तियुक्तिवारितोऽपि न तस्थौ, यद् गजः कर्णगृहीतः सिंहः शृङ्खलाबद्धश्च न तिष्ठिति । तथा -
विषयगणः कापुरुषं करोति वशवर्तिनं, न सत्पुरुषम् । बध्नाति मशकमेव हि लूतातन्तुर्न मातङ्गम् ॥४०२॥
ततो राजा श्रीजिनदत्तो दीक्षाग्रहणार्थं गुरुपार्श्वे गन्तुकामश्चचाल । ततः पृष्ठलग्नानां करौ योजयित्वा संयमाद् वारयतां पुत्र- प्रियादिसर्वस्वजनानां पौरजनानां च मोहवचनानवगणय्य
1. जानीयात् [ तान् ] ' मिथ्यादृष्टीन् ' ये पतनालम्बनानि गृह्णन्ति । ते पुनः सम्यग्दृष्टयः येषां मनः आरोहणप्रकृतौ ॥
2. जीवघातरतः धर्मे यं कुत्रचित् करोति गृही, साधुधर्मगिरीन्द्रस्य राजिकामात्रोऽपि न अयम् = गृहिधर्मः ॥ 3. तीर्थकरः चतुर्ज्ञानी सुरमहितः ध्रुवसेधितव्ये अनिगूहितबलवीर्यः सर्वस्थाम्ना उद्यच्छति ॥ 4. किं पुनः अशेषैः दुःखक्षयकारणाय सुविहितैः भवति न उयमितव्यं सप्रत्यपाये मानुष्ये ॥
J-12
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जिनदत्तकथानकम् नगरान्निर्गच्छन् नरपतिनिजं जिनभवनं निरीक्ष्य देववन्दनार्थ परमभक्त्या तत्र जगाम। ततः पृथ्वीशस्य निरञ्जनजिनप्रतिमां वन्दित्वा निभालयतस्तन्मयतया वीतरागत्वं ध्यायतश्च प्रतिक्षण प्रवर्द्धमानविशुद्धतरपरिणामेन क्षपकश्रेणिमारूढस्य ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मचतुष्टये क्षीणे तत्क्षणं केवलज्ञानमुत्पेदे । यतः -
रे! मन एक झबुक्कडउ जइ किमइ थिरु थाइ ।
चंदि लिहावउं लीहडी, जगि ऊभावउं बाहि ॥४०३।। ततो 'जयतु समुत्पन्नज्ञानः श्रीजिनदत्तराजर्षिः' इत्याद्याकाशवाणीमुच्चरन्त्या शासनदेवतया दत्तवेषस्तत्कालसमायातसुर-नरनिकरकृतकेवलमहोत्सवः सुरकृतसहस्रदलकमलमल कुर्वाणः श्रीजिनदत्तकेवली धर्मदेशनां ददाति । यथा -
__ “भो भो भव्याः ! भवकोटिदुप्पापां मनुष्यभवादिसमग्रसामग्री प्राप्य पुण्यमेव कुरुध्वम् , यन्मयाऽपि पूर्वभवकृतैः दानादिभिः सुकृतैः सत्कुल-सल्लक्ष्मी-सुराज्य-सद्भोगादिकं प्राप्तम् । इहापि भवे धर्मकल्पद्रुम एव निर्ममतादिभावनाभूरिनीरसिक्तो मह्यं केवलज्ञानफलं ददौ । ततो यूयमपि पुण्यमेव कुरुत । यतः -
धर्माज्जन्म कुले कलङ्कविकले जातिः सुधर्मात् परा, धर्मादायुरखण्डितं गुरु बलं धर्माच्च नीरोगता । धर्माद् विलमनिन्दितं निरुपमा भोगाः सुकीर्तिः सुधीः, धर्मादेव च देहिनां प्रभवतः स्वर्गाऽपवर्गावपि ॥४०४॥ यावच्चित्तं च, वित्तं च, यावदुत्सहते मनः । तावदात्महितं कुर्याद, धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥४०५॥ यावन्न प्रसते रोगैर्यावन्नाभ्येति ते जरा । यावन्न क्षीयते चायुस्तावत् कल्याणमाचर ।।४०६॥ यात्रिलोकेऽपि दृश्यन्ते सम्पदः सुख-दुःखयोः । जानीहि ताः फलं भद्र ! प्रकटं पुण्य-पापयोः ॥४०७।। किं चिन्तामणि-कल्पद्-कामधुक्प्रमुखैः स्तुतैः ? ।
पुण्यमेव सतां स्तुत्यं यस्यैते किक्करा इव ॥४०८।। 1. रे ! मनसः एक उद्योतः यदि किमपि स्थिरः स्यात् [ तर्हि ] चन्द्रमसि लिखापयामि रेखाम् , जगति [च ] उद्भावयामि वाहू ॥
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जिनदत्तनृपस्य केवलज्ञानावाप्तिर्निज पूर्वभवकथनं च
स्थैर्यं सर्वेषु कार्येषु शंसन्ति नयपण्डिताः । बह्वन्तरायविघ्नस्य धर्मस्य त्वरिताः गतिः ॥ ४०९ ॥
"
ततः सभ्यलोकैः पृष्टम् - भगवन् ! निजं भवस्वरूपं श्रावय । ततः केवलिना प्रोक्तम्[ जिनदत्तकेवलिकथिता निजपूर्वभवकथा ]
