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षड्दर्शनशास्त्रवेत्ता श्री हरिभद्रसरि
लेखकः-पं. ईश्वरलालजी जैन, स्नातक, न्यायतीर्थ, विद्याभूषण, विशारद, श्री आत्मानन्द जैन
गुरुकुल, पंजाब, गुजरांवाला.
प्रारंभिक वक्तव्य व परिचय
वीरनिर्वाण संवत् १००० से १७०० तकमें अर्थात् विक्रम सं. ५३० से १२३० तकके मध्य कालमें श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण जैसे आगमोद्धारक जिन्होंने आगमशास्त्रोंको पुस्तकारूढ कराया, श्री हरिभद्रसूरि जैसे षड्दर्शनशास्त्रवेत्ता जिन्होंने दर्शनादि विषयक १४४४ ग्रन्थोंका निर्माण कर जैनसाहित्यकी समृद्धि की, श्री बप्पभट्टिसूरि जैसे नृपप्रतिबोधक जिन्होंने आम आदि राजाओंको उपदेश देकर धर्मकी ओर प्रवृत्त किया, श्री अभयदेवसूरि जैसे नवांगीटीकाकार जिन्होंने आगमग्रन्थों पर सर्वोपयोगी टोकायें निर्माग की, श्रीवादिदेवसूरि जैसे वादिमतंगज जिन्होंने वादमें धुरन्धर विद्वानोंको भी परास्त किया, श्री हेम चन्द्राचार्य जैसे कलिकालसर्वज्ञ जिन्होंने अभूतपूर्व विशाल साहित्य निर्माण करनेके साथ साथ जैनधर्मप्रभावनाके अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये, आदि कई ऐसे आचार्य हो चुके हैं। ___ पूर्वकालके जैनाचार्य कितने अवसरज्ञ तथा अनेकों कष्ट सहन करके भी धर्मप्रचारके लिये कितने उत्साहो थे, इसके अनेक दृष्टान्त जैन इतिहाससे उपलब्ध हो सकते हैं। प्रस्तुत लेखमें सभी महापुरुषोंकी गुणगाथायें वर्णन कर सकना अशक्य होनेके कारण यहां पर केवल षड्दर्शनशास्त्रवेत्ता श्री हरिभद्रसूरिजीके सम्बन्धमें ही प्रकाश डालना अभीष्ट है।
समय समय पर जैनाचार्योंने आहत धर्मकी उन्नतिके लिये दुष्करसे दुष्कर कार्य करके शासनप्रभावना की है। उन आचार्यों में साहित्यधुरन्धर श्री हरिभद्रसूरिजीका भी प्रमुख स्थान है । पुरातत्त्वज्ञ श्री जिनविजयजीके शब्दोंमें “ श्री हरिभद्रसूरिका प्रादुर्भाव जैन इतिहासमें बड़े महत्त्वका स्थान रखता है। जैनधर्मके जिसमें मुख्यकर श्वेताम्बर सम्प्रदायके उत्तर कालीन स्वरूपके संगठनकार्यमें उनके जीवनने बहुत बड़ा भाग लिया है। उत्तर कालोन जैनसाहित्यके इतिहासमें वे प्रथम लेखक माने जानेके योग्य हैं, और जैनसमाजके इतिहासमें नवीन संगठनके
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