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દીપેાત્સવી અક]
શ્રી હરિભદ્રસૂરિ
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एक प्रधान व्यवस्थापक कहलाने योग्य हैं, इस प्रकार वे जैनधर्मके पूर्वकालीन और उत्तरकालीन इतिहास के मध्यवर्ती व सीमास्तम्भ समान हैं ।
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यद्यपि हरिभद्रसूरि नामक आचार्य जैनसमाजके अन्दर भिन्न भिन्न समय में लगभग सात हो चुके हैं, परन्तु यहां पर सर्व प्रथम हरिभद्रसूरि जो कि १४४४ ग्रन्थोंके प्रणेता एवं याकिनीमहत्तरासूनुके नामसे सुप्रसिद्ध हैं उनके विषयमें ही उल्लेख किया जायगा ।
श्री हरिभद्रसूरिजी के जीवन पर प्रकाश डालने के साधन 'प्रभावकचरित, चतुर्विंशतिप्रबन्ध आदि ऐतिहासिक ग्रन्थ विद्यमान हैं । परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि उनसे श्री हरिभद्रसूरिजी के सम्बन्ध में सभी बातों पर प्रकाश पड़ता है । क्योंकि उनके माता - पिता का परिचय, बाल्यकालकी घटनायें, दीक्षा के बादकी मुख्य प्रवृत्तियां, उनके विहारस्थान, शिष्यसमुदाय, स्वर्गवासस्थान आदि बहुतसी बातें ऐसी हैं, जिनके सम्बन्धमें हमारी जानने की इच्छा बनी ही रहती है, अस्तु, जो भी जीवन-परिचय उपलब्ध है वह भी हमारे लिये बोधप्रद तथा जानने योग्य है ।
जन्म, बाल्यकाल,
विद्याभ्यास
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आचार्य श्री हरिभद्रसूरिका जन्म चित्रकूट (चित्तौड़ ) में ब्राह्मण जातिके अन्दर हारिद्रायण गोत्र में हुआ था । वे बाल्यकालमें प्रचुर विद्याभ्यास करके व्याकरण आदि शास्त्रोंमें पारंगत हो गये, उन्होंने अपने कुलकी परम्परा और धर्म के अनुसार वेदवेदांग आदिका भी अच्छा अभ्यास कर लिया । गृहस्थ - अवस्थामें भी आपका नाम हरिभद्र था और आप चित्तौड़ के राजा जितारिके पुरोहित - ब्राह्मण थे ।
एक प्रतिज्ञा
उन्हें अपनी विद्या - बुद्धि पर बहुत गौरव और दृढ विश्वास था, वह समझते थे कि कोई
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शास्त्र ग्रन्थ, श्लोक या वाक्य ऐसा नहीं, जिसका मैं अर्थ न समझ सकुं । इस अभिमानमें उन्होंने प्रतिज्ञा करली, कि यदि मैं किसीके श्लोक, पद्य, या वाक्यका अर्थ न समझ सका तो उसीका ही मैं शिष्य हो जाऊंगा । ५
१ जैनसाहित्य संशोधक खं. १ अङ्क १.
२ कहीं कहीं मगधदेशके कुमारिया गांव में जन्म होनेका उल्लेख है ।
३ श्री मुनिचन्द्रजीके लेखानुसार हरिभद्रजी आठ व्याकरणों के अभ्यासी थे ।
४ प्रभावकचरितमें यह भी उल्लेख है कि उन्होंने अपनी इस प्रतिज्ञाको सोनेके पतरे पर कोतरवा कर पेट पर बान्ध रखा था ।
५ प्रतिज्ञाके अनन्तर वे तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े और भृगुक्षेत्र में पहुंचे, वहां पर उक्त घटना हुई, ऐसा भी उल्लेख मिलता है ।
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