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(२९५) लेखों में जो पश्चात्वर्ती और वैशाखशुला सप्तमी के हैं, इन दोनों आचार्यों का नाम विद्यमान है। भुवनसुन्दरसूरि और जिनचन्द्रहरि अनुक्रम से श्रीजयचन्द्रसूरि से छोटे हैं, इसलिये श्रीजयचन्द्रमरि के लिये इनके उपस्थित होने पर ही इनका नाम देना मर्यादानुसार उचित है।
(३०८ अ) देवकुलिका नं० ४६
सं० १२६३ अढाइक०२ गुरुवार के दिन श्रीधर्मघोषसरि के उपदेश से ओसवालज्ञातीय सं० आंवड़ पुत्र जगसिंह पुत्र उदयसिंह भार्या उदयादेवी के पुत्र नेमसिंहने इस जीरापल्लीपार्श्वतीर्थ में मोक्षरूपी धन प्राप्त करने के लिये देवकुलिका करवाई।
धर्मघोषसरि नामक दो प्रसिद्ध आचार्य तेरहवीं शतादि में हो गये हैं। एक वे हैं जो श्रीजयसिंहमूरि के पट्ट को अलंकृत करनेवाले थे और जिनके पश्चात् श्रीमहेन्द्रसिंहपरि हुए । उनका जन्म सं० १२०८, दीक्षा सं० १२२६, आचार्यपद सं०१२३४ और निर्वाण सं०१२६८ में हुआ। द्वितीय श्रीदेवेन्द्रसूरि के पट्टधर और सोमप्रभसूरि के गुरु थे। मांडवगढ़ के प्रसिद्ध महामंत्री पृथ्वीकुमार(पेथड़) के ये गुरु थे। निर्वाण सं०१३३२ में हुआ। दोनों आचार्यों के कालों पर विचार करने से यही उचित प्रतीत होता है कि उक्त
"Aho Shrut Gyanam"