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[२०४] શ્રી જેને સત્ય પ્રકાશ
[१५ सात - "विहार करते हुए प्रद्योतनसूरि नमुल () में आए । वहां श्रीजिनदत्त और धारिणी के पुत्र मानदेवको वैरान्य उत्पन्न हो गया और उसने दीक्षा लेली। उसने शास्त्रों का खूब अध्ययन किया । समय पाकर वे चन्द्रगच्छके आचार्य बने । जया और विजया नामकी दो देवियां-मानदेवकी सेविकाएं बन गई । (१७-२६)
___ " अब ऐसा हुआ कि तक्षशिलामें जहां ५०० मन्दिर थे भयानक बीमारी फैल गई। लोग धड़ाधड़ मरने लगे । नगरमें घोर चीत्कार मच गया । कोई किसीका न रहा, सबको अपनी अपनी पडी थी । गीध और कौवोंके लिए सुभिक्ष हो गया। घरोंमें दुर्गन्ध फैल गई। मन्दिरों में पूजा बन्द हो गई। यह महामारी किसी प्रकार भी शांत न होती थी। यह देख शासनदेवीने प्रकट होकर कहा : ' म्लेच्छोंके घोर अत्याचारसे तंग आकर सब देवीदेवता यहांसे चले गए हैं । आजसे तीसरे वर्ष तुरुष्कों द्वारा तक्षशिलाका विध्वंस हो जाएगा । इसका उपाय यही है कि तुम सब लोग इस नगरको छोडकर दूसरे दूसरे स्थानों को चले जाओ। (२७-४१) दूसरा उपाय पूछने पर देवीने कहा-" नडलमें गुरु मानदेव टहरे हुए हैं-उनके चरणोंका प्रक्षालनजल लाकर अपने अपने घरोंको छिडको । इससे बीमारी दूर हो जावेगी।" यह कहकर देवी अन्तर्धान हो गई । (४२-४४)
"तक्षशिला निवासियोंने श्रावक वीरदत्तको आचार्य मानदेवसूरिके पास भेजा। उसने वहां पहुंचकर आचार्यदेवको ध्यानस्थ देखा । पहले तो उसके मनमें उनके प्रति बहुत श्रद्धा हुई, परन्तु फिर वह सोचने लगा कि इन्होंने मुझे देखकर कपटध्यान धारण कर लिया है। इस पर श्रीमानदेवसूरिकी सेविका जया तथा विजयाने उसे अदृष्ट बन्धनोंसे बांध दिया ।
"अन्तमें गुरुदेवने उसे शिक्षा देकर छुडवा दिया । तदनन्तर उसने तक्षशिलावासियोंका दुःख्वृतान्त सुनाया। मानदेवसूरिने वहां जानेसे तो इन्कार कर दिया, परन्तु उसे एक शान्ति-स्तवन प्रदान किया और कहाः-'इसी स्तवनको पहले कमठने पढ़ा था । इसके कारण ही तक्षशिलाकी महामारी प्रशान्त होगी। तक्षशिला लौटकर वीरदत्तने यह स्तवन संघको दे दिया । इसके पढ़नेसे कुछ दिनोंमें वहांका उपद्रव शान्त हो गया । ( ४५-७५) __"इसके ३ वर्ष पीछे उस विशाल नगरी तक्षशिलाकी तुरुष्कोंने ईटसे ईंट बजा दी।
"बड़े बूढोंसे सुना जाता है कि वहां पीतल तथा पाषाणकी जो प्रतिमाएं थीं वे अभी तक भूमिगृहोमें विद्यमान हैं । (७६-७७ )"
मानेदम्ररि-जैन-पट्टावलियों तथा अन्य ग्रन्थों में मानवदेव नामक कई आचर्योंका वर्णन आता है, जैसे
___८ यही वर्णन संक्षिप्त रूपसे देवविमलगणिके हीरसौभाग्य( बम्बई )में पृ० १६३-६४ पर आता है।
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