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सूरि के पट्टधर श्री रामचन्द्रसूरि का नाम है और तृतीय के लेख में श्रीविजय सेनसूरि के शिष्य श्रीरत्नाकरसूरि का नाम है ।
सतरहवीं, अडतालीशवीं और बियालीशवीं देवकुलिकाओं के लेखों में किसी मी आचार्य या साधु का नाम नहीं है, परन्तु देवकुलिकाओं के अतिरिक्त एक लेख के सर्व ही लेख पन्द्रहवीं शताब्दि के ही हैं । अन्तिम लेख सं० १४९२ का है । इस तीर्थ की प्रसिद्धि करवाने का अधिक श्रेय तपागच्छ के महान् आचार्य श्रीदेवसुन्दरसूरि के शिष्य श्री सोमसुन्दरसूरि की शिष्य परम्परा में श्री जयचन्द्रसूरि श्री भुवनचन्द्रसूरि और श्री जिनचन्द्रसूरि को है ।
देवकुलिका नम्बर आठ, नौ, दश, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह, उन्नीश, तेवीस और इक्कावन के शिलालेखों में श्रीसोमसुन्दरसूरि के चतुर्थ पट्टधर श्रीभुवनचन्द्रसूरि का नाम है । देवकुलिका नम्बर अठारह के लेख में कृष्णपिंगच्छ के श्रीजयसिंहसूरि का, देवकुलिका नम्बर बीस के लेख में धर्मघोषगच्छ के श्रीविजयचन्द्रसूरि का और देवकुलिका नं० बावीस के द्वितीय लेख में मलधारीगच्छ के श्रीविद्यासागरसूरि का नाम है। ये सर्व लेख सं० १४८३ भाद्रपद कृष्णा सप्तमी गुरुवार के हैं। इन लेखों से प्रगट होता है कि सं० १४८३ में जीरापल्ली तीर्थ में उक्त चारों
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