जम्बूद्वीपेऽत्र दक्षिणभरतार्द्धे मध्यमखण्डे बहुनगर- प्रामाऽऽकर- पत्तनादिभूषितोऽवन्तिनामा देशः । तत्र चण्डप्रद्योतं गृहीत्वा स्वदेशं गच्छता उदायननृपेण निवेशितं दशपुरं नाम नगरं सर्वद्धिप्रवरं वापी-कूप-तटाकादिशोभितमस्ति । तत् पुरं पुनश्वन्तिनाथो हप्तारिवारनिवारणो विक्रमवर्मनामा राजा प्रतिपालयति । तत्र पुरे शिवधननामा वणिग् वसति । तस्य भार्या यशो - मती समयौवन-रूप- शीलसम्पन्नाऽस्ति । तयोः पूर्वार्जितपुण्यफलमनुभवतोः कालक्रमेण शिवदेवनामा पुत्रो जातः । यावता सोऽप्टवर्षो जातः तावता पिता शिवधनः शिरोवेदनया पञ्चत्वं प्राप्तः । ततो यशोमती पतिविरहाग्निज्वलितहृदया विविधकरुणप्रलापपरायणा तस्य मृतकृत्या नि कृत्वा चिन्तयति, यथा
-
66 1
अव्वो ! किं नाम मए विच्छोहो कस्सई पुरा रहओ ? | पडिआ जेणाऽयंडे दुक्खचडका मह सिरम्मि ॥४१०॥ "वयभंगो किंव कओ ?, 'रंडा होसु 'त्ति का परिसविआ । ॥ ४११ ॥
हा हा ! केरिसपावस्स एरिसं घोरमाहप्पं
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किंवा कयंत ! निग्विण ! अवरद्धं किं पि तुज्झ मे पुव्वं ? | इअ दुस्सहाई जेणं कोवफलाई पयंसेसि ॥ ४१२॥"
एवं सा विलपन्ती पुरपुरन्ध्रीभिः करुणया संस्थापिता तं बालं पालयति ।
अत्रान्तरे स्तोकदिनमध्ये न ज्ञायते विभवः कुत्राऽपि गतः । ततस्तया चिन्तितम् - “ धनिकेन सह धनं गतम्, द्रारिद्र्यं प्रसृतम्, पुण्यैरथों भवति, तानि पुण्यानि भर्त्रा सह गतानि, अथ मम निर्भाग्यायाः को जीवनोपायः परगृहकर्मकरणं विनाऽन्योपायो नास्ति, अहो ! विधिविलसितं मद्गृहे ये योजितहस्ताः कर्म कुर्वन्ति स्म तद्गृहेषु मया कथं कार्य
1. अहो ! किं नाम मया वियोगः कस्यचित् पुरा रचितः ? पतिता येन अकाण्डे दुःखविद्युद् मम शिरसि ॥ 2. व्रतभङ्गः किं वा कृतः ?, ' रण्डा भव' इति काऽपि परिशप्ता, हा हा ! कीदृशपापस्य ईदृशं घोरमाहात्म्यम् ॥
3. किंवा कृतान्त ! निर्घुण ! अपराद्धं किमपि तत्र मया पूर्वम् ?, एवं दुःसहानि येन कोपफलानि प्रदर्शयसि ।
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जिनदत्तकथानकम्
कर्तव्यम् ?, अथवा दैवभग्नदन्ताया मे कोऽभिमानः ?, यादृशं वाद्यते तादृशं नृत्यते, यादृग् वायुवति तादृगाश्रयो गृह्यते, एकदशया कस्याऽपि कालो न याति यतः
कस्य स्यान्न स्खलितं ?, पूर्णाः सर्वे मनोरथाः कस्य ? | कस्येह सुखं नित्यं ? दैवेन न खण्डितः को वा ? ॥ ४१३॥ तथापि नात्र स्थातुं युज्यते, यत् पूर्वावस्था शल्यति, यदुक्तम् -
-
इह भमिआ इह रमिआ, इह कुविया इह पसाइआ इत्थ । दीसंति ते परसा, ते पुरिसा नेव दीसंति || ४१४ ।। ततस्तत्र कुत्रापि नजामि यत्र निजलोकं न पश्यामि " ।
एवं विचार्य सा शिवदेवेन सह दशपुरान्निर्गत्य कियता कालेन उज्जयिनी मागत्य एकं सविवेकं श्रेष्ठिनं समाश्रिता । तेनापि भगिनीप्रतिपत्तिपूर्व दत्ताश्रया सुखेन खण्डन - पेषणादि तद्गृहे करोति शिवदेवोऽपि वत्सपालत्वं विधत्ते । एवमतिक्रान्तः कोऽपि कालः ।
अन्यदा वने वत्सरूपाणि चारयता शिवदेवेन धर्मध्यानस्थित एको महातपस्वी मुनिदृष्टः । लघुकर्मतया सबहुमानं वन्दित्वा तेन पदोविश्रामणा कृता, हर्षनिर्भरेण किञ्चित् कालं तत्समीपे स्थितम् । गृहमागत्य च मातुस्तत् प्रोक्तम् । मात्राऽपि स बहुमेने, भणितं च - 'वत्स ! धन्यो महात्मा यः परलोकार्थे तपस्तप्यते, स पुनर्धन्यातिधन्यो यस्तस्मै अन्नपानादिकं दत्ते, अस्माकं पुनः पुण्यरहितानां न तपो न दानं, नरपशुतया मोघजन्म याति, यतः येषां न विद्या न तपो न दानं न चापि शीलं न गुणो न धर्मः ।
