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घरुवंश के क्षत्री आज भी थराद के आस-पास के ग्रामों में बसे हुए हैं और जैनधर्मी हैं। बाव के नरेशों का जब राज्यतिलक होता है तब वीरवाड़ीवंश का पुरुष अपने अंगूठे को चीर कर रक्त निकालता है और मोहनदास के वंश का पुरुष उस रक्त से सिंहासनासीन होनेवाले नरेश के ललाट पर तिलक करता है। जैनघर भी इन दोनों के वंशजों के पुरुषों को पुत्र लग्न के समय एक एक टक्का प्रदान करते हैं । यह पद्धति उनके पूर्व सम्बन्ध एवं मौरव को प्रकट करती है। धरुवंशियों के दीर्घकालीन शासन में थराद की अच्छी उन्नति हुई। जैन आबादी बढ़ते बढ़ते दो हजार सातसौ घरों तक बढ़ गई । राजा थिरपाल धरु स्वयं जैन था । थराद में जैनियों का सदा अतिशय प्रभाव रहा ।
अन्य कुलों एवं यवनों का राज्य
क्षत्रियों के शासनकाल के पश्चात् थराद में परमारों का राज्य रहा। अन्तिम परमार राजा निस्सन्तान था । यह धर्म से जैन था। उसने नाडोल के राज को, जो उसका भाणेज था थराद का राज्य देकर स्वयं भागवती दीक्षा ग्रहण करली । थराद के ऊपर नाडोल के चोहानों का राज्य
"Aho Shrut Gyanam"