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દીપિન્સવી અંક] શ્રી હરિભસૂરિ
[3] ५८५, ईस्वीसन् ५२९में हुआ कहा जाता है। परन्तु वर्तमान इतिहासज्ञ विद्वानोंका मन्तव्य है कि श्री हरिभद्रसूरिजीका समय पांचवी-छठी शताब्दि मानना भ्रान्तिपूर्ण है। पुरातत्त्वज्ञ विद्वान श्री जिनविजयजीने ‘हरिभद्रका समयनिर्णय' नामक गवेषणापूर्ण लेख लिखकर प्रबलयुक्तियोंसे उनका समय वि. सं. ७५७ से ८२७ तकका निश्चित किया है। सुप्रसिद्ध विद्वान् डा. हर्मन याकोबीने भी इसीको मान्य ठहराया है।
डा. त्रिभुवनदास लहेरचन्द शाह अपने प्राचीन भारतवर्षमें पट्टावलीके संवतके सम्बन्धमें लिखते हैं, कि वास्तवमें यह संवत गुप्तसंवत है, क्योंकि उस समय आचार्यश्री जिस राज्य (वल्लभीराज्य )में रहते थे, वहांपर उस समय गुप्तसंवत लिखनेकी प्रथा थी। यदि यह संवत गुप्तसंवत मानलिया जाये तो उस ३६५ वर्षको और सम्मिलित कर विक्रम सं.९६० आता है। परन्तु इसका समर्थन अभीतक किसी इतिहासज्ञ विद्वानने नहीं किया ।
उक्त विचारोंसे यदि हम ठीक संवतका निर्णन न भी कर सकें तो भी उनका समय आठवों शताब्दिके लगभग मानना अधिक उपयुक्त है।
उनका स्वर्गसमय कुछ भी हो, परन्तु उनका साहित्य आज भी अमर है, और उसीके कारण श्री हरिभद्रसूरि भी सदा अमर रहेगें। ऐसे धुरन्धर आचार्योकी सेवाओं के कारण जैनधर्मकी जड़ें गहरी जमी हुई हैं, और जैनधर्मका सिर सदा ऊंचा रहा है। इतिहासज्ञ विद्वान ऐसे आचार्योंके विषयमें अधिक खोजकर प्रकाश डालेंगे तो हमें और भी गौरवपूर्ण बातें जाननेका अवसर प्राप्त होगा।
१३ विचारसारप्रकरणकी गाथाके 'पणत्ति' शब्दसे ५३५ वि. सं. लिखा मिलता है, परन्तु विद्वानोंका मत है कि वह शब्द अशुद्ध हैं, उसके स्थानपर 'पणसीए ' शब्द होना चाहिये। तदनुसार ५८५ वि. सं. हो जायेगा।
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