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ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ ४१५ ॥
ततो वत्स ! त्वयाऽपि प्रत्यहं तद्वन्दनेन स्वात्मा कृतार्थनीयः 1
ततः शिवदेवो विशिष्टभक्तिभरनिर्भरो नित्यं वत्सरूपचारणमिषेण तं वन्दते, पर्युपास्ते, एवं च चिन्तयति " यद्यसौ मुनिर्मम गृहे पारणं करोति तदा सुन्दरं स्यात्, अथवा कुतो रङ्कस्य रत्नं सम्पद्यते ?, अथवा मातङ्गस्य कुतोऽर्द्धासनम् ?, अन्यच्च
—
वनकुसुमं कृपणश्रीः कूपच्छाया सुरनधूली च ।
तत्रैव यान्ति नाशं मनोरथा भाग्यहीनानाम् ॥ ४१६ ॥
तथा -
1. इह भ्रमिता, इह रमिता, इह कुपिता, इह प्रसादिता, अत्र दृश्यन्ते ते प्रदेशाः, ते पुरुषाः नैव दृश्यन्ते॥
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जिनदत्तकेवलिदेशनायां निजपूर्वभवकथा पत्ते वि अ पाहुणए किं काही दुग्गओ तुरंतो वि ? ।
अंधो मिलिएहिं वि लोयणेहिं अंधो च्चिय वराओ ।।४१७॥ सर्वथा नास्ति मे भाग्यम्" । एवं चिन्तयतस्तस्य माघी पूर्णिमा समागता । तस्मिन् दिने लोकमध्ये मिथो लाहनानि भ्रमन्ति । भोजनसमये शिवदेवो गृहमागतः तावता ' सुसहजेयम् ' इति यशोमत्या गृहे लाहनानि समेतानि । ततः शिवदेवो भोक्तुं निविष्टः ।
अत्रान्तरे तद्वासनाप्रेरित इव गोचरचर्याक्रमेण कोऽपि ऋषिः शिवदेवभवने समागतः । तं दृष्ट्वा रोमाञ्चितेन तेन चिन्तितम् -
" "मरुत्थलीए जह कप्परुक्खो, मायंगगेहे जह हस्थिराया ।
दरिदगेहे जह हेमवुट्ठी, मुणी महप्पा तह अम्हगेहे ॥४१८।।। 'एआई ताई चिरचितिआई तिन्नि वि कमेण पत्ताई ।
साहूण य आगमणं वित्तं च मणप्पसाओ अ ॥४१९।। सर्वथा पुण्यवानहम् , एतल्लाभार्थ क्षीणा मे धनऋद्धिः” इति भावयता तेन सम्मुखं गत्वा ऋषिर्वन्दितः । ततोऽनेन कूरभाजनं गृहीत्वा तदर्द्ध दत्तम् , 'जननी खेदं मा कार्षीः ' इति शक्कया सर्व न दत्तम् , पुनर्गृहीतं पायसभाजनं तस्यापि तथैवार्द्ध दत्तम् , पुनर्दत्तौ खण्डशर्करागी द्वौ मण्डको । अत्रान्तरे सर्वरससम्पूर्णस्थाली समागता, ततो जनन्या भणितःवत्स ! एतदपि महाभागाय ऋषये देहि । ततो वर्द्धमानशुभाध्यवसायेन ऋषोंकिता स्थाली । ऋषिणाऽपि श्रद्धावृद्धिं दृष्ट्वा कवलमात्रं गृहीतम् , भणितं च - धर्मशील ! सम्पूर्ण जातम् , इदानीमाग्रहं मा कुरु । ततो भक्ति-बहुमानपूर्व हृष्टमुखपङ्कजेन कृतकृत्यमात्मानं मन्यमानेन शिवदेवेन कृतवन्दनानुव्रजनो मुनिनिर्गतः ।
अत्रान्तरे लाहनकहस्ताभिः पञ्चभिः कन्याभिः शिवदेवः प्रशंसितः - "हे गुणवज्जनसज्जनशिरोमणे ! त्वं धन्योऽसि येनेदशे सुपात्रे वितीर्णमिति, अपि च -
1. प्राप्तेऽपि च प्राघूर्णके कि करिष्यति दुर्गतः त्वरन्नपि ?, अन्धः मिलतः अपि लौचनैः अन्धः एव वराकः ॥
2. मरुस्थल्यां यथा कल्पवृक्षः, मातङ्गगृहे यथा हस्तिराजः, दरिद्रगेहे यथा हेमवृष्टिः, मुनिः महात्मा तथा अस्मद्गेहे ॥
3. एतानि तानि चिरसञ्चितानि त्रीणि अपि क्रमेण प्राप्तानि साधूनां च आगमनम् , वित्तं च, मनःप्रसादश्च ॥
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जिनदत्तकथानकम् दिन्नं तस्स गणिज्जइ, अपहुप्पंतो वि धणसमिद्धीए । जो देइ इट्ठमिळं चिरपत्तं सत्तिसंजुतो ॥४२०॥ दाणोवभोगपरिवज्जिएण दव्वेण किं व किवणस्स ? ॥
लद्धेण वि नस्थि गुणो पक्ककविठेण कायस्स ।।४२१॥ तथा -
