Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/9
साथ जैनों के द्वारा स्वीकार कर लिए गए हैं, ऐसा अवगत होता है। इस प्रकार वर्तमान की स्थिति को देखते हुए प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में तप, ध्यान
और समाधि की साधना गौण होकर पूजा-बलि-हवन आदि कई विधि-विधान प्रमुख हो गये हैं।
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार इन दोनों परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ है कि जहाँ हिन्दू परम्परा में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में भी राम
और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में स्वीकार किया गया। यद्यपि परम्परागत मान्यताएँ तो इससे भिन्न मत रखती हैं। डॉ. जैन के उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि वैदिकधर्म और श्रमण धर्म ये दोनों परम्पराएँ प्रारम्भ काल में भिन्न-भिन्न होते हुए भी मध्यकाल तक आते-आते दोनों एक दूसरे से अत्यधिक प्रभावित हो गई थी, चूंकि उत्तरकालीन के पूजादि के कछ विधानों की अपेक्षा दोनों धाराएँ एक दूसरे से अति निकट प्रतीत होती है। यहां समीक्षात्मक दृष्टि से यह कह देना भी न्यायोचित होगा कि चाहे जैनों के पूजादि विधि-विधान वैदिक (हिन्दू) परम्परा से प्रभावित होकर विकसित हुए हों और इन विधि-विधानों ने एक नया रूप धारण किया हो। किन्तु इनके अतिरिक्त जो आचार सम्बन्धी विधि-विधान हैं जैसे, व्रतारोपणविधि, पौषधविधि, भिक्षाविधि, दीक्षाविधि, आदि आज भी मूल आगमिक स्रोतों के समरूप हैं। इन विधि-विधानों के सम्बन्ध में ये बिन्दू मुख्य रूप से विचारणीय हैं कि किन विधि-विधानों में कब-कैसे परिवर्तन हुए? इनसे सम्बन्धित कौन-कौन से ग्रन्थ लिखे गये? आज मूल रूप में कौन-कौन से विधि-विधान प्रचलित है और किनमें कितना परिवर्तन आया है? इत्यादि जैन आगमों में विधि-विधान स्वरूप
पूजाविधान, अनुष्ठान और अध्यात्ममूलक साधनाएँ प्रत्येक उपासना पद्धति के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्डपरक अनुष्ठान उसका शरीर है, तो अध्यात्म साधना उसका प्राण है। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। यह हम पूर्व में ही कह चुके हैं कि जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म कर्मकाण्डात्मक अधिक रहा है वहाँ प्राचीन श्रमण परम्पराएँ आध्यात्मिक साधनात्मक अधिक रही है। जैन परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह भी अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ कर्मकाण्ड का विरोध ही परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन
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