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( २७६ ) आचार्यों का एक साथ चतुर्मास था और इन आचार्यों के दशनार्थ अनेक समीपवर्ती ग्राम नगरों से व्यक्ति और संघ आये थे। कलवा नगर का संघ अधिक उल्लेखनीय है। इस संघ के व्यक्तियों द्वारा विनिर्मित उक्त देवकुलिकाओं में श्रीभुवनचन्द्रसरि का नाम है। जिस से प्रगट होता है कि कलवा में अधिकतर जैन तपागच्छ के अनुयायी थे। इस समय तक जीरापल्ली एक प्रसिद्ध स्थान बन गया था और उसकी समृद्धि इतनी बढ़ गई थी कि उक्त चारों महान् आचार्यों के चतुर्मास का भार एक साथ वहन करने की उस में क्षमता थी।
पन्द्रहवीं, सोलहवीं, सतरहवीं और उन्नीशर्वी शताब्दि के पूर्वार्ध का कोई लेख नहीं है । अन्तिम लेख बावनवीं देवकुलिका के षट्चतुष्किका के स्तम्भ पर उत्कीर्णित .सं. १८५१ आश्विन पूर्णिमा का है, जब कि श्रीरंगविमलमूरिजी द्वारा इस तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया गया था और ३०११) रुपये इस शुम कार्य में व्यय हुए थे। एक से एकतालीश तक के शिलालेख इसी तीर्थ के हैं, जिनका हिन्दी अनुवाद नीचे दिया गया है । लेखों में जो तिथियों और दिवसों की अजीब अनमेलता है, भरसक सुलझाने का प्रयत्न करने पर भी कहीं कहीं पूरी असफलता रही है। एक उदाहरण नीचे देखिये
"Aho Shrut Gyanam"