जे पूअति कयत्था साहुजणं निअविढत्तदव्वेण । ताण सुलद्धो जम्मो, सफला ताणे च धणरिद्धी ॥४२२॥ 'देविंद-चक्कि-केसव-हलधर-मंडलियपमुहरिद्धीओ।
जे विअरंति सुपत्ते तेसिं करपल्लवत्थाओ ॥४२३॥" एवमनुमोद्य पञ्चापि कन्याः स्वस्वगृहं गताः । शिवदेवोऽपि तुष्टचित्तो भोजनमकार्षीत् ।
ततः प्रभृति च शुभजीवितत्वेन जीवित्वा आयुःक्षये मृतः सन् वसन्तपुरे जीवदेवश्रीष्ठगृहे जिनदत्तनामाऽहमुत्पन्नः । पात्रदानफलेनेदृशी राज्यद्धिर्मे जाता, जननीशङ्काविरत्या च स्तोकस्तोकमन्तरे दुःखं जातम् । पूर्वभवे याभिर्दानानुमोदना कृता ताः पञ्चापि मम पत्न्यो रूपसौभाग्यादिभाजनं जाताः ।
इति केवलिपूर्वभवं श्रुत्वा चमत्कृता जना ऊचुः -- " अहो ! दानधर्मफलं पश्यत, यदुक्तम् -
धर्माणां तेन दानेन समं का समशीर्षिका ? । करं देवाधिदेवोऽपि यस्यार्पयति सङ्गमे ॥४२४॥
तथा -
दानेन भरतश्चक्री, दानेन ऋषभो जिनः । दानेन शान्तिनाथस्तु, दानेन चरमो जिनः ॥४२५॥ प्रस्तावे भाषितं वाक्यं, प्रस्तावे दानमङ्गिनाम् ।
प्रस्तावे वृष्टिरल्पाऽपि, भवेत् कोटिफलप्रदा ॥४२६॥ 1. दत्तं तस्य गण्यते, अप्रभवन्नपि धनसमृद्धया यः ददाति इष्टमिष्ट चिरप्राप्तं शक्तिसंयुक्तः । 2. दानोपभोगपरिवर्जितेन द्रव्येण किं वा कृपणस्य ?, लब्धेन अपि नास्ति गुणः पक्वकपित्थेन काकर य 3. ये पूजयन्ति कृतार्थाः साधुजनं निजोपार्जितद्रव्येण तेषां सुलब्धं जन्म, सफला तेषां च धनर्द्विः ।। 4. देवेन्द्र-चक्रि-केशव-हलधर-माण्डलिकप्रमुखर्द्धयः ये वितरन्ति सुपात्राय तेषां करपल्लवस्थाः ॥
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जिनदत्त पत्नीनां दीक्षाग्रहणं ग्रन्थसमाप्तिश्च
[विमलमत्यादीनां पञ्चानां जिनदत्तपत्नीनां जातिस्मरणं दीक्षाग्रहणं जिनदत्तकेवलिमोक्षगमनं च ]
अत्रान्तरे विमलमत्यादीनां पञ्चानामपि जातिस्मरणं जातम्, ततो भवविरक्ताः पतिमार्गानुरक्ता बहुलोकयुक्ता विमलमत्याद्याः पञ्चापि प्रियाः करयोजनपूर्वं प्रव्रज्यां प्रार्थयन्तीः प्रव्राज्य केवली ' किमेतत् ? ' इति साश्चर्ये राजसह सैरनुगम्यमानो महीमण्डले चिरं विहृत्यानेकलोकान् प्रतिबोध्य घनघातिकर्मक्षये मुक्तिपदं प्राप ।
[ जिनदत्त-विमलमतीपुत्रस्य विमलबुद्धिकुमारस्य राज्यपालन निरूपणपूर्वकं ग्रन्थोपसंहारः ]
ततस्तस्य पट्टे सर्वराजप्रधानपुरुषैर्विमलमती कुक्षिभूर्विमलबुद्धिकुमारः प्रतिष्ठितः सन् प्राज्यं राज्यं पालयन् सकल श्रेयः सुखानि भुङ्क्ते ।
तदेवं धर्मतः श्रुत्वा फलं यावन्महोदयम् । उत्तरोत्तर सौख्याय कार्यों धर्मोद्यमो बुधैः ॥ १ ॥
[ ग्रन्थकारप्रशस्ति: ]
एतां श्रीजिनदत्तभूपतिकथां श्रीपूर्णिमापक्षसमुख्यः श्रीगुणसागराख्यसुगुरोः शिष्येण संक्षेपतः । वेदोर्वीधरविश्ववर्ष ( १४७४ ) विहितां पुण्यप्रभावाद्भुतां श्रुवन्तु श्रवणामृतां शिवकृते भव्याः ! भवन्तश्चिरम् ॥ १॥ संयम सिंहगणेशा ग्रहतः श्रीगुणसमुद्रसूरिवरैः । मुग्धानुग्रहबुद्धया कृता कथेयं चिरं जीयात् ॥ २॥
॥ इति जिनदत्तकथा सम्पूर्णा ॥
९५
॥ ग्रन्थाग्रम्
२६३७ अक्षर २६ ॥
॥ शुभं भवतु ॥ [सं० १६६७ वर्षे ॥
1. प्रतिलेखन वर्षमिदम् ॥
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प्रथमं परिशिष्टम्
ग्रन्थगतविशेषनाम्नामनुक्रमः
किम् ? विद्या
विशेषनाम अग्निस्तम्भिनी अञ्जनी अनिबन्धनी अरिमर्दन
पृष्ठांकः २२ २२, २५
२२
राजा निम्रन्थश्च २, ४६. ६२, ६४त: ७२, ७१, ७९, ८३,
८४, ८९, ९०
