Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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है कि अध्यवसायों की स्थिरता या एकाग्रता को 'ध्यान' तथा मन की वृत्तियों की चंचलता को 'चित्त' कहते हैं। आगे, चित्त के प्रकारों को तीन भागों में विभाजित किया गया है1. भावना 2. अनुप्रेक्षा तथा 3. चिन्ता।'
__सामान्यतया, इन तीनों अवस्थाओं में चित्त चंचल रहता है, किन्तु ध्यान में तो चित्त पूर्णतया एकाग्र रहता है। प्रस्तुत कृति के तृतीय एवं चतुर्थ श्लोक में छद्मस्थ तथा जिनेश्वरों के ध्यान-विशेष की चर्चा करते हुए कहा है कि साधारण मानव के लिए ध्यान की एकाग्रता का अधिकतम काल मात्र एक अन्तमुहूर्त (48 मिनिट के अन्दर) है, जबकि तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी जिन जब तेरहवें गुणस्थान में त्रिविध प्रवृत्तियों, अर्थात् योगों का निरोध करते हैं, तब शुक्लध्यान के तीसरे भेद में वर्तते हैं। चौदहवें गुणस्थान में चौथे शुक्लध्यान का भेद प्रारम्भ होता है। वह ध्यान-काल अतिसंक्षिप्त, अर्थात् पांच हृस्वाक्षरों या व्यंजनों के उच्चारण-काल के समान होता है।
जैन-आगमों में चार ध्यानों का वर्णन यत्र-तत्र उपलब्ध है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में उनका बहुत ही मार्मिक, सरल तथा सविस्तार सम्पूर्ण और सर्वांग उल्लेख किया गया है। सामान्य तौर पर ध्यान के चार प्रकार हैं1. आर्तध्यान 2. रौद्रध्यान 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान।
ग्रन्थकार के अनुसार, प्रथम दो ध्यान भव-भ्रमण के तथा शेष दो ध्यान मुक्ति के कारण हैं। जैन-आगमों में आर्त्तध्यान को तिर्यंचगति, रौद्रध्यान को नरकगति, धर्मध्यान को मनुष्यगति अथवा देवगति और शुक्लध्यान को पंचमगतिस्वरूप मुक्ति का कारण कहा गया है।" यही बात प्रस्तुत ग्रन्थ की पंचम गाथा में भी प्रतिपादित है। आगे, आर्त्तध्यान के चार प्रकारों का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि अप्रिय (अनभीष्ट) का संयोग नहीं होना, अथवा भयंकर रोगादि की पीड़ा के वियोग की चिन्ता करना या प्रिय (अभीष्ट) के वियोग की चिन्ता करना तथा निदान करना, अर्थात् आगामी काल के लिए भोगों की प्राप्ति की इच्छा या अभ्यर्थना करना आर्तध्यान है। ग्रन्थकार ने इन चारों
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्ता।। - ध्यानशतक, गाथा- 02. " अन्तोमुहुत्तमेत्तं ........................झाणसंताणो।। - ध्यानशतक, गाथा- 3-4
अटें रुदं धम्म सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई। निव्वाणसाहणाई भव-कारणमट्ठ रुद्धाइं।। - ध्यानशतक, गाथा - 05 अमणुण्णाणं सद्दाइं ..................मण्णाणाणुगयमच्यंत।। - ध्यानशतक, गाथा - 6-9
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