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(२७४) धातीय व्य. साहवण मा० सोनहलदेवी के पुत्र संग्रामसिंहने पितृव्य छाड़ा के श्रेयार्थ पूर्णिमापक्षीय श्रीजयप्रभसूरि के उपदेश से श्रीकुन्थुनाथस्वामी का बिम्ब करवाया और श्रीसंघने उसकी प्रतिष्ठा करवाई।
श्री जीरापल्ली(जीराउला)तीर्थजीरावला पार्थनाथ नाम से यह तीर्थ प्रसिद्ध है। इस पुस्तकगत लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह तीर्थ पन्द्रहवीं शताब्दि में अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। जिसका प्रारम्भ तेरहवीं शताब्दि का अन्त या चौदहवीं शताब्दि में हुआ होना चाहिये । इस बावन जिनालयवाले सौषशिखरी मन्दिर की मूलनायक प्रतिमा भगवान् पार्श्वनाथ की है। पहली, पांचवीं, सोलहवीं, चौवीसवीं, पचीशवी, छब्बीसवीं और सचावीशवी देवकुलिका ऐसी हैं कि जिन में से कुछ पर तो लेख है ही नहीं और कुछ पर के लेख अतिजीर्ण और अस्पृष्ट हैं। इनके अतिरिक्त अन्य सर्व देवकुलिकाओं के शिलालेख इस में संग्रहित किये गये हैं। देवकुलिका नम्बर छियालीश, उगुणपचास, पचास और अट्ठावने के शिलालेख क्रमशः संवत १२६३, सं० १४११, सं० १४१२ और सं०१४१३ के हैं। छियालीशवी देवकृलिका का लेख सर्व से प्राचीन है। इनमें से द्वितीय और चतुर्थ में श्रीदेवचन्द्रसरि के पट्टधर श्रीजिन
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