९१ राज्ञो नगरी
देश:
अवन्ती अशोकश्री उज्जयिनी उदायन औदत्त
राजा श्रेष्ठी
८, १३, १८,
१९,६०
३२
विशेषनाम किम् ? पृष्ठाकः जिनदत्त छोष्ठिपुत्रः, श्रोष्ठी, १,६-१३, १५,
राजा, निर्ग्रन्थश्च १९-२८, ३८, ४०, ४७. ५१, ५८, ६०, ६१, ६३-६६, ६५-७२, ७९, ८०,
८४, ८९, ९०, ९४ जिनदत्तकथा प्रस्तुतग्रंथः (ग्रंथकार- ९५ ।।
प्रशस्तौ) जिनदत्तकथानक जिनश्री
घोष्ठिनी जीवदेव
भोष्ठी निर्ग्रन्थश्च २, ३८,४७,
। ७१, ७९, ८१, ९४ तारणी
विद्या २२, २७ दशपुर
नगरम् ८,१८, ६०, ९१, ९२ धर्मघोषसूरि जैनाचार्यः ७४ नगरपुरक्षोभिणी
२२ पूर्णिमापक्ष निर्ग्रन्थगच्छः (ग्रन्थकार
प्रशस्तो) ९५ प्रतिष्ठानपुर
नगरम्
२८ बहुरूपिणी
२२ भरतखण्ड
भूखण्डः . १ मकरध्वज
राजा मदनमञ्जरी राजपुत्री श्रेछिनी ३४, ३६,
राज्ञी च यशोमती वणिक्यत्नी १, ९३ रत्नपुरी
नगरी २०, ६०
नगरी
कान्तिपुरी गजवशीकरणी गुणसमुद्रसूरि
विद्या
विद्या
गुणसागर
विद्या
गुणाकरसूरि घनवाहन चण्डप्रद्योत चम्पापुरी
जैनाचार्य:-प्रस्तुग्रंथकार: (ग्रंथकारप्रशस्तौ) जैनाचार्यः (ग्रंथकार. प्रशस्तौ ) जैनाचार्यः राजा
९१ नगरी ३, १८, १९, ४,
२५, २८, ५८, ६० द्वीप: विद्या
२२
जम्बूद्वीप जलशोषणी
J-13
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________________
९८
विशेषनाम
वर्धमान
वसन्तपुर
किम् ?
पृष्ठांक
૧
नगरम् १ ४५, ४६, ६०,
८०, ८३, ९३
९१
२०
२०, २४-२६,
२८, ४१, ६०
३, २६
९५
८६
तीर्थकर :
विक्रम
""
विज्जाहर विज्जाहरी राजपुत्री, श्रेष्ठिनी,
राज्ञी च
राजा
श्रेष्ठी
राजपुत्रो राजा च
प्रथमं परिशिष्टम्
विमल
विमबुद्धि
अमात्यः
विमलबोध विमलमती श्रेष्ठिपुत्री, श्रेष्ठिनी,
राज्ञी, निग्रन्थिनी
३, १८, १९,
२४, २७, २८,
१४, ४१, ६६, ८३, १५
*
विशेषनाम्
शत्रु अय
शिवदेव
शिवधन
श्रीमती
सम्मेत
संयमसिंहगणि
सिंहलद्वीप सौभाग्यलता
हापा, हापाक
पृष्ठांकः
८३
वणिकपुत्रः ९९ - ९३, ९५
वणिक्
९१
किम् ?
पर्वत:
राजपुत्री श्रेष्ठिनी,
राज्ञी च
९, ११, १३,
१५, १६, १८,
१९, २७, २८,
४१, ६०, ८३
८४
पर्वत:
निर्ग्रथः (ग्रन्यकार
प्रशस्तौ)
द्वीप:
राजपुत्री राज्ञी च
श्रेष्ठी
९५
९, ६०
६९
२८, २९, ३०,
३१, ३३
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द्वितीयं परिशिष्टम्
जिनदत्त कथानकान्तर्गत संस्कृत-प्राकृत अपभ्रंश - प्राचीन गुर्जर भाषानिबद्धसुभाषितानामनुक्रमः
संस्कृत सुभाषितानि
पृष्ठांक
सुभाषितपद्यादिः
अप्रे गीतं सरसकवयः अघटितघटितानि घटयति
अजीर्णे भोजनत्यागी
अतिरूपेण वै सीता
अनुचितकर्मारम्भः
अवश्यम्भाविभावानां
अशुभस्य कालहरणं
असत्यमात्ययमूलकारण
असन्तोषवतः सौख्यं
असम्भाव्यं न वक्तव्यं
असारे संसारे कथमपि
असुरसुरपतीनां यो न
अस्थिरेण शरीरेण
अस्माभिः किं ज
अस्मिन् जगति महत्यपि
अस्मिन्नसारे संसारे
अहो मोहपिशाचोऽयं आचार: कुलमाख्याति आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां
आढयाः सन्ति भुवस्तले
आयु
आरोग्यं सौभाग्यं
आस्तन्यपानाज्जननी पशूना
भास्तां तावदियं प्रसूतिसमये
आहार निद्राभय मैथुनानि
उदयति यदि भानुः
उद्यमः साहसं धैर्य
उद्यमे नास्ति दारिद्रयं
४१
२०
४
४९
४७
५९
३७
७०
७१
५५
४
६८
૧૦
६४
४५
५.१
૧૧
२१
४५
८२
७३
८
५
४४
३७
२१
१२
૧૨
सुभाषितपद्यादिः
उपाया बहवः प्राज्ञे: एकेनापि सुपुत्रेण
एकोऽपि यः सकलकार्यविधौ
एतत् करोमीति कृतप्रतिज्ञो
ओमिति पण्डिताः कुर्युः
कदर्योपार्जिता लक्ष्मीकनकभूषणसमहणोचितो कन्दे सुन्दरता दले सरलता
