Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1911 Book 07
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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જૈન કોન્ફરન્સ હેરલ્ડ,
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विद्या धन कैसा रत्न है । न चोर ले सक्ता न राजा न भाई हिसा करा सक्ता न वजन हैं खर्च करने में द्वितीया के चन्द्रके माफीक बढता है तो देखो ईसीके अभावसें ईसीके प्रेमीयोने सर्वत्र याने राजकार्य व हुनर उद्योगमे हमला कर काबू पाए। इसी कारन कला कौशल्यसें असमर्थ हूए । ईल्म न होनेसें कै अनर्थ है।। य वात सर्वकों अछी तरह मालुम है सो ज्यादे अर्ज करना व्यर्थ है ।। प्रियवरों परोपकारी पुर्षोने अपना बहू मूल्य टाइम खर्चकर उपदेश द्वारा ग्राम २ पाठशाला विद्याशाला स्थापीत की और जीन २ महाशयोने ईस कार्य में उदार चित्त होकर साहेता की उनकों धन्य है । प्यारे मीत्रो ये उन्नतीका सखिर सेजन पुषोंने ही चढाया और इस कार्यकों सर्व देश वासी अपना हीत समझकर करें तांके भविष्यका उद्धार हो यही विन्ती है.
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॥ द्वितीय सम्प॥
मान्यवरों कुसम्पसें नुकशान पोंच रहे है। वो सर्वको भली भाँती ज्ञात है। द्रष्टांत -- काचकी चुडि आठ आनेमें खरीदकी ओर टुट गई । तो लाल मिरचको. फोतराभी नहीं आता || तातपर्य य है ।। फुट याने कुसम्पका नतीजा एसा है ॥ सम्प एक एसी न्यामत चीज है के जसिके प्रभावसे नाना प्रकारकें सुःख और कै तरहकी लक्ष्मी प्राप्त होती है. द्रष्टांत-सूत के सो डेडसों डोरे सामील बटने - सें देखो जहाज कितना भारी और ताकत भर है । तो बान्धनेसें नही हट सक्ता।। तापर्यय है । ना जान एकेसें होनेके कारण कैसा कार्य करते है तो जान दार एकेसे हो तो कैसा कार्य हो || प्रत्यक्ष देखो || अंग्रेज, पारसी पंडत का स्थ वोरो में सम्प होनेसें कैसी इनकी उन्नती है देखो कविका वाका ||
दोहा
सम्प करे किमत बढे । घटे करे मन रीश । थाय अंक मुख फेरके । त्रेशटना छत्रीश ||
तन रोगी सिर शत्रुता । ज्वर आवे ने जाय । पण ज्यो सम्प कुटुम्बमां । सितल रहे सदाय ||
[ सेप्रिस
- सज्जनोंकों ईसाराही काफी.