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गौरवशाली एवं प्रसिद्ध श्रीमन्त हुआ है, वह अपार वैभवशाली था । जैसा वैभवपति था, वैसा ही वह धर्मानुरागी एवं उदार श्रीमन्त था। उसने अपनी आयु में तीनसौ साठ साधारण स्थितिवाले स्वधर्मी ज्ञाति भाईयों को श्रीमन्त बनाया । तीर्थयात्रा में उसने बारह कोड स्वर्ण-महोर व्यय की। उसकी तीर्थयात्रा में ७०० जिनमन्दिर थे। उसने तीन क्रोड़ टंक व्यय करके सर्व आगमसूत्रों की एक एक प्रति सुवर्णाक्षरों में और द्वितीय प्रति स्याही से लिखवाई तथा उसने सातो धर्मक्षेत्रों में सात क्रोड़ द्रव्य व्यय किया। थिरापद्रगच्छ की उत्पत्ति थरादनगर में हुई। थिरापद्रगच्छीय वादिवेताल भीशान्तिमूरि विक्रमसं० ११८५ में विद्यमान थे। इस गच्छ का जन्म थराद की उमति का परिणाम है।
थराद के उन्नति काल में वहाँ पर एक अति विशाल जैनमन्दिर बना था, जिसके १४४४ स्तम्म थे। दुःख है कि आज वह नामशेष रह गया है। उस जगह आज केवल मृत्तिकामय जमीन है। यह मुसलमान बंधुओं का कार्य है। आज भी उस जगह पर दो फीट लम्बी इंटें निकलती हैं तथा समय समय पर अपूर्व कारीगरी के अनेक खंडित प्रस्तरखण्ड निकलते रहते हैं। महाराजा गुर्जरसम्राट कुमारपालने भी थराद में एक विशाल चतुर्मुख जिनालय बनवाया था। एक प्रतिमा पर प्रसिद्ध, हेमचन्द्राचार्य का नामोल्लेल भी है। परन्तु तेरहवी शताब्दि के पूर्वार्द्ध में
"Aho Shrut Gyanam"