कर्तुः स्वयं कारयितुः परेण
कस्य स्यान्न स्खलितं
काका: कृष्णाः शुका नीला कान्तावियोग: स्वजनापमानं काल: सृजति भूतानि
किमिह कपालकमण्डलु -
किं चिन्तामणिकल्पद्रु
किं तेन जातु जातेन
कृशानुसेवा फलकन्दवर्तनं
केनाजितानि नयनानि मृगाङ्गनानां
को विदेशः सविद्यानां
क्रमेण भूमिः सलिलेन भिद्यते
क्रियैव फलदा पुंसां
क्षणेन लभ्यते यामो
गगनं विपुलं तुरङ्गमाः
गन्तव्यं नगरशतं
गर्व नोद्वहते न निन्दति परं
घटवत् परिपूर्णाऽपि
चलति कुलाचलचक्र
चान्दनी चर्चना येन
पृष्ठांक
६६
६०
६०
४९.
२६
३१
३६
६८
७२
९२
५०
२४
३७
४९
९०
५३
४९
६४
१४
५६
८७
३७, ५४
५९ ६०
३
२
६५
८१
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________________
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द्वितीयं परिशिष्टम्
८. ७
८५
चित्रं जगत्त्रयीनाथे जनमालिन्यदारिद्रथा जनापवादं कुलशीललाञ्छनं जिह्वाग्रे वर्तते लक्ष्मीजिह्वादोषेण बध्यन्ते जीवन्तोऽपि विमुक्तास्ते जीवितव्यं यशः पुंसां जैन मंदिरमादरेण कुरुते तो न तप्तं वयमेव तप्ता तावद् भयस्य भेतव्यं तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गः तृणं लघु तृणात् तूलं तृष्यम्बु क्षुधि भोजनं त्यक्त्वा जीर्णमिदं देह त्यक्त्वा सङ्गमपारपर्वतगुहा त्यजेत् स्वामिनमत्युग्रत्वजेदेकं कुलस्यार्थे त्रसरेणुसमोऽध्यत्र त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण दग्धं दग्धं पुनरपि पुन: दधत तावदमी विषया: सुखं दाता बलियर्याचयिता च विष्णुदानं भोगो नाश: दाने तपसि मृत्यौ च दु:खे दुःखाधिक पश्येत् धनेऽपि सतिभोजन धनेषु जीवितव्येषु धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां धन्यैव सा जगति सज्जननी धर्माणां तेन दानेन धर्माद धनं धनत एव धोऽयं धनवल्लभेषु धीरेण कातरेणापि न दशति मन्त्रज्ञमहिनयो नीचतरा दुरापपयसः नपुंसकत्व तिर्यक्त्वं
नमन्ति फलिता वृक्षा न स प्रकार: कोऽप्यस्ति निदाघे दाघातनिद्रा मूलमनर्थानां निन्दन्तु नीतिनिपुणा पञ्चभिर्वर्णकोऽर्हपरपरिवादे मूकः परिग्रहमहत्त्वाद्धि परोपकाराय कृतघ्नमेतपरो रुष्यतु वा मा वा पात्रे त्यागी गुणे रागी पितृभिस्ताडित: पुत्रः पित्रा स्वपुत्रा इव पालनीयाः पुष्पैरपि न योद्धव्य । प्रणिहन्ति क्षणार्द्धन प्रत्यासीदति तस्य निर्वृतिपदं प्रथमे नार्जिता विद्या प्रभूतेनापि कि तेनो-- प्रस्तावे भाषितं वाक्यं बहवो न विरोद्धव्याः भवन्ति भूरिभिर्भाग्यैभस्मनापि तृणेनापि भाराय दिग्भूधरसिन्धुरास्ते मज्जत्वम्भसि यातु मेरमनसि वचसि काये मनःशुद्धिमबिभ्राणा महताप्यर्थलाभेन माता यदि विषं दद्यात् मानमुल्लसति यत् पदे पदे मितं ददाति हि पिता मुहूर्तमपि जीवेत यथैव पापस्य कुकर्मभाजां यदाशाया न विषय यद्भक्तेः फलमर्हदादिपदवीयद्यपि कृतसुकृतभर: यद्यपि रटति सरोषं
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द्वितीय परिशिष्टम्
૮૨
... १०
यन्मनोरथशतैरगोचरं यस्य त्रिवर्गशून्यस्य यः सदू बाह्यमनित्यं च याता यान्ति महीभुजः यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य यावच्चित्तं च वित्तं च यावन्न ग्रस्यते रोगयास्त्रिलोकेऽपि दृश्यन्ते ये तीर्थनाथागमपुस्तकानि ये बाह्ये लोचने ताभ्यां येषां न विद्या न तपो येषां मनांसि करुणारसयैस्त्यका किल शाकिनीयोगे सति सुख स्वल्पं रणे वने शत्रुजलाग्निमध्ये राज्यं यातु श्रियो यान्तु राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः वनकुसुम कृपणश्रीः वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं वरं प्राणपरित्यागो वरं वृक्षोऽपि सिक्तोऽसौ वसेन्मासाधिकं स्थान विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि विज्ञानं किमु नोर्णनाभविद्यया सह मर्तव्यं विलम्बो नैव कर्तव्यः विषयगणः कापुरुषं वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति वैदेशकुटयां पुरुषा द्रुमे छदा व्याघ्रो नैव गजो नैव शरणागता भटानां शर्वरीतीपकश्चन्द्रः
शोचनीयः स एवायं श्रावको बहुकर्मापि श्रियो नाशं यान्तु श्रीशांतिनाथादपरो न दानी श्वभ्रे शूलकुठारयन्त्रदहनश्व:कार्यमद्य कुर्वीत सकृन्जल्पन्ति राजानः सज्जनस्य हृदय नवनीत सतीत्वेन महत्त्वेन सन्तप्तायसि संस्थतस्य पयसो स पुत्रो यः पितुर्मातुसमुद्रा: स्थितिमुज्झन्ति सर्वत्राज्ञा भवति जगति सर्वविनाशाश्रयिणः सह सिद्धमिद महतां संसारमूलमारम्भासामायिकवतस्थस्य सा सा सम्पद्यते बुद्धि: ५९ सिंहः करोति विक्रमसुकुलजन्म विभूतिरनेकधा । सुखस्यानन्तर दुखं सुखी न जानाति परस्य दुःखं सुधामधुविधुज्योत्स्ना सृजति तावदशेषगुणालय स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते स्थैर्य सर्केषु कार्येषु स्वय वरयते कन्या स्वाधीन राज्यमुत्सृज्य हरति कुलकलङ्क हसन्नपि नृपो हन्ति हसा गति पिकयुवा किल
१५
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________________
१०२
पृष्ठांकः
सुभाषितम् अक्खाणऽसणी कम्माण अगुणमवि गुणड्ढ अच्छतु निरंतरगुरुअन्नन्नसुहसमागम अन्नं कुर्युवमेयं अपरिकिखऊण कज्ज अलसंतेहिं विहु सज्जणेहि अवलंबिया तिणा न हु अंधत्तं बभदत्तस्स आठज्जनदृकुसला आरंभस्स निवारणं सुहमणोआसन्ने रणरंगे इक पि नत्थि लोयस्स इक्को कम्माई समज्जिणेइ इय कम्मपासबद्धा उत्तमजणसंसग्गी उवएसमंतरेण वि एकस्स कए नियजीवियस्स एगदिवसं पि जीवो कह आयं ? कह चलिय! कालेण अणंतेणं कि जरिएण बहुणा को चित्तेइ मयूरे को जाणइ पुणरुतं गयसुकुमालस्स सीसम्मि गहिय जेहिं चरित गिहासमसमो धम्मो । छक्खंडवसुहसामी जइ हुज्ज मज्झ जम्मो , जह जह बंधइ नेहो जं जस्स पुनलिहियं जज दुलहं जज ज जेण कय कज्ज जाणतो वि य तरि
द्वितीय परिशिष्टम् प्राकृतभाषासुभाषितानि पृष्ठांकः
सुभाषितम् ११
जाणिज्ज मिच्छदिली जीय कस्स न इ8 जीवधायरओ धम्म जे कोडिसिल वामिक जे पूअंति कयत्था जो न कुणइ तुह आण जो न हु दुक्ख पत्तो तवनियमसुटियाणं ताव च्चिय होइ मुहं तित्थयरो चउनाणी तुल्ले वि उयरभरणे दाणोवभोगपरिवज्जिएण दिन्नं तस्स गणिज्जइ. दीसह विविहऽच्छरिय दु च्चिय हुति गईओ दुपय' चउषय वा देविदचक्किकेसवधणसयणबलुम्मत्तो धम्मीणं जागरिया धित्तेसिं गामनगराण धिद्धी अलद्धपुवं नयहि को न दीसइ निसाविरामे परिभावयामि निबफल किवणधण पत्ता य कामभोगा पत्ते वि य पाहुणए बहुसत्तिजुओ सुरकोडिबालस्य मायमरण भक्खणे देवदव्वस्स भुत्ता दिवा भोगा भुत्तण चक्किरिद्वि मा वहउ कोइ चिंत मा होह सुयग्गाही मियापुत्ताइजीवाण
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________________
द्वितीयं परिशिष्टम्
७
मुत्ताहल न गिण्हइ रज्जुग्गहविसभक्खणराईसरिसवमित्ताणि रागंधो मोहंधो रूव पतिट्ठा माण रे विहि ! मा मा सज्जसि रोगजरामच्चुमुहालोभो सव्वविणासी वावाराण गुरुओ विज्जा अणुसरियव्वा विज्जा वि होइ बलिया विरला जाणंति गुणे
विहल जो अवलंबई विहिणो वसेण कज्ज सर्णकुमारपामुक्खा सयलतियलोयपहुणो सव्वो पुवकयाण सहस च्चिय सम्ममचितिळग संझब्भरागसुरचावसीलभट्ठाण पुण सुयणा न दिति हियय सुवन्नरूप्पस्स य पब्वया भवे मुसीसा खंदा स्सावि सो को वि नरिथ सुयणो
अपभ्रंश-प्राचीनगूर्जरभाषासुभाषितानि
१५
अन्न चितवीइ अन्न हु३ अप्पु धूलिहिं मेलिय अंबर पवणि न पूरीइ आयह लोयह लोयणई आसातरुयर मरिउ वाज परीछी जे करइ कां किजइ कृपणह तणइ कां किजइ लहुडइ वडइ चिंता डाइणि जिहां वसइ जउ पूगी पंचास जाउ लच्छि धणकणसहिय जोउ जगविख्यात थी पीहर नरु सासरा थीयहं तिन्नि पियारडां दहइ गोसीस सिरिखं: छरछए देव आगलि न राय न राणउ धणु संचइ केई कृपण धन राउलि जीविय जमह धम्म न संचिय तव न तवीय
धम्मि न वेचइ रूयडउ धर्ममरेसर भेटीइ पुण्यहीण घण दोण पूनिम विण ससि खंडिउ थाइ बग ऊडाड्या बापडा भूमीतलि भमंतेहिं माणु पट्टई जई न तणु मायावतह माणुसह मिसि विण माथामांहि राम कि मत्थई जड वहइ रे मन एक झबुक्कडउ वरि ते पंखीया भला विहि विहडावई विहि घडइ सव्वह दुक्खह उल्लीचणु' सासू दिइ जमाइहं साहण सउण न चंदबल हंसा जिहिं गय तिहिं गय हीया झूरि भ झूरि हीया मणोरह मा कर
૧૭
.. ४४
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________________
शुद्धपाठः
अशुद्ध एक ० कोटीमों ० पराहूने
शुद्धिपत्रकम् पत्रपङ्क्तौ अशुद्धं ३-२२ द्यत ३-२५ ५-२५ ६-१०
शुद्धपाठः 'एक • कोटी • • पराहणे माणो
धम्मो ०कत्र म °ऽयो.
गृत .
पत्रपङ्क्तो
५८-३ ५८-१ ६०-१ ६६-१८ ६७-१
माणं
धम्म ० कत्रम ०ऽग्र छटति दशपु पत्यो ०वाचा.
छुटति
दशपुरं पतो वाचाभ पुरुष
८-२१ १०-१९ १७-४ १८-१४ १८-१७ २१-२० २३-३ २५-१८ २६-११ २७-११
मोक्षः
झर० ० द्यक्त्वा
शुक्त्वा
० नेव • मती:
०
•नेन ० मती
दृष्ट्वा
गृहीणि .
३०-२
त्तिष्ट कल्ति श्रोष्ठि हापाक
गृहिणी. • तिष्ठ कल्पितं श्रोष्ठी हापाक: द्वा:स्थ भ्रान्ताः विद्मः
गोष्ठि. • भूषण
द्वा: स्थ.
असं
भ्रान्ता वि:• श्रष्ठि ० मूषण क म. ०ऽग्र सृजात नार्जित स्त्रीष
भतां • पाश्व
कर्तुम
ओदत्त
औदत्त
६०-३ . दीपका
दीपको
६०-२६ श्रीक्यपि
त्रीण्यपि ६१-२६मो .
भोष्ठि
६२-२४ कि
६४-२५
७४-२२ माक्षः
६४-२६ सम्यक
सम्यक
दृष्ट्वो यथा-'म. 'यथा म
७२-५ भाय •भायं
७४-७ राणा 'राहुणा
७५-१३ °क्करय ० कक्करय
७५-१४ अशरम्
अशरणम् ७५-१८ बलच०
बल-च०
७५-२२ अंस चक्रिय
चक्रय निकः •नि कः
७६-२८ वर्जि ० वर्जि
७७-२७ श्रद्धा क° श्रद्धाक
७८-१८ • गं राया ०गं पत्था राया ७८-२३ ०जिनदेव श्रे. जीवदेवों ७९ शीर्षक जिव जीव
७९-१० अहं
७९-१७ °रि युता • रियुता
७९-२० ° राणुका • रानुका
८०-६ धन्याः धन्याः
८२-२६ • श्रष्टि • श्रेष्ठ
८४-२१ • प्रमा • प्रेमा
८५-२० ० सोम व ° सो भव
८६-७ ० हल्लो
८६-१८ धिग धि धिग् धिग
८६-२५ • त्ययो • त्ययोः
८७ शीर्षके निमल
८७-४ पूजाद्यः पूजाद्यैः
८८-२१ तिष्ठिति तिष्ठति
८९-१७ ग्रस्यते
९०-२० ० नीनां .त्नीनां
९५ शीर्षके
.ऽग्रे सृजति नार्जिता स्त्रीषु
भृतां • पावे
३०-२३ ३१-१८ ३१-२० ३१-२१ ३२-१ ३२-२६ ३२-११ ३२-१३ ३४-२४ ३५-२ ३७-७ ३९-१९ ४०-२ १०-९ १०-१९ ४०-२४ ४५-१४ ४६-२८ ४७-१४ ४७-१९ ४८-२१ ४९-११ ५०-५ ५१-१५ ५२-४ ५५-११
अह
षट .
•ष्टक
•ष्ट्रक अङगे
राजानं
ब्रते राजान श्रय ० पति मत्त्व
श्रय पती.
निर्मल .
मत्त्वैवं
° मुल
धृत
घृत ०
असते
•ङ्गलि.
